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भोपाल गैस त्रास्‍दी के दर्द भरे तीस साल

Shahid Naqvi
Shahid Naqvi
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साल 1984 के आखिरी तीन महीने हिंदुस्‍तान के इतिहास मे तीन बड़ी
त्रास्‍दियों के लिए जाने जाते है ।ऐसी त्रास्‍दियां जिनके दिये ज़ख्‍म
आज तीस साल बाद भी हरे हैं और इनके दर्द की कराह भी सुनने वालों को आज भी
सुनायी पड़ रही है ।इन त्रास्‍दियों के बाद उठे कई सवालों का जवाब भी आज
तक नही मिल सका है । अक्‍टुबर की 31 तारीख यानी महीने के आखिरी दिन
तत्‍कालीन प्रधानमंत्री इ्ंदिरा गांधी की हत्‍या हुयी तो अगले महीने के
पहले सप्‍ताह मे देश भर मे सिख दंगे मे हज़ारों जाने गयी ।फिर आया
दिसम्‍बर का महीना जिस की 2 और 3 तारीख की उस स्‍याह रात मे हज़ारों
भोपालवासियों को एक ज़हरीली गैस के रिसाव ने हमेशा के लिए मौत की नींद
सुला दिया ।साल की ये तीनों त्रास्‍दियां अलग – अलग पराकाष्‍ठाओं का
नतीजा थी ।पहली त्रास्‍दी जहां विश्‍वासघात की पराकाष्‍ठा थी , सिख दंगा
मानवता के खिलाफ तो भोपाल मे जहरीली गैस का रिसाव लापरवाही की पराकाष्‍ठा
थी ।भोपाल गैस त्रास्‍दी की वह काली रात मेरे जैसे तमाम लोगों के ज़ेहन
मे होगी जब उस रात सर्द हवाओं ने भोपालवासियों को जल्‍दी बिस्‍तर मे
दुबकने के लिए मजबूर कर दिया था ।तभी आधी रात को यूनियन कार्बाइट के
कारखाने से रिसने वाली जहरीली गैस ने उनकी सांसों को बेदम बना दिया और
अगले कुछ ही घंटों मे 3800 लोगों को मौत की नींद सुला दिया ।कितने और मरे
, कितने अपगं हुए और भविष्‍य की पीढ़ी पर इसका क्‍या असर पड़ा इस पर तमाम
तरह के कयास लगाये गये , शोध किये गये लेकिन स्‍पष्‍ट है कि मानव इतिहास
की सबसे भीषण औद्दयोगिक त्रास्‍दी के तीन दशक बाद भी बहुत से प्रभावित
लोगों को इंसाफ का इंतज़ार है ।ये ऐसे लोग हैं जिनकी वर्तमान पीढ़ी पर भी
जहरीली गैस का असर दिख रहा है ।इस लिए ऐसे पीड़ित अक्‍सर नेताओं , अफसरों
और मंत्रियों की चौखट पर दस्‍तक देते रहते हैं लेकिन ज्‍़यादातर मौकों पर
उनकी आवाज़ अनसुनी कर दी जाती है । पूरे तीस साल मे भी न्‍याय ना मिल
पाना क्‍या ये साबित नही करता कि हमारे देश मे आज़ादी के साढ़े छह दशक
बाद भी तमाम बदलाव और तरक्‍की के बाद भी कमज़ोरों को इंसाफ मिलना कितना
मुश्‍किल है ।
झीलों का शहर भोपाल अपनी खूबसूरती , ज़री की
शानदार कला और महिला सशक्‍तीकरण के लिए जाना जाता है ।लेकिन 2 और 3
दिसम्‍बर 1984 की रात ने बे्गमों और नवाबों के इस शहर को त्रास्‍दी का
असहनीय दर्द भी दे दिया ।आज इस दर्दनाक हादसे को पूरे तीन दशक बीत गये ,
लेकिन यहां के लोग उसी गैस रिसाव के कारण आज भी शारीरिक रूप से पीड़ित
हैं और बड़ी तादात मे मानसिक रोगी बन गये हैं ।उस देश मे जिसकी आबादी का
