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सर्दी का सुहावना मौसम क्या आया विदेशी मेहमान कई देशोँ की सरहदोँ को लांघते हुए देश मे आ गये ।बिना वीज़ा पासपोट के आये ये मेहमान उत्तर भारत के विभिन्न ग्रमीण इलाकोँ और मजरोँ मे आते ही फैल जाते हैँ।सीमाओँ पर पैनी नज़र रखने वाले बीएसएफ के जवानोँ ,कस्बाई पुलिस और गांवोँ के चौकीदार भी बिना वैध दस्तावोज़ोँ के आये इन विदेशी मेहमानों का मुस्करा कर स्वागत करतें है।जी हां आप ठीक समझे यहां बात हो रही है यूरोपीय देशोँ से आने वाले पंछियोँ की जो जाड़े का लुत्फ उठाने हर साल बड़ी तादात मे भारत आते हैँ। देश मे ठंड शुरु होते ही हज़ारोँ लाखोँ रंगबिरंगेँ खूबसूरत पक्षी यहां आ कर पक्षी विहारोँ और तालाबोँ की रौनक बढ़ाते हैँ।लेकिन मिटते तालाबों और घटते गावों से ये रौनक और खूबसूरत पल अब कितने सालों तक बाकी रहेगा इस पर सवाल उठने लगे है।
पक्षी विज्ञानियों के अनुमान के मुताबिक सैकड़ों सालों से करीब 365 प्रजातियों के प्रवासी पक्षी देश मे आते है।मार्च मे जैसे ही मौसम करवट लेता है ये वापस अपने देशोँ को लौट जाते हैँ। हज़ारोँ किलो मीटर की यात्रा करके ये यूरोप,चीन ,तिब्बत ,आफगानिस्तान और साइबेरिया आदि क्षेत्रोँ से ठंड से बचने के लिए भारत आते हैँ।दरअसल इन इलाकोँ मे अक्टूबर से मार्च तक कड़के की जमा देने वाली ठंड होती है इस लिए ये भारत का रुख करतेँ हैँ । सदियोँ से इन पंक्षियोँ का हर साल यही क्रम चला आ रहा है। विदेशी पक्षियों का हिन्दुस्तान से कितना पुराना लगाव है कि इसका जि़क्र मुगल सम्राट बाबर के ग्रन्थ बाबर नामा मे भी मिलता है।इससे ज़ाहिर होता है कि मुगल बादशाहों और दूसरे राजा महाराजाओं द्वारा तालाबों के र्निमाण की ये भी एक वजह रही होगी। जाड़े मे अपने देशोँ मे इन पक्षियोँ के लिए पानी और भोजन का भी संकट पैदा हो जाता है पर भारत मे उन्हेँ ये सुलभ हो जाता है।लेकिन महान पक्षी विज्ञानी स्व सालिम अली के मुताबिक पक्षियों का ये अंर्तराष्ट्रीय प्रवास अनसुलझी गुत्थी ,एक राहस्य है। उनके मुताबिक पक्षी विज्ञान से जुड़ी जितनी विचत्र बातें हैं उनमे सबसे ज़्यादा अजीब है पक्षियों का एक देश से दूसरे देश मे प्रवास । साल मे दो बार बसंत और पतझड़ मे चिडि़यां किसी तय जगह तक पहुंचने के लिए लम्बा सफर करती हैं।कभी कभी महाद्वीप और महासागर तक पार करती हैं। बरसों की खोज के बाद उनका कहना है कि ऐसा लगता है कि ये सैलानी पक्षी परिवार बढ़ाने के बाद मन बहलाने के लिए सफर करते हैं या फिर हर मौसम मे जीने लायक हालात खोज निकालने के लिए आते जाते हैं।
