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आतंकवाद के सामने ना झुकने का संकल्‍प है कर्बला

Shahid Naqvi
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इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की शहादत के बाद से मोहर्रम केवल एक महीने का नाम नहीं रह गया बल्कि यह एक दुखद घटना का नाम है, एक उसूल व सिद्धांत का नाम है और सबसे बढ़कर सच्चाई व झूठ, ज़ुल्म तथा बहादुरी की कसौटी का नाम है। मुहर्रम का महीना मन-मस्तिष्क में उस महान आन्दोलन और कुर्बानी की याद को जीवित करता है।जो पैगम्‍बर हज़रत मोहम्‍मद के नवासे हुसैन इब्ने अली ने वर्ष 61 हिजरी में करबला के मैदान में अपने निष्ठावान और त्यागी साथियों के साथ दी थी । यह घटना, इस्लामी इतिहास में महान एवं भविष्य निर्धारण करने वाली घटना थी। इस घटना ने नैतिकता, वीरता तथा त्याग के अनुदाहरणीय दृष्य प्रस्तुत किये हैं।इमाम हुसैन व उनके बेकसूर 72 परिजनों को उस समय के सीरियाई शासक यजीद ने मैदान-ए-करबला में फुरात नदी के किनारे मई की चिलचिलाती धूप में क्रूरतापूर्वक भूखा व प्यासा शहीद कर दिया था । यजीद रूपी उस आतंकवादी शासक ने किसी पर भी कोई दया नहीं की। अगर हजरत मोहम्मद के परिवार के इन सदस्यों के कत्ल तक ही बात रह जाती तो भी कुछ गनीमत था।लेकिन यजीद ने तो करबला में वह कर दिखाया जिसे सुन कर इंसानियत आज भी कांप उठती है ।इस लिए कई इतिहासकारों का मानना है कि करबला मे इस्‍लामी आंतकवाद की पहली इबारत लिखी गयी ।यूं तो मोहर्रम इस्‍लामी कलेण्‍डर का पहला महीना है लेकिन इमाम हुसैन की शहादत की वजह से आज पूरा इस्लामी जगत मोहर्रम माह का स्वागत नववर्ष की खुशियों के रूप में करने के बजाए शोक व दुःख के वातावरण में करता आ रहा है।
कुछ लोग कहतेँ है कि कर्बला सत्‍ता के लिए दो शहज़ादों की एक जंग थी ।लेकिन नही सत्‍ता की जंग तब होती है जब इमाम हुसैन भी पूरी तैयारी से अपनी सेना लेकन आते । लेकिन यहां तो यज़ीद के पास लाखोँ की फौज और तमाम साजो सामान था लेकिन दूसरी तरफ परिजन और मित्रों को मिला कर कुल 72 की संख्‍या थी । जिस विषय ने इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम को तत्कालीन समस्याओं के विरुद्ध आन्दोलन के लिए प्रेरित किया वह धर्म के मूल मानदंडों से तत्कालीन सरकार और समाज का विमुख हो जाना था। यह ऐसी कटु वास्तविक्ता थी जिसने पैग़म्बरे इस्लाम (स) के स्वर्गवास के पश्चात पचास वर्षों के दौरान धीरे-धीरे रूप धारण किया था। पैग़म्बरे इस्लाम की शिक्षाओं को भुला देना, उनके परिजनों को अलग-थलग कर देना, इस्लामी समाज में आध्यात्म का पतन, सत्ताधारियों द्वारा धन एकत्रित करना और धर्म में न पाई जाने वाली बातों को प्रचलित करना आदि वे तत्व थे जिन्होंने समाज को अज्ञानता के काल की ओर वापस लौटने की भूमिका प्रशस्त की थी। ।दरअसल यज़ीद अपने निरंकुश और जनविरोधी शासन पर हुसैन की सहमती की मुहर लगवाना चाहता था।एक विशाल साम्राज्य का बादशा तो वह बन ही चुका था ।लेकिन उसका मकसद था कि हुसैन उसे अपना समर्थन दे दे ताकि राज्य मे फैली अराजकता ,व्यभिचार,जनता पर अत्याचार और बेईमानी को उस समय के मुसलमान भी सही मानलेँ।हुसैन रसूल के नवासे होने के साथ -साथ वक्त के इमाम भी थे ।इस लिए हुसैन की रज़ामंदी से एक तो ये बातेँ इस्लाम के दायरे मे आ जाती दूसरे भविश्य मे इन बातोँ का विरोध करने वाले किसी भी आदमी या समूह को यज़ीद रसूल का हवाला दे कर आसानी से कुचल देता ।यज़ीद ने पहले हुसैन को बैयत यानी सहमती का पैग़ाम भिजवाया ।जब हुसैन ने यज़ीद की अराजकता और निरकुंशता पर सहमति देने से इंकार कर दिया तो उसने आंतकवाद का सहारा लिया।बल पूर्वक हुसैन को मजबूर करना चाहा लेकिन वह झुके नही और अपने साथियोँ के साथ करबला के मैदान मे शहादत का जाम पीने को सहर्ष तैयार हो गये ।
दरअसल करबला में घटी घटना इस्लामी इतिहास की एक ऐसी घटना है जोकि इस्लाम के दोनों पहलुओं को पेश करती है। हज़रत इमाम हुसैन व उनका परिवार उस इस्लामी पक्ष का दर्पण है जिसे वास्तविक इस्लाम कहा जा सकता है। यानी त्याग, बलिदान, उदारवाद, सहनशीलता, समानता, भाईचारा, ज़ुल्म और असत्य के आगे सर न झुकाने व सर्वशक्तिमान ईश्वर के अतिरिक्त संसार में किसी को सर्वशक्तिमान न समझने जैसी शिक्षाओं को पेश करता है।वहीं दूसरी ओर उसी दौर का सीरिया का शासक यज़ीद है जोकि इस्लाम का वह क्रूर व ज़ालिम चेहरा है जो ज़ुल्म,अत्याचार तथा बेगुनाह व मासूम लोगों की हत्याएं करने पर अमादा था ।ये यज़ीदी च़ेहरा आज भी आंतकवाद की शक्‍ल मे दुनियां मे दिखाई पड़ता हे ।करबला मे यज़ीद ने अत्‍याचार की सारी हदें पार कर दी थी । यज़ीद की सेना ने इमाम हुसैन वा उनके सहयोगियों और हज़रत मोहम्मद के 80 वर्षीय मित्र हबीब इब्रे मज़ाहिर से लेकर 6 महीने के दूध पीते बच्चे अली असगर तक को कत्ल करने में कोई हिचकिचाहट महसूस नहीं की थी।दस मोहर्रम को सब की शहादत के बाद यजीद ने इमाम हुसैन के परिवार की महिला सदस्यों को गिरफ्तार करने का हुक्म दिया। उनके बाजुओं पर रस्सियां बांधकर उन्ह बेपर्दा घुमाया गया। उसी जुलूस में आगे-आगे हजरत इमाम हुसैन उनके बेटों, भाई अब्बास व अन्य शहीदों के कटे हुए सरों को भाले में बुलंद कर ले जाया गया । हजरत हुसैन की 4 वर्ष की बेटी सकीना को सीरिया के कैदखाने में कैद कर दिया गया जहां उसकी मृत्यु हो गई। आश्चर्य की बात तो यह है कि एक ओर तो सीरिया के बाजारों में हजरत हुसैन व उनके परिजनों की शहादत को लेकर कोहराम मचा था तो दूसरी ओर यजीद अपने दरबार में ठीक उसी समय शराब व ऐश परस्ती से भरपूर जश्न मना रहा था। इतिहास इस बात का साक्षी है कि किसी भी धर्म या संप्रदाय से जुड़ी किसी भी अत्याचार संबंधी घटना में ज़ुल्म व अत्याचार की वह इंतेहा नहीं देखी गई जोकि करबला के मैदान में देखी गई थी। थे। हदीसोँ मे ज़िक्र आया है कि हुसैन ईश्वर को चाहने वाले थे । हुसैन अगर यज़ीद के खिलाफ बद दोआ के लिए हाथ उठा देते तो वह अल्लाह के कहर से फनां हो जाता और उसकी फौज नेस्त नाबूत हो जाती ।लेकिन उन्‍होने अपना सब कुछ खोनें के बाद भी ऐसा करना उचित नही समझा । यही कारण है कि इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का आन्दोलन तमाम भौगोलिक और ऐतिहासिक सीमाओं को लांघता हुआ हर ज़माने के लिए प्रभावी हो गया ।वह ज़ुल्म व सितम में जकड़े सभी इंसानों को आज़ादी का पाठ दे गए। उसका संदेश एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ियों तक स्थानांतरित होता रहता है। इमाम हुसैन अ. नें जिस मूव्मेंट की शुरुवात की वह केवल यह नहीं थी कि घर से निकलो, मैदान में जाओ और शहीद हो जाओ बल्कि इमाम बहुत बड़े मक़सद के लिये निकले थे ।