बड़ा हिस्‍सा युवा हो और जिसे अपनी विशालता पर नाज़ है , उस देश मे किसी
हादसे का सही इंसाफ तीस साल मे भी ना मिल पाना दुखद है । भोपाल गैस
प्रभावितों पर बेगंलौर की एक संस्‍था एसोसिएशन फार मेंटली चैलेज्‍ड की
सर्वे रपट के मुताबिक 30 फीसदी गैस प्रभावित लोग मानसिक रोगी बन चुके हैं
।पड़ताल के मुताबिक सन 2011 से 2013 तक भोपाल के गैस पीड़ितों पर किये
गये सर्वे मे चौकाने वाले तथ्‍य सामने आये ।संस्‍था की रपट के अनुसार 80
प्रतिशत गैस प्रभावित आज भी जिगर , गुर्दा ,कैंसर और आंख के रोगी हैं।
पीड़ितों की शारीरिक समर्थता के हिसाब से सरकारी प्रयास ना होने के कारण
गैस हादसें के शिकार मनोरोगी भी बन रहे हैं । भोपाल गैस काण्ड में
मिथाइलआइसोसाइनाइट (मिक) नामक जहरीली गैस का रिसाव हुआ था। जिसका उपयोग
कीटनाशक बनाने के लिए किया जाता था। मरने वालों के अनुमान पर विभिन्न
स्त्रोतों की अपनी-अपनी राय होने से इसमें एकरूपता नही मिलती है। फिर भी
पहले अधिकारिक तौर पर मरने वालों की संख्या 2,259 थी। मध्यप्रदेश की
तत्कालीन सरकार ने 3,787 की गैस से मरने वालों के रुप में पुष्टि की थी।
दूसरे अनुमान बताते हैं कि 8000 लोगों की मौत तो दो सप्ताहों के अंदर हो
गई थी और लगभग इपने ही लोग तो रिसी हुई गैस से फैली संबंधित बीमारियों से
मारे गये थे।सन 2006 में सरकार द्वारा दाखिल एक शपथ पत्र में माना गया था
कि रिसाव से करीब 558,125सीधे तौर पर प्रभावित हुए जिसमे २,००,००० लोग १५
वर्ष की आयु से कम थे और ३,००० गर्भवती महिलाये थी ।जबकि आंशिक तौर पर
प्रभावित होने की संख्या लगभग 38,478 थी। 3900 तो बुरी तरह प्रभावित हुए
एवं पूरी तरह अपंगता के शिकार हो गये।ये आकंड़े आज भी अंतिम कतई नही कहे
जा सकते हैं और हर स्त्रोत अपना अलग – अलग आकंड़ा पेश करता है।इतनी बड़ी
त्रास्‍दी को आंकड़ों के फेर मे उलझाना उचीत भी नही लगता ।
कहा जाता है कि उस समय देश के आला हुक्‍मरानों और
सरकार ने इस हादसे के पीड़ितों के मुआवज़े के लिए अमेरीकी सरकार और
जिम्‍मेदार कम्‍पनी पर ठीक से दबाव नही बनाया जिसके चलते मुआवजा कम मिला
।ये मुआवज़ा प्रभावितों की स़ख्‍या के हिसाब से कितना कम मिला इसको एक
उदाहरण से समझा जा सकता है ।कुछ साल पहले अमरीका मे गल्‍फ आफ मैक्‍सिको
मे तेल रिसाव हुआ जिसमे 13 अमरीकी नागरिकों की मौत हो गयी ।अमरीकी
प्रशासन ने ब्रिटिश पेट्रोलियम को बुला कर 90 हज़ार करोड़ का मुआवज़ा ये
कह कर लिया कि पीड़ितों को देने के साथ ही ,तेल रिसाव से उसके यहां खराब
हुए पर्यावरण को भी इस रकम से सुधारा जायेगा ।दूसरी तरफ भारत ने उसी
अमरीका की कम्‍पनी से पौने 6 लाख लोगो के प्रभावित होने पर महज़ 710
करोड़ रूपये ही लेकर छोड़ दिया ।उनके यहां तेल छलकने पर इतनी बड़ी रकम ली
जाती है और हमारे यहां तीस साल बाद तक उसी त्रास्‍दी का दशं झेल रहे
