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भाजपा मे सब पर भारी अवसरवाद

Shahid Naqvi
Shahid Naqvi
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नैतिकता ,आदर्श , सिध्‍दांत और विचारधारा पर आज की राजनीति मे अवसरवाद
भारी है।न तो नेता विचारधारा पर कायम हें और न ही राजनीतिक दल ही अपने
आदर्शों पर चल रहे हैं ।सबसे अधिक भाजपा मे मोदी युग के इस दौर मे काफी
विपरीत धारा बह रही है ।भाजपा के पास आज ऐसे चेहरों की भरमार है
जिन्‍होने रातोंरात अपनी निष्‍ठा बदली है । चुनावों की घोषणा के साथ मोदी
लहर का दम भारने वाली भाजपा को चुनाव जीतने लायक उम्‍मीदवार अपनी विरोधी
पार्टीयों से लेना पड़ रहा है ।उसे लग रहा है कि बाहर वाले ही इस चुनाव
मे उसके खेवनहार बनेगें । धर्मर्निपेक्षता के नाम पर हमेशा भाजपा को
कठघरे मे खड़ा करने वाले नेताओं के लिए भाजपा ने न केवल अपना दावाज़ा
खोला वरन उनको पार्टी के पुराने नेताओं पर टिकट देने मे तरजीह भी दी । इस
लिए अब तक घोषित भाजपा प्रत्‍याशियों मे दलबदलूओं की लम्‍बी फेहरिस्‍त
दिख रही है।उम्‍मीदवारों की चयन प्रक्रिया और मापदण्‍ड भाजपा के पुराने
नेताओं वा वफादार कार्यकर्ताओं के लिए अबुझ पहेली है ।बरसों से पार्टी का
झण्‍डा बुलंद करने वाले कार्यकर्ता और दुर्दिन से निकाल कर मुकाबले मे
लाने वाले भाजपा नेता इससे सकते में हैं ।सीटें बदलने और उम्‍मीदवारी ना
मिलने से कई वरिष्‍ठ नेता चुनाव की बेला मे नाराज़ भी दिख रहे हैं
।उत्‍तर प्रदेश ,पंजाब ,बिहार सहित कई राज्‍यों मे भाजपा के प्रत्‍याशी
घोषित होने के बाद सथानीय स्‍तर पर नेताओं की नाराज़गी सामने आयी है
।कांग्रेस छोड़ने वाले नेताओं की संख्‍या सबसे ज्‍़यादा है तो भाजपा
दूसरे दलों के बागियों का सबसे सुरक्षित ठिकाना बनती दिख रही है ।
भारतीय राजनीति मे विचारों की विदाई हुए तो बहुत लम्‍बा समय
बीत चुका ,लेकिन अब वफादारी जैसे शब्‍द भी बेमानी हो गयें हें ।इस लिए हर
चुनाव के पहले अब राजनीतिक दलों मे आयाराम –गयाराम का खेल चलता है ।हर
बार की तरह इस बार भी ऐन चुनाव के समय दलबदल और दल त्‍याग की घटनाएं होने
लगी है ।बहुत से नेताओं के लिए चुनाव के पहले पार्टी बदलना मनचाहा टिकट
पाने का सुरक्षित रास्‍ता बनता जा रहा हे । इस लिए जब चुनाव मे टिकट न
मिलने से कोई अपनी पार्टी छोड़ता है तो उतना आश्‍चर्य नही होता लेकिन जब
धुर विरोधी विचार धारा वाले दल मे दलबदलू नेता का स्‍वागत टिकट के साथ
होता है तो ज़रूर ताज्‍जुब होता है ।भाजपा अपने को वैचारिक पार्टी मानती
रही है और अब तक पुराने नेताओं वा कार्यकर्ताओं की टिकट वितरण मे अहमियत
रहती थी । लेकिन सन 2014 के चुनाव मे भाजपा ने सत्‍ता तक पहुंचने के लिए
अपनी पुरानी विचार धारा और ऐजेन्‍डे को किनारे कर दिया है ।कांग्रेस सहित
कई दलों मे भगदड़ मची है तो वहीं भाजपा का दरवाज़ा सबके लिए खोल दिया गया
