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यहीं जन्मी और यहीं विकसित हुयी उर्दू ज़बान आज अपने ही मुल्क मे बेगानी है और वजूद की जंग लड़ रही है ।उर्दू को आज मज़हब वा कौम के दायरे मे बांधा जा रहा है और धर्म के आधार पर ज़बान के अधिकार के दावे हो रहें है।जबकि इस ज़बान ने किसी के साथ भेदभाव नही किया और तमाम ऐसी मिसालें मौजूद हैं जिसमे उर्दू समाज को एकता मे पिरोती दिख रही है।दयाशंकर नसीम ,पं;रतननाथ सरशार ,ज्वाला प्रसाद बर्क,रामचन्द्र तिलोक चंद्र महरूम ,बेनी नारायण जहां ,रघुपति सहाय फिराक़ और नायाण मुल्ला ऐसे कलमकार और पाये के शायर थे जिनका मज़हब कुछ और था लेकिन ज़बान उर्दू थी ।उर्दू इनके जीवन मे रच बस गयी थी और इनको पहचान इसी ज़बान ने दी ।उर्दू साहत्यि और ज़बान के विकास मे इनका महान योगदान खुद बा खुद सबूत है कि भाषा और साहित्य किसी वर्ग या सम्प्रदाय विशेष की बपौती नही है।साफ ज़हिर है कि ज़बान का अपना कोई मज़हब नही होता ,वरन मज़हब को अपनी पहचान बनाने के ज़रूर ज़बान की ज़रूरत पड़ती है । कई शायरों और साहित्यकारों ने माना है कि उर्दू एक भाषायी गुलदस्ता है जिसमे कई ज़बान के फूल खिलें है।कुछ लोग इसे हिंदी का एक रूप मानते हैं क्यों कि इसमे अधिकाशं शब्द बोलचाल की भाषा के हैं । यानी इसका अविश्कार देश के कई प्रान्तों के लोगों ने मिल कर किया है।आज़ादी आंदोलन मे भारतीय भाषओं की पत्रकारिता का अहम योगदान रहा है।उसमे उर्दू पत्रकारिता काफी आगे रही है ।
साहित्य धर्म और जातीयता से ऊपर उठ कर ही श्रेष्ठता की परिधी मे प्रवेश पाता है।ये उर्दू ज़बान है जिसमे प्रेम का सुख दुख ,विकलता, विवशता, मिलन की आतुर प्रतिक्षा, प्रेम निवेदन, प्रिय का सौंदर्य वर्णन, उसकी शोखी और चंचलता एक नई जीवन्तता के साथ मिलती है।उर्दू भारत की आघुनिक भारतीय आर्य भाषाओं मे से एक है।इसका विकास मध्ययुग मे उत्तरी भारत के उस क्षेत्र मे हुआ जिसमे आज पश्चिमी उत्तर प्रदेश ,दिल्ली और पूर्वी पंजाब आतें है।लेकिन बीते कल का शानदार इतिहास भी आज उर्दू को आगे बढ़ने की प्रेरणा नही दे पा रहा है।
ऐसा भी नही है कि सरकारों ने उर्दू ज़बान से जुड़े विभागों पर ताले जड़ दिये हों और बजट बंद कर दिये हों ।साल दर साल उर्दू विकास और शिक्षा के नाम पर भारत सरकार और उत्तर प्रदेश सहित दूसरी राज्य सरकारे हर महीने स्थापना व्यय पर करोंड़ों की रकम खर्च कर रहीं है।फिर भी फाइलों से इतर असल मे इस भाषा को बोलने ,पढ़ने ,लिखने और समझने वाले नही बढ़ रहें है।अगर सरकारी प्राइमरी और जूनियर स्कूलों की पड़ताल की जाये तो देश मे उर्दू ज़बान की हकीकत सामने आ जायेगी ।उत्तर प्रदेश मे 1985 से और देश के दूसरे राज्यों मे उर्दू भाषा के शिक्षक कई दशकों से तैनात है लेकिन ये शिक्षक उर्द्रू के अलावा दूसरे विषय पढ़ाते है या खुद पढ़ाने मे दिलचस्पी नही लेतें है।एक पड़ताल के मुताबिक सरकारें इन शिक्षकों के वेतन पर हर माह करोड़ों रूपये रूपय खर्च करती हैं लेकिन सरकारी स्कूलों मे उर्दू की किताबें ही नही भेजी जाती हैं जिससे ये शिक्षक अपनी असली जि़म्मेदारी को पूरा नही कर पाते हैं।आज हालात ये है कि सरकारी स्कूलों मे उर्दू पढ़ने वाले बच्चे कम और शिक्षक ज़्यादा हैं।स्कूलों मे मुस्लिम छात्रो की संख्या का सही सत्यापन करके इस बात की हकीकत को समझा जा सकता है। उत्तर प्रदेश मे जब भी समाजवादी पाट्री की सरकार बनती है तो उर्दू शिक्ष्ाकों की भर्ती की जाती है।आंकड़ों के मुताबिक आज भी उत्तर प्रदेश के सरकारी स्कूलों मे उर्दू शिक्षकों की तादात देश के दूसरे राज्यों के मुकाबले ज़्यादा हे।सरकारी कोशिशों से स्कूलों मे उर्दू शिक्षकों की संख्या बढ़ रही है लेकिन इस भाषा को पढ़ने वाले छात्रों की संख्या उस अनुपात मे नही बढ़ रही हे ।हाल मे ही फिर से उत्तर प्रदेश सरकार ने पहल करके बरसों से भर्ती की राह देख रहे मोअल्लिम डिग्री धारकों की भर्ती शुरू की है अब तक हज़ारों भर्तीयां हो भी चुकी है ।लेकिन अफसरशाही के अपने मापदंडों के चलते आज भी स्कूलों मे उर्दू ज़बान की पढ़ाई की रफ्तार सुस्त है ।