वैसे तो इनका असली ठौर तो भारतपुर का घना पक्षी विहार वा देश के दूसरे पक्षी विहार ही होते हैँ।लेकिन जिनको वहां जगह नही मिलती वह नदियोँ के किनारे ,छिछले तालाबोँ और झीलोँ के किनारे अपना ठिकाना बना लेते हैँ। वास्तव मे कितने तरह के पक्षी भारत आते हैँ और उनके सही -सही नाम गिना पाना पक्षी विशेषज्ञोँ के भी मुश्किल विषय है लेकिन साइबेरियन डक,लालसर ,सूरखाफ या सूरखाल ,सवल या सवन ,विभिन्न प्रजाति के बगूले ,लेदी,सारस और नीले पंखोँ वाली बतखेँ आदि खूबसूरत जाने पहचाने पंक्षी बड़ी तादात मे भारत आते है।ये पक्षी हज़ारोँ फिट की ऊंचाई पर उड़ कर हज़ारोँ किलो मीटर का सफर तय कर भारत आते हैँ।दशकोँ से पक्षी विशेषज्ञ इनकी रफ्तार और उड़ान की ऊंचाई पर खोज कर रहे हैँ। विशेषज्ञोँ का कहना है कि ये पंक्षी 15 से बीस हज़ारफुट की ऊंचाई पर लगभग 70-75 किलो मीटर की रफ्तार से उड़ान भरते हुए भारत तक पहुंते है। जानकारोँ का मत है कि अपनी लम्बी यात्रा के दौरान ये हिमालय पर्वत माला और दूसरे पर्वतोँ को भी सफलता पूर्वक पार करते हैँ।कहा जाता है कि कुछ पक्षी बिना रूके 2000 से भी अघिक किलो मीटर की उड़ान भरते है।विज्ञान ने आज हर क्षेत्र मे तरक्की कर ली है और आये दिन नयी तकनीक ,नये आइटम वा नये फार्मूलोँ का इजाद हो रहा है।फिर भी कुदरत की इन अनमोल रचना पंक्षियोँ के जीवन के कई पहलू अब भी अनछुये ही रह गये हैँ।विशेषज्ञोँ ने ये तो जान लिया कि ये सैलानी रात मे अपना अधिकांश सफर तय करते है।लेकिन लगातार खोज के बाद भी ये नही जान पाये कि रात के अंधेरे मे और खराब मौसम मे भी अपना रास्ता कैसे पहचानते हैँ।ये भी रहस्य है कि लम्बी-लम्बी यात्राओँ के बाद भी ये अपने घरोँ को कैसे वापस लौटते हैँ और उन्हेँ कैसे पहचानते हैँ।
भारत के प्रसिद्ध पक्षी वैज्ञानिक सालिम अली ने वर्षो की पड़ताल के बाद पक्षियोँ के जीवन के कई रहस्योँ से पर्दा उठाया और इनकी कइ नई प्रजातियोँ का भी पता लगाया है।अभी लगातार इनके बारे मे पता लगाया जा रहा है।मसलन ये किस दिशा से जाते हैँ ,क्या हमेशा एक ही रास्ते का चुनाव करते है और कहां रुकते हैँ। सबसे अहम ये बात है कि इनके ज़रिये बीमारियोँ के कीटाणुयोँ का जन्म कहां तक होता है।।उनके मुताबिक पक्षी विज्ञान से जुड़ी जितनी विचत्र बातें हैं उनमे सबसे ज़्यादा अजीब है पक्षियों का एक देश से दूसरे देश मे प्रवास ।साल मे दो बार बसंत और पतझड़ मे चिडि़यां किसी तय जगह तक पहुंचने के लिए लम्बा सफर करती हैं।कभी कभी महाद्वीप और महासागर तक पार करती हैं। बरसों की खोज के बाद उनका कहना है कि ऐसा लगता है कि ये सैलानी पक्षी परिवार बढ़ाने के बाद मन बहलाने के लिए सफर करती हैं।अनुमान लगाया गया है कि यूरोप और एशिया के उत्तरी प्रदेशों मे पैदा होने वाली चिडि़यों मे से चालिस फीसद ही प्रवासी होंती है।जबकि भारत मे पायी जाने वाली 1200 प्रजातियों मे से केवल तीन सौ ही सैलानी होती हैं।
