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रंग बिरंगी संस्कृति के इस महान देश मे इन दिनों चारों ओर त्यौहारों की
धूम नजर आ रही है। भारत मे अक्टूबर का महीना त्योहारों व उल्लास का
समय होता है । भारत मे रहने वाले सभी धर्मों व सम्प्रदायों के लोग
अपने-अपने धर्मों के पारम्परिक त्यौहारों को मनाने में व्यस्त हैं। चारों
तरफ आस्था और पूजा के आयोजन हो रहे हैं और पूरा समाज भक्तिभाव में डूबा
हुआ है। न केवल मंदिरों में बाजारों और मोहल्लों में भी स्थान-स्थान पर
नवरात्रों के उपलक्ष्य में दुर्गा, लक्ष्मी व सरस्वती की आराधना की
आवाज़ें गूंजती रहती है पूरा वातावरण भक्तिमय हो गया । समाज का लगभग हर
व्यक्ति, कुछ कम कुछ ज्यादा इन कार्यक्रमों में हिस्सा लेता है। सामाजिक
उल्लास व सार्वजनिक सहभागिता का ऐसा उदाहरण और कहीं मिलता नहीं है।
बच्चे, किशोर, युवा, वृद्ध, स्त्री, पुरूष, मजदूर, किसान, व्यापारी,
व्यवसायी सभी इन सामाजिक व धार्मिक कार्यों में स्वयं प्रेरणा से जुड़े
हैं। इन कार्यक्रमों के आयोजन के लिए और लोगों की सहभागिता के लिए कोई
बहुत बड़े विज्ञापन अभियान नहीं चलते, छोटे या बड़े समूह इनका आयोजन करते
है और स्वयं ही व्यक्ति और परिवार दर्शन -पूजन के लिए आगे आते हैं। कहीं
भी न तो सरकारी हस्तक्षेप है और ना ही प्रशासन का सहयोग। उत्तर से
दक्षिण, पूर्व से पश्चिम सभी महानगरों, नगरों और गांवों में धार्मिक
अनुष्ठानों की गूंज है।
भारत दुनिया का एक ऐसा निराला देश है जहां सबसे अधिक
संख्या में पर्व और उत्सव मनाए जाते हैं। इसका भी मुख्य कारण यही है कि
यहां अनेक धर्मों व विश्वासों के लोग सदियों से सामूहिक रूप से रहते चले
आ रहे हैं। साम्प्रदायिक सद्भाव के माहौल से परिपूर्ण इस देश में कई
शहरों मे अनेकों त्यौहार ऐसे हैं जोकि सभी सम्प्रदायों के लोगों द्वारा
या तो सामूहिक रूप से मनाए जाते हैं या फिर उसके आयोजन में सभी समुदायों
के लोगों का अहम सहयोग होता है। दशहरा, ईद, दीवाली, गणेश उत्सव,
डाण्डिया, दुर्गापूजा, होली तथा मोहर्रम आदि प्रमुख त्यौहारों को
साम्प्रदायिक सद्भाव पेश करने वाली ऐसी ही श्रेणियों में रखा जा सकता है।
दशहरा पर्व भारतीय संस्कृति में सबसे ज्यादा बेसब्री के साथ इंतजार किये
जाने वाला त्यौहार है। दशहरा शब्द की उत्पत्ति संस्कृत भाषा के शब्द
संयोजन ‘दश’ व ‘हरा’ से हुयी है, जिसका अर्थ भगवान राम द्वारा रावण के दस
सिरों को काटने व तत्पश्चात रावण की मृत्यु रूप में राक्षस राज के आंतक
की समाप्ति से है। यही कारण है कि इस दिन को अन्याय पर न्याय की विजय के
रूप में भी मनाया जाता है ।दशहरा पर्व भारत मे कई कारणें से अहम है ।इसी
कारण से एक ही पर्व के देश के विभिन्न प्रांतों में भिन्न-भिन्न रूप
देखने को मिलते हैं। इस पर्व का विशेष संदेश असत्य पर सत्य अथवा बुराई पर
अच्छाई की विजय है। इसे विजय दशमी भी कहा जाता है। सत्य के साथ-साथ यह
