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लोकसभा चुनावों मे खुशनुमा सफलता हासिल करनें के बाद राज्यों मे भी विजय पथ पर भाजपा के विस्तार का सिलसिला जारी है तो वहीं कभी देश पर एकक्षत्र राज्य करने वाली कांग्रेस अभी भी अग्निपथ पर है ।देश के 29 राज्यों मे से इस समय 11 प्रदेशों मे भाजपा सरकार है या फिर वह सहयोगी दलों के साथ सत्ता की साझेदार है । झारखंड और जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव के नतीजे भाजपा के लिए खुशियों का सबब बनकर ज़रूर उभरे है।झारखंड उसने फतह कर लिया और वहां राज्य के वजूद मे आने के डेढ़ दशक बाद पहली बार स्थिर सरकार बनने जा रही है ।वहीं भविष्य मे वह जम्मू कश्मीर मे भी किसी दल के साथ वह सत्ता की भागीदार के रूप मे नजर आ सकती है ।जम्मू कश्मीर मे भाजपा ने अपने इतिहास की सबसे बड़ी कामयाबी हासिल की है । लेकिन ये नतीजे एक साथ कई संदेश भी दे रहे हैं जो देश की भावी राजनीति मे सत्ता और विपक्ष के लिए खासे अहम हैं ।लोकसभा चुनावों मे जिस तरह से कांगेस के साथ – साथ क्षेत्रीय दलों का भी सूपड़ा साफ हो गया था उससे लगने लगा था कि राज्यों से भी गठबंधन की राजनीति का दौर समाप्त हो जायेगा और इलाकाई दलों की ताकत कमजोर पड़ जायेगी ।लेकिन दोनों राज्यों के चुनाव परिणाम इन कयासों से इतर हैं और विकास वा संघ के एजेन्डे के दूंदू मे फसें भाजपा खेमे के लिए भी पड़ताल करने वाले हैं । इन चुनावों में भाजपा ने एक बार फिर प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता और जादू पर दांव लगाया था । चुनाव प्रचार में हर ओर मोदी थे मानों वही बतौर मुख्यमंत्री उम्मीदवार हों ।लेकिन अनूकूल माहौल के बाद भी उनका पूर्ण बहुमत का मिशन इस बार पूरी तरह कामयाब नही हो सका ।राजनीतिक हलके मे इस की तुलना अर्थशास्त्र के उपयोगिता ह्रास नियम की तरह ‘लोकप्रियता ह्रास नियम’ से करना शुरू कर दिया गया है ।ये भी बहस चलपड़ी है कि ये मोदी लहर थी या फिर सत्ता विरोधी लहर थी ।
इस बहस को बल मिलता है कुछ ताजा चुनावी आंकड़ों से , मई में हुए लोकसभा चुनाव में भाजपा को जम्मू कश्मीर की छह में तीन सीटों पर जीत हासिल हुई थी और राज्य के 32 फीसदी मतदाताओं ने उसे वोट दिया था । लेकिन विधानसभा चुनाव में यह वोट शेयर घटकर 23 फीसदी रह गया है ।
राज्य में 9 फीसदी वोटर ऐसे हैं जिन्होंने लोकसभा चुनाव में बीजेपी को वोट दिया लेकिन विधानसभा चुनाव में मुंह फेर लिया ।वहीं राज्य मे सबसे बड़ी पार्टी बन कर उभरी महबूबा मुफ्ती की पीडीपी 22.6 फीसदी वोट