है।भाजपा मे अब तक कई ऐसे नेताओं को टिकट मिला है जिन्‍होने सुबह पार्टी
ज्‍वाईन की और शाम को टिकट का एलान हो गया ।उत्‍तर प्रदेश सहित कई
राज्‍यों मे ऐसी कई मिसालें हैं ।
यही वजह है कि चुनाव सर्वेक्षणों मे आगे बतायी जा रही भाजपा
मे अनुशासन के चाबुक से बे खौफ टिकट बंटवारे को लेकर कलह सतह पर दिखने
लगी है । किरन खेर को चंडीगढ़ और उदित राज को उत्‍तरी पश्‍चिमी दिल्‍ली
से टिकट देने को लेकर शुरू हुए विरोध का दायरा बढ़ता जा रहा है ।उत्‍तर
प्रदेश ,बिहार और झारखण्‍ड मे लगातार पार्टी उम्‍मीदवारों के खिलाफ विरोध
प्रदर्शन हो रहें हैं।बिहार मे पाटिलपुत्र से राजद से भाजपा मे आये
रामकृपाल यादव को टिकट देने से नाराज़ संतोष कुशवाहा ने विधायकी और
पार्टी दोनों छोड़ दिया ।वरिष्‍ठ नेता सुरेश शर्मा ने प्रदेश चुनाव
प्रबंध समिति छोड़ दी है।कभी लौहपुरूष कहे जाने वाले लालकृष्‍ण आडवाणी के
तेवर एक बार फिर बिगड़ गये हैं तो उत्‍तर प्रदेश विधान सभा के पूर्व
अध्‍यक्ष केसरी नाथ त्रिपाठी टिकट ना मिलने से मायूस हैं ।अटल ज़माने मे
पार्टी के संकटमोचन रहे कद्दावर नेता जसवंत सिेह का टिकट काट कर दूसरे दल
से आये नेता को भाजपा ने अपना सारथी बना लिया ।अब जसवंत सिहं बगावती तेवर
मे हैं ।जबकि ये कहा जा रहा है कि बाड़मेर मे आज भी वह उनके मुकाबले का
कोई दूसरा नेता नही है ।ये सत्‍ता तक पहुंचने की लालच नही तो और क्‍या है
,महिलाओं पर हमले के आरोपी प्रमोद मुतालिक को आनन फानन मे भाजपा मे शामिल
किया गया । फिर भारी आलोचना के बाद उनकी सदस्‍यता रद्द की गयी ।गौर तलब
है कि मुतालिक महिलाओं पर हमले सहित 45 मामले चल रहें हैं ।सन 2009 मे
मेनका गांधी के खिलाफ चुनाव लड़ने वाले धर्मेन्‍द्र कश्‍यप को इस बार
भाजपा ने आंवला से टिकट दिया है । इस सब के खिलाफ पार्टी के भीतर असंतोश
है । मैनपुरी मे संगठन की ओर से पार्टी प्रत्‍याशी का विरोध हो रहा है।हर
विरोध के निशाने पर पार्टी अध्‍यक्ष राजनाथ सिहं हैं ।उत्‍तर प्रदेश के
कई शहरों मे खुल कर सड़कों पर प्रदर्शन हुए तो बिहार , दिल्‍ली वा
झारखण्‍ड मे भी ऐसा ही हुआ ।
अब सवाल ये पैदा होता है कि जब सारे देश मे भाजपा और मोदी
की लहर चल रही है तो फिर भाजपा को अपनी पार्टी मे चुनाव जीतने वाले
उम्‍मीदवार क्‍यों नही मिल रहें हैं ।लम्‍बे अर्से से जो पार्टी की जयकार
कर रहें हैं या जिन नेताओं ने भाजपा को इस मुकाम तक पहुंचाया है उनको
भाजपा खुशी का मनाने का मौका क्‍यों नही देना चाहती । भाजपा की राजनीति
के जानकारों का कहना है कि सन 2014 के चुनावों मे भाजपा किसी तरह का
जोखिम नही लेना चाहती है ।अगर इस बार सत्‍ता उसके हाथ से फिसल गयी तो फिर
जल्‍दी वह केन्‍द्र की सत्‍ता तक नही पहुंच सकती है ।इस लिए उसे अपनी
विचार धारा और आदर्शों से भी हटने मे परहेज़ नही है । जगदिंबा पाल ,
ब्रजभूषण शरण सिहं ,कीर्तिवर्धन सिहं ,श्‍यामाचरण गुप्‍ता ,रामकृपाल यादव
