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हिंदुस्तान के लोगों और सरकार ने पेशावर हादसे के बाद रहमदिली दिखायी और
संवेदनशील पड़ोसी होने का धर्म निभाया ,लेकिन बदले मे आतंकी सरगना
हाफिज़ सईद की तरफ से धमकी भरा का पैगाम मिला ।इससे भी बढ़ कर निराशाजनक
बात तो ये हे कि पाकिस्तान की ओरे ना तो इस बयान की निन्दा की गयी और
ना ही नवाज़ सरकार ने एक करोड़ डालर के ईनामी आंतकवादी पर नकेल कसने का
इरादा जाहिर किया ।इसे भी महज इत्तेफाक नही माना जा सकता कि इतिहास की
सबसे खतरनाक आतंकवादी घटना से दो-चार होने के कुछ घण्टों के बाद उसी
पाकिस्तान मे मुम्बई के 26/11 के हमलें मे गुनाहगार लखवी को ज़मानत मिल
जाती हे ।हांलाकि बाद मे भारत के दबाव और तमाम आलोचनाओं के चलते उसे तीन
महीने के लिए ही सही , फिर से गिरफ्तार कर लिया गया ।इसके अलावा जेल मे
बंद कुछ आतंकियों को फांसी देने का फैसला भी किया गया ।आतंकी अकील और
अरशद महमूद को फांसी पर लटकाया भी जा चुका है ।जबकि पांच दर्जन से अधिक
अन्य आतंकियों को फांसी दी जानी है ।लेकिन इसमे से ज़्यादातर का गुनाह
पाक के हुक्मरानों और सैन्य अधिकारियों से सम्बंधित बताया जाता है ।
पीठ मे छूरा भोकने की पिछली चालबाजियों को अगर नजर अंदाज कर दिया जाये तो
भी इन ताजी घटनाओं से पाकिस्तान की फितरत और दोहरे रवैये को समझा जा
सकता है ।इससे संदेह पैदा होता हे कि पेशावर हादसें मे बेगुनाह मासूमों
की क्षत विक्षत लाशें ,खून से सने बस्तें ,मां बाप की चीत्कार और ना
रूकने वाली सम्बंधियों की सिसकियां से पाकिस्तान आतंकवाद के मामलें मे
कुछ सबक सीखेगा और उस दर्द का एहसास करेगा जो आतंकवाद के शिकार होने पर
प्रभावितों को होता है ।वहां के धार्मिक प्रतिष्ठानों , सत्ता और
प्रशासन मे बैठे निहित स्वार्थो का दिल ये हादसा पिघला सकेगा इस पर भी
प्रश्न चिन्ह लगा है ।
दुनिया का आठवां सबसे खतरनाक देश पाकिस्तान अब
अपनी ही लगाई आग की लपटों मे झुलस रहा है । भारत को मात देने के लिए जनरल
जिया उल हक ने जिस कट्टरवाद को बढ़ावा दिया वह अब वहां की जनता के खून का
प्यासा हो गया है । वहां की खुफिया एजेंसी आईएसआई ने भारत में धमाकों की
जो साजिश रचनी शुरू की वह आज उसे भारी पड़ती जा रही है । इतिहास गवाह है
कि पाकिस्तान को सन 1947 के बाद से ही भारत की सरहदें खटकने लगी थी और
तभी से सीमा पार से घुसपैठ की कोशिशें भी शुरू हो गयी थी ।कहा जाता है कि
पाकिस्तान ने सोवियत संघ को मात देने के लिए कट्टरपंथियों की एक जमात
बनाई जिसे तालिबान का नाम दिया , शुरू में तो ये आतंकी संगठन पाकिस्तान
के साथ था लेकिन अब पूरी तरह से अलग हो गया है और वहां आतंक का पर्याय बन
गया है । पाकिस्तान के बलूचिस्तान ,पेशावर ,वजीरिस्तान आादि प्रान्त
आंतरिक आतंकवाद के शिकार है और सुरक्षा बल तहरीक ए तालिबान और लश्क ऐ
तोइबा जैसे आतंकी संगठनों से मुकाबलें मे व्यस्त हैं ।खबरों के मुताबिक