लोगों को खाली हाथ रहना पड़ता है । इस विभीषिका के कई सवाल उभर कर आये
लेकिन समय के साथ-साथ ये सवाल भी काल के गर्त में समा गए हैं। मसलन क्यों
और किस आधार पर इतनी घनी आबादी के बीच संयंत्र लगाने की अनुमति दी गई।
पुख्ता सुरक्षा व्यवस्था के इंतजाम क्यों नहीं थे ,आदि बहुत से प्रश्नों
के साथ यह भी अनुतरित प्रश्न आज भी हैं कि गैस त्रासदी की जांच के लिए
बिठाए गए न्यायिक आयोग को गैस सयंत्र की स्थापना की अनुमति सम्बन्धी जांच
का अधिकार क्यों नहीं सौंपा गया? सयंत्र के अध्यक्ष वारेन एंडरसन एवं
कंपनी के 7 अन्य अधिकारियों के खिलाफ सबसे पहले आईपीसी की किन धाराओं में
मुकदमें दर्ज हुए, उनमें से 120 व अन्य धाराएँ बाद में कैसे हट गई ।
एंडरसन को 7 दिसम्बर को गिरफ्तार कर लिया गया लेकिन इतने बड़े हादसे का
आरोपी होने पर जमानत पर कैसे रिहा हो गया । रिहा होने के बाद कुछ लोगों
के सहयोग से वह अमेरिका भाग गया और कभी भारत नहीं लौटा ।एंडरसन कैसे भागा
और किन व्यक्तियों ने उसका सहयोग किया, इसकी जांच के लिये वर्ष 2010 में
प्रदेश सरकार ने सेवानिवृत्त जस्टिस कोचर की अध्यक्षता में कमेटी का गठन
किया गया था। चार वर्ष गुजर जाने के बावजूद भी कमेटी ने कोई रिपोर्ट
सार्वजनिक नहीं की है। हाज़ारों लोगों की मौत का ज़िम्‍मेदार वारेन
एंडरसन की मौत 29 सितंबर 2014 को हो गयी है ।गैस पीड़ितों का आरोप है कि
राजनीतिक व अधिकारियों की मिली भगत के कारण रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं की जा
सकी ।

कहा जाता है कि जापान के हरीशिमा नागासाकी में परमाणु विस्फोट का असर आज
भी आज तक है। लेकिन वहां की सरकारें अपने लोगों के साथ खड़ी रहती हैं इस
लिए लोगों को इस सदमें से निकालने मे भरपूर मदद मिलती रहती है । भोपाल
गैस पीड़ित संघर्ष सहयोग समिति और भोपाल ग्रुप फॉर इन्फार्मेशन एंड एक्शन
जैसे कई सामाजिक संगठनों का मानना है कि “गैस पीड़ितों की कई पीढ़ियों को
गैस के दुष्प्रभाव झेलने पड़ेंगे, मगर सरकारों की बदनीयत के चलते कुछ
हजार का ही मुआवजा मिला है। सरकारों की नीयत संदिग्ध रही है और उसने
पीड़ितों के हक की लड़ाई नहीं लड़ी। इसीलिए इस तरह के कई संगठन साथ
मिलकर संघर्षरत है। दिल्ली में निर्जला आंदोलन जैसे कई आंदोलन भी किये
गये । भोपाल की यह विभीषिका जहाँ विश्व की भीषण दुर्घटनाओं में एक है,
जिसमें हजारों लोग मारे गए और आज भी कई हजार तकलीफ और दर्द से संत्रस्त
होकर उचित न्याय और सहायता की आस लगाये बैठे हैं । क्या यह खेदजनक और
दुखप्रद नहीं कि सत्ता की गलियारों में बैठे लोग अपनी सिर्फ थोथी शेखी
बघारकर अपने प्राथमिक कर्तव्य से विमुख होकर वोट की राजनीति में ही लगे
रहते हैं ।
** शाहिद नकवी *

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