,भागीरथ प्रसाद , कर्नल सोनाराम चौधरी ,डी पुंदेश्‍वरी जैसे तमाम नाम हैं
जो दूसरे दलों को छोड़ कर आये और भाजपा मे उनको तत्‍काल मे टिकट दे कर
स्‍वागत किया गया ।इस मे से कई ऐसे हैं जो भाजपा की विचार धारा के कट्टर
विरोधी रहे हें और उनका पूरा जीवन धर्मर्निपेक्षता का झण्‍डा बुलंद करने
वा भाजपा पर साम्‍प्रदायिक होने का आरोप लगाने मे बीता है ।वैसे दूसरे
दलों ने भी दलबदलूओं को गले लगाया है लेकिन उनकी तादात काफी कम है । इससे
तो यही लगता है कि पार्टी की विचार धारा या राजनीतिक मूल्‍यों के कारण
नेताओं की प्रतिबध्‍दता हंसी मज़ाक की चीज़ बन कर रह गयी है ।तत्‍कालिक
राजनीतिक लाभ ही सबसे बड़ी चीज़ बन गयी है ।इस बार दलबदल मे कई ऐसे नेता
भी शामिल रहे हैं जिन्‍होने अपने दलों का दशकों पुराना साथ छोड़ा है
।दलबदल करने वाले नेताओ के अपने तर्क भी हे ।कांग्रेस छोड़ कर भाजपा मे
शामिल हुए सतपाल महाराज ने तर्क दिया कि कांग्रेस को उनका हिंदू सर्मथक
होना रास नही आरहा था ।ये सब जानते है कि वह कांग्रेस सरकार मे मंत्री
रहने के साथ अहम पदों पर थे । कहा जा रहा है कि वह रावत को मुख्य मंत्री
बनाये जाने से नाराज़ थे ।इस तर्क के बाद यहां एक सवाल उठता है कि जनता
किस हद तक समझदार है और वह क्‍या नेताओं के भीतर छीपे एक और चेहरे को भी
पहचानती है ।राजनीतिक हलके मे चर्चा है कि इस तरह के स्‍वागत से भाजपा का
मोदी मिशन फेल भी हो सकता है ।
आयाराम –गयाराम का ये खेल भारतीय राजनीति मे 1967 से खुल कर खेला जाना
शुरू हुआ ,जब दल बदलने की एक साथ कई घटनाएं हुयी । लेकिन इसके बाद तो ऐसी
घटनाएं आम हो चली है ।चुनाव के समय ,टिकट वितरण और सरकार के गठन के समय
ऐसे खेल होतें है ।सन 1985 मे चुनाव बाद दलबदल को रोकने के लिए दलबदल
विरोधी कानून बनाया गया था लेकिन इससे भी समस्‍या का पूरी तरह समाधान नही
हो सका और आज भी चुनाव के बाद दलबदल पर पूण विराम नही लग सका है ।दरअसल
दलबदल की समस्‍या के कुछ ऐसे पहलू भी हैं जिनकी अनदेखी नही की जा सकती है
।हर बार दलबदल अवसरवाद या लाभ के लिए ही होता हो ऐसा नही कहा जा सकता है
।कई बार इसके मूल मे भारतीय लोकतंत्र मे मंज़ूर पार्टी प्राणाली और
राजनीतिक दलों मे आंतरिक लोकतंत्र की कमी भी होती है ।हमारा लोकतंत्र छह
दशक पुराना है ,इस दौरान र्निवाचन आयोग का सुधार कायेक्रम जारी है ओर
अदालतों के हस्‍तक्षेप के बाद तो भारतीय राजनीति का शुध्‍दीकरण भी शूरू
हुआ है ।लेकिन अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है ,जिसके के लिए भारतीय
राजनीतिक वर्ग सोचने के लिए तैयार नही दिखता है ।क्‍यो कि राजनीति मे तो
असली सुधार उनको ही लाना है ,जिनके पास कानून बाने और उसको अमली जामा
पहनाने का अधिकार है ।जब तक ऐसा नही होता तब तक अवसरवाद और मूल्‍यहीनता
का खुला खेल चलता रहेगा ।
*शाहिद नकवी *

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