इस समय पसकिस्तान मे दो दर्जन के करीब ताकतवर आतंकी संगठन सक्रिय हैं
।यानी बारूद के ढ़ेर पर बैठे होने और बार – बार आतंकी हमलों का शिकार
होने के बाद भी पाकिस्तानी हुक्मरान और राजनीति मे गहरी दिलचस्पी रखने
वाली सेना की रीति नीति मे बदलाव नही आया है । आज भी उस पर आतंकवाद और
आतंकी संगठनों को खाद पानी देने का आरोप लगता है । हर साल हजारों नागरिक
और सेना के जवान गवांने के बाद भी वह आतंकवाद का प्रयोग विदेश नीति के
हथियार के रूप मे करने से बाज़ नही आ रहा है ।आकंड़ों के मुताबिक पिछले
दस सालों में यानी 2001 से 2011 तक 35 हजार पाकिस्तानी आतंकियों के शिकार
होकर जान से हाथ धो बैठे । आज पाकिस्तान में आतंकियों के कई गिरोह हैं जो
हथियारों से लैस हैं और बेगुनाहों की जान लेने में जरा भी नहीं हिकते ,
वे जिहाद के नाम पर खूनखराबा करते हैं और धमाके करते हैं । पाकिस्तान में
साल 2014 मे ही आतंक की घटनाओं की 367 वारदात सामने आईं जिनमें 719
नागरिक और 320 फौजी मारे गए और 1959 लोग जख्मी हुए ।पहली जनवरी से शुरू
हुयी आतंकी घटनाऐं साल के आखिरी महीने तक जारी हैं ।हालांकि
पाकिस्तानी सेना ने भी आपरेशन जर्ब ए अज्ब के जरिये पिछले छह महीनों
मे 1800 से अधिक आतंकी मार गिराये हैं ।लेकिन इससे जेहाद के नाम पर
जुनूनी आतंकी संगठनों के हौसले पस्त नही हुये हैं ।दरअसल पाकिस्तान मे
आतंकवाद और जेहाद मे फर्क ना किये जाने के कारण वहां आतंकवाद की जमीन
काफी उपजाउू है ।जिसके चलते कभी बंदूक के बल पर और कभी मजहब के नाम पर
ब्रेनवाश कर के वह अपना संगठन मज़बूत करते रहतें है ।इन आतंकी संगठनों के
पास लड़ाकों की पूरी फौज है । काल से भी क्रूर आतंकी चेहरे तालिबान के
पास तो लड़ाकों की तादात 60 हज़ार के आसपास बतायी जाती है ।
पाकिस्तान की फितरत से हमें हैरानी नही होनी चाहिए और
न ही हमें पाकिस्तान की नापाक हरकत से अचरज मे पड़ना चाहिए । एक तरफ
पाकिस्तान दोस्ती का हाथ बढ़ाता है, ठीक उसी समय उसके वफादार आतंकी
भारतीय सीमा पर हमला कर देते हैं। जब अटल जी प्रधानमंत्री थे और जब वह
लाहौर बस यात्रा पर गए थे तब भी मुशर्रफ हाथ मिला रहा था और ठीक उसी समय
कारगिल घुसपैठ हो रही थी। काठमांडू में दक्षेस शिखर सम्मेलन के समापन
सत्र में नरेंद्र मोदी और नवाज शरीफ जब गर्मजोशी से हाथ मिला रहे थे ठीक
उसी समय हथियारों से लैस सेना की वर्दी में आए आतंकी सीमा के पास अरनिया
सेक्टर में गोलियां बरसाते और ग्रेनेड फेंकते हुए सेना के दो बंकरों में
घुस गए। इन खाली बंकरों का इस्तेमाल केवल युद्ध के दौरान किया जाता
है।सवाल पैदा होता है क्या हम अभी भी पाकिस्तान की फितरत को समझते नहीं
हैं या जानबूझ कर दोस्ती की पींग बढ़ाने का भ्रम पालते हैं? हमें समझना
होगा कि पाकिस्तान का जन्म भारत विरोध से ही हुआ है। उसकी रगों मे शुरू