अक्सर शिकायतें मिलती हैं कि सरकारी स्कूलों मे उर्दू भाषा की किताबें और पेपर की वयवस्था नही हो पाती है जिसके चलते शिक्षक पढ़ाई नही करा पाते हें ।सरकार ने अपनी ओर से इस भाषा की निगरानी के लिए निदेशक से लेकर मण्डल स्तर पर उप विद्यालय निरीक्षक उर्दू माध्यम और जनपद स्तर तक अधिकारियों की फौज तैनात की है ।लेकिन कभी इसके लिए तेनात ज़िम्मेदार अधिकारी असली खोज परख नही करते हे ।नतीजन उर्दू के नाम पर तैनात शिक्षक दूसरे विषय पढ़ाते हैं या ऐसी जगह तैनात हैं जहां उर्दू भाषी छात्र नही हे ।प्रदेश सहित देश के दूसरे राज्यों मे भी उर्दू माध्यम स्कूलों की तादात बहुत कम है । हाल मे ही इस पर गौर किया गया तो अब मुस्लिम आबादी मे प्राथमिक से लेकर हाई स्कूल स्तर पर उर्दू माध्यम स्कूल खोले जाने का एलान किया गया हे । केन्द्र सरकार की ओर से भी उर्दू के लिए तमाम योजनाएं चलायी गयी लेकिन ज़मीनी हकिकत मे इन योजनाओं का कोई असर नही दिखता है । संविधान के अनुच्छेद 345 के तहत त्रिभाषा नीति मे उर्दू को कई राज्यों मे क्षेत्रिय भाषा का दर्जा दिया गया है ।इसके तहत केन्द्र सरकार के जनता से सीधे जुड़े कार्यालयों मे इस ज़बान के उपयोग पर बल दिया गया है लेकिन इस पर अमल नही होता है ।सरकारी फार्म और कार्यालयों के बोर्ड अंग्रेज़ी वा हिंदी के साथ उर्दू मे भी छपाने के आदेश हैं । इसके अलावा पत्रों का अनुवाद भी उर्दू मे किया जाना चाहिए लेकिन आकंड़ों के मुताबिक कई केन्द्रिय कार्यालयों मे उर्दू अनुवादक तक नही हैं ।वहीं रेल्वे आरक्षण सहित दूसरे फार्म सिर्फ दो भाषाओं मे ही मिलते हैं । जबकि आर टी आई के मुताबिक केन्द्र सरकार के राज भाषा विभाग ने अप्रैल 2011 और जून 2012 मे दिनाकं 18-6-1977 के आदेश 1/14013/5/76-रा.भा.के तहत सभी विभागों इस बावत को निर्देश दिया था।इस से ज़हिर होता है कि केन्द्र सरकार के कई आदेश महज़ कागज़ों तक ही सीमित हैं ।ये हालात तब हैं जब पिछले दस सालों से केन्द्र मे अल्पसंख्यकों के विकास का ज़िम्मा लेने वाली पार्टी की सरकार है ।
उर्दू भाषा के विकास के लिए सक्रिय उर्दू डेवलपमेंट आर्गनाईज़ेशन ने सूचना के अधिकार के तहत केन्द्र के कार्यालयों मे इस ज़बान की स्थिति को लेकर कई बार भारत सरकार से सूचनाएं मागीं और शिकायती पत्र भेजे लेकिन नतीजा कुछ खास नही रहा ।संगठन के सचिव डा. परवाज़ उलूम आज़मी और अघ्यक्ष अख्तर चूड़ी वाला उर्दू को जन –जन की भाषा बनाने और केन्द्र के काय्रालयों मे सरकारी निर्देशों को अमल मे लाने के लिए प्रयासरत हें ।अखिलेश सरकार की तरह हिेदी भाषी प्रदेशों की दूसरी सरकारों को भी उर्दू अकादमी मे उर्दू के जानकारों को नियुक्त किया जाना चाहिए । ये अकादमी प्रांतों मे इस भाषा के विकास मे मददगार साबित हो सकती हें ।वैसे उत्तर प्रदेश मे उर्दू अकादमी का गठन सन 1972 मे ही हो गया था । नामचीन शायर और उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी के नव नियुक्त चेयरमैन मुनव्वर राना का भी मानना है कि उर्दू की दशा खराब है और इसके लेए ज़िम्मेदार भी उर्दू वाले ही है । उर्दू साहित्य से जुड़े तमाम लोगों का मत है कि इसे सीधे रोज़गार से जोड़ कर ही विकसित किया जा सकता है ।आज़ादी के आंदोलन से लेकर अब तक देश को एकता मे पिरोने की वकालत करने वाली इस भाषा के विकास को एक खास नज़र से देखने की ज़रूरत है और एक जीवंत वा भारतीय ज़बान को बचाने के लिए सब को आगे आना चाहिए ।सरकार के साथ – साथ अपने को उर्दू वाला कहने वालों को भी खुद के अमल मे पारदर्शिता लाना चाहिए ।तभी इस ज़बान का भला होगा ।
*शाहिद नकवी *
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