यूँ तो ये विदेशी सैलानी उत्तर भारत के राज्योँ बिहार ,राजस्थान और उत्तर प्रदेश आदि मे फैल जाते हैँ।लेकिन मध्य प्रदेश के कई इलाके भी इनके ठिकाने रहते है।प्रदेश के तमाम छिछले और बड़े तालाबोँ और आवाजाही से दूर पहाड़ी नदियोँ के किनारे इनका बसेरा रहता है।विँध्य अंचल मे भी ये पंक्षी देखे जाते रहे हैँ।उत्तर प्रदेश मे इलाहाबाद मे संगम किनारे , चित्रकूट मे जंगलोँ के बीच से बहती नदी के किनारे और तमाम ग्रामीण इलाकों के छिछले तालाबोँ के किनारे भी इनका आशियाना रहता है। जबकि मध्य प्रदेश की राजघनी भोपाल मे वन विहार ,कालीसूत ,भदभदा और केरवा इलाके मे इनका फौरी आशियाना रहता है।मुम्बई की नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी ने प्रवासी पक्षियों के बारे मे जानकारी लेने के लिए उनकी टागों मे छल्ले पहनाने का काम बड़े पैमाने पर किया जा रहा है।उसको इससे ऐसे तथ्य और आकंड़े हासिल हुए है जो पहले ज्ञात नही थे। बताया जाता है कि कभी कभी छल्ले वाले वदिेशी पछी दिखायी पड़ जाते है।लेकिन साज संभाल की ठीक जानकरी ना हाने के कारण ऐसे मामले रिकार्ड मे नही आपाते है। आज बढ़ते शहरीकरण ,सिमटते गांव और कंक्रीट के बिछते जाल के चलते बेरहमी से जंगलोँ की कटाई हुयी है।उसने पर्यावरण को तो बिगाड़ा ही है इन बेज़ुबानोँ का ठौर और नेवाला भी छीन लिया है।पेड़ोँ मे बया के झूलते घोँसले ,कौआ की कांव -कांव और कोयल की कू-कू भी अब कम ही सुनायी देती है।आंगन मे फुदकती और चहचहाती गौरेया को आने वाली पीढ़ी शायद ही देख सके ।यही वजह है कि भारत आने वाले प्रवासी पक्षियों की संख्या हर वर्ष कम होती जा रही है ।अगले वर्ष फिर क्या ये परिंदे दोबारा आयेंगें इस पर सवाल खड़े किये जाने लगे है।तालाबों का भी व्यवसायिक इस्तेमाल होने लगा है और कई तालाब धन कमाने के अच्छे के साधन भी बन गये है।जबकि शहरी सीमा से लगे तालाबों का तो वजूद मिटा कर इमारतें बन रहीं है।कहीं सरकार की मर्जी़ से ऐसा हो रहा है तो कहीं भूमाफिया की अपनी ताकत से ऐसा हो रहा है।देश या प्रदेश मे तरक्कीशुदा शायद ही ऐसा कोई शहर हो जहां तालाब की ज़मीन पर बसाहट ना हो रही हो।कभी सरकार की नज़र इस पर पढ़ जाती है तो बुलडोज़र गरजता है ,शोरशराबा होता है और फिर एक नई इमारत तन जाती है।यकीन ना हो तो किसी भी शहर के दो -तीन दशक पुराने नक्शे से इसकी पड़ताल की जा सकती है।जबकि ग्रामीण अंचल मे वोट की राजनीति के चलते तालाबों पर बस्ती बसा दी जाती हे। वास्तव मे ये पक्षी परिस्थितिक संतुलन बनाने और मौसम की सूचना देने मे हमारे लिए काफी मद्दगार होते हैँ। फिर भी हम ईश्रवर की इस अनमोल रचना और अपने दोस्तोँ को बचाने के लिए बे खबर क्योँ हैँ।अब तक देसी पक्षियों की कई प्रजातियां विलुप्त हो चुकी है। बेज़ुबान पंक्षियोँ को दाना और पानी देना हर धर्म मे पुण्य का काम माना जाता है।तो फिर आईये आज कम से कम अपने देसी पक्षियोँ को बचाने का संकल्प लेतेँ है और अपने आसपास के लोगोँ को भी इनके संरक्षण के लिए जागरुक करेँ और उन लोगों के काम को आगे बढ़ायें जो बरसों से जल,ज़मीन और पक्षियों को बचाने के लिए प्रयत्नशील हें।
॰शाहिद नकवी ॰
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