से ही भारत विरोधी घुट्टी है। जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला
के इस बयान से असहमत होना कठिन है कि पाकिस्तानी आतंकियों की घुसपैठ को
इत्तेफाक भर नहीं कहा जा सकता। इसलिए और भी नहीं, क्योंकि जब भी भारत और
पाकिस्तान के बीच किसी भी तरह का संवाद या दोस्ती की बात होती है तब
जम्मू-कश्मीर में किसी न किसी वारदात को अंजाम दिया जाता है और कुछ नहीं
तो संघर्षविराम का उल्लंघन होने लगता है।
बहरहाल निंदा –आलोचनाओं के साथ यह समय आत्म
मंथन का भी है ।लेकिन सबसे अधिक आत्ममंथन तो पाकिस्तान को ही करना है
।क्यों कि मजहबी कट्टरता को बढ़ावा देने वाले तत्व पूरी दुनिया में फैल
चुके हैं और इनसे सामान्य तौर-तरीकों से मुकाबला नहीं किया जा सकता।आतंक
के इस रूप से सैन्य स्तर पर तो लडऩा ही होगा, बल्कि विचारधारा के स्तर
पर भी इसके खिलाफ ठोस लड़ाई छेडनी होगी। जब तक कट्टर विचारधारा पराजित
नहीं होगी, तब तक आतंकवाद के खिलाफ युद्ध जीता नहीं जा सकता। यह
विचारधारा ही तो है जिससे नए-नए आतंकी तैयार हो जातें हैं और आतंकवादी
गुट मात खानें के बाद भी कमज़ोर नही पड़ते है। दुर्भाग्य यह है कि
विचारधारा के स्तर पर यह लड़ाई नहीं हो रही है। सबसे जरूरी तो यह है कि
कट्टरता की विचारधारा के खिलाफ अब मज़हब के भीतर से आवाजें उठें।क्यों
कि इस्लाम कभी भी बेगुनाहों का खूंन बहाने और हिंसा की इजाज़त नही देता
है ।
इस तरह की घटनाओं की उदारवादी इस्लामिक
वर्ग द्वारा निंदा तो की जाती है, लेकिन फिर यह समूह बहुत जल्दी ही शांत
होकर बैठ जाता है। आतंकवाद का दायरा जितना फैल चुका है और इसने जिस हद तक
अपनी जड़ें जमा ली हैं, उसे देखते हुए केवल निंदा-आलोचना के स्वरों से
काम चलने वाला नहीं है । लोगों को यह बताया जाए कि कोई भी लड़ाई आतंकवाद
के जरिए नहीं लड़ी जा सकती। आतंकवाद एक विध्वंस है, जो किसी को नहीं
छोड़ेगा। समस्या यह है कि कई सरकारें आतंकवाद को समर्थन दे रही हैं। ऐसी
सरकारों को कोई जवाब नहीं मिल रहा है। पाकिस्तान और पश्चिम एशिया के अनेक
देश न जाने कब से आतंकवाद को समर्थन-संरक्षण देने के कारण कठघरे में खड़े
किए जाते रहे हैं, लेकिन अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उनके खिलाफ कड़ी कार्रवाई
नहीं की जा सकी है। पेशावर की घटना से पूरी दुनियां को चेतने की जरूरत है
क्यो कि कुछ घटनाऐं इतिहास बदल देती हैं।इसके साथ ही धार्मिक कट्टरता को
पूरी तरह नकारना होगा और सभी को यह अच्छी तरह समझना होगा कि आतंकवाद
धर्म का नही मानवता का दुश्मन है और उसके साथ किसी भी सूरत मे समझौता
नही किया जा सकता है ।इंसानियत की हिफाजत के लिए संवेदनाओं को मजहब के
दायरे से परे जा कर विस्तार देना होगा ।कयो कि सिडनी हो या पेशावर उसे
कोई सभ्य समाज न स्वीकार कर सकता है और न नजरअंदाज कर सकता है ।
** शाहिद नकवी **
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