बहरहाल इस दर्दनाक घटना को 1400 वर्ष से अधिक बीत चुके हैं। हजरत इमाम हुसैन व उनके परिजनों द्वारा दी गई बेशकीमती कुर्बानी के फलस्वरूप आज सही गलत की पहचान हो रही है । लेकिन यह भी एक कडवी सच्‍चाई है कि यजीदियत आज भी आतंकवाद के रूप मे अपना फन उठाए हुए है।ये कहना गलत नहीं होगा कि आज फिर यजीदियत को समाप्त करने के लिए हुसैनियत के परचम को बुलंद करने की जरूरत महसूस की जा रही है। यानी आतंकवाद के आगे न झुकने के संकल्प की जरूरत, इसका मुंहतोड जवाब देने की जरूरत और कदम-कदम पर इसका विरोध करने की जरूरत। हुसैनियत का जज्बा ही इस्लाम पर लगते जा रहे ग्रहण से उसे बचा सकता है । आज भी मुसलमानों को करबला के बारे में सोचनें, बात करने, लिखने और उसके रास्ते पर चलनें की ज़रूरत है। मेरी नज़र में आज की बीमार दुनिया का इलाज केवल यह है कि वह इमाम हुसैन अ. के बताये हुए सिद्धांतों को समझें, उनके बताए हुए रास्ते पर चलें। अगर हम इतना काम कर लें कि इस घटना को सही तरह से दुनिया के सामने बयान करें और उसे अपनी ज़िन्दगी, अपने इन्क़ेलाब, अपने समाज और अपने सिस्टम में अमल कर के दिखाएं तो इस तरह हम देश और समाज के लिये बहुत बड़ी ख़िदमत कर सकते हैं।
** शाहिद नकवी **

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