पर्व खुशी-समृद्धि और उल्लास का भी प्रतीक है। आश्विन माह के आते ही
प्रकृति में भी अनोखा निखार आ जाता है। वर्षा ऋतु की समाप्ति के बाद
चारों ओर हरियाली की छटा खुशी और उल्लास का भाव पैदा करती है। खरीफ की
फसल तैयार होने से किसान भी खिले और उत्साहित रहतें है। रामलीला का आयोजन
और नवरात्र के भक्तिपूर्ण माहौल में दशमी को रावण के पुतलों का दहन किया
जाता है।
दशहरे को विजयदशमी के अलावा भारत के विभिन्न प्रांतों में बिजोया, आयुध
पूजा के रूप में भी मनाने की परम्परा है।माना जाता है कि भगवान श्रीराम
ने इसी दिन रावण का संहार किया था।इसी लिए इसे विजय दशमी भी कहा जाता है।
कहा जाता है कि राम द्वारा रावण के वध की घटना कालान्तर में इतनी
लोकप्रिय हुई कि इस दिवस को युद्ध के लिए शुभ मुहूर्त भी माना जाने लगा
।पहले राजा विजय के लिए युद्धभूमि में इसी दिन प्रस्थान करते थे।तब से
विजय दशमी के दिन मान्यताओं के मुताबिक आज भी रियासतों ,इलाकेदारों और
क्षत्रिय परिवारों मे विजय दशमी के दिन अस्त्र –शस्त्र का पूजन पूरे
वीधिविधान से होता है ।देश की तमाम रियासतों के वारिस आज भी पुरानी राजसी
पोशाकों मे इस दिन गद्दी पूजन करतें हैं । दशहरा पर्व पर शमी वृक्ष की
पूजा का भी विधान है। इसके पीछे दो मान्यताएं हैं। भगवान राम जब लंका पर
आक्रमण के लिए निकले थे तब शमी वृक्ष उनकी विजय की कामना और घोषणा की
थी। दूसरे महाभारत काल में अर्जुन ने अपने अज्ञातवास के समय अपना धनुष
शमी वृक्ष पर ही रखा था। इसी वजह से शमी वृक्ष की अहमियत भी दशहरे के याथ
जुड़ गयी , तब आज तक बादस्तूर दशहरे के दिन शमी की पूजन की जाती है।
दशहरे से जुड़ा एक अहम पहलू यह भी है कि खरीफ की फसल इसी समय पककर तैयार
होती है और रबी की बुआई का भी यह मुनासिब वक्त होता है। इस लिए हमेशा
खेतों मे मेहनत मज़दूरी करने वाले किसानों के लिए भी यह खुश होने का मौका
रहता है। भारत के विभिन्न प्रांतों में इसका रूप वहां की अनोखीसांस्कृतिक
पृष्ठभूमि के कारण भिन्न-भिन्न नजर आता है।उत्तर भारत मे ये सीधें रावण
दहन से जुड़ा हो लेकिन देश के अन्य हिस्से मे इसे दूसरेरूप मे मनाया
जाता है ।ब़गाल मे दशहरे का मतलब रावण दहन नही दुर्गा पूजा होती है
,जिसमे मां दुर्गा को महिषासुर का वध करते हुए दिखाया जाता है ।
छत्तीसगढ़ में बस्तर के दशहरा मनाने का अलग अंदाज़ है। यहां दशहरे को
राक्षस के संहार या लंका विजय के रूप में नहीं मनाया जाता है बल्कि इस
पर्व को ‘मां दंतेश्वरी’ की आराधना से जोड़ा जाता है । बस्तर का दशहरा
आज भी वहां के आदिवासी संस्कृति की आन बान शान का प्रतिक है ।यहां का
आकर्षण मां दन्तेश्वरी का विशाल दो मंज़िला रथ होता है जिसे माडिया
जाति के बलशाली आदिवासी युवक खींचतें हैं ।इस भारी भरकम रथ को खींचने के
लिए आदिवासी हज़ारों युवको को पिधिवत आम़त्रित किया जाता है ।बस्तर मे
दशहरा का पर्व ढ़ाई महीने तक चलता है । तो वहीं हिमांचल प्रदेश के
कुल्लू मे सजीधजी पालकियों मे स्थानिय लोकदेवताओं की सवारी निकालने की
परम्परा है ।इसी तरह से प़जाब ,महाराष्ट्र , जम्मू काश्मीर ,गुजरात
और उड़ीसा के भी दशहरा मनाने के अपने अलग अंदाज़ हैं । एक मान्यता यह
भी है कि मां दुर्गा को ‘विजया’ भी कहा जाता है अत: उनके नाम के आधार पर
ही इस पर्व को विजया दशमी कहा जाता है।दशहरा पर्व का ज्योतिषीय महत्व भी
है। ऐसा माना जाता है कि दशमी को एक शुभ भी मुहूर्त होता है, इस विशेष
काल को मंगलकारी माना गया है । ऐसी भी मान्यता है कि इस दिवस पर श्रवण
नक्षत्र का योग परम कल्याणकारी व शुभ होता है।
यू़ तो दशहरा पवै हमारे सामने अपने ऐतिहासिक
परिपेक्ष्य में भगवान राम के उच्च आदर्शों और बेहतर जीवन चरित्र को
प्रस्तुत करता है । लंकिन इससे दुराचारी, अत्याचारी व अहंकारी शक्तियों
के समक्ष घुटने न टेकने की प्रेरणा भी मिलती है ।अगर देखा जाये तो
हज़ारों साल पहले समाज मे जो घटा उसी तरह के हालात आज भी हमारे सामने हैं
।कहा जाता है कि राजा दशरथ के प्रभाव को रोकने के लिए रावण ने वनों मे
आश्रमों पर हमले के लिए सेना भेजी थी ताकि उनका संबंध ऋषि मुनियों से टुट
जाये जिनके ज़रिये से राज्य की योजना बनती थी ।क्या आज का उग्रवाद और
माओवाद इस श्रेणी मे नही आता है ?ज़ाहिर है कि ये पर्व भी हमें समाज
विरोधी ताकतों से निपटने की सलाहियत देता है ।अगर इस त्योहार के वर्तमान
संदर्भ पर नज़र डाले़ तो ये साम्प्रदायिक सदभाव की मिसाल भी पेश करता है
।देश में अनेक स्थानों पर आयोजित होने वाली रामलीला में मुस्लिम धर्म के
लोग रामलीला के मंचन में किसी न किसी पात्र के रूप में अपनी भूमिका
निभाते हैं। ऐसा करते समय किसी उनके सामने किसी प्रकार का पूर्वाग्रह
आड़े नहीं आता।देश के कई स्थानों पर तो रामलीला की शूरूआत ही मुस्लिम
समाज की पहल पर हुयी है ।पूजा के काम आने वाला कई सामान मुस्लिम परिवार
पीढ़ियों से बनाते आ रहे हैं ।रामनामी चुनरी ,कलेवा ,कांवर यहां तक की कई
जगहों पर दशहरा पंडालों की सजावट का पूरा ज़िम्मा मुस्लिमों के हाथों
मे रहता है ।हिन्दू त्योंहारों और पूजा के सामानों की बिक्री से उन के
परिवार का भरण पोषण होता है । देश में तैयार होने वाले रावण के अधिकांश
पुतले और रामलीला से जुडे साजो सामान व स्टेज आदि को सजाने व उसके रख
रखाव में भी मुस्लिम समुदाय का बडा योगदान रहता है।इनके बनाये पुतलों की
सभी जगह मांग रहती है ।एक दूसरे से इतनी निकटता और एक दूसरे के पर्वों को
मिलजुलकर मनाने का चलन बढ़ने से ही समाज विरोधी ताकतें अपने मंसूबे मे
कामयाब नही हो पाती हैं । ज़ाहिर है कि हर त्यौहार का कोई न कोई सामाजिक
उद्देश्य भी है इस लिए सभी त्यौहारों का संबंध भूतकाल से होते हुए भी
इनकी प्रासंगिकता वर्तमान मे परिभाषित करने की ज़1रूरत है । ताकि भारत की
सतंरगी परम्परा और सामाजिक रिश्ते और मज़बूत हो सकें ।
**शाहिद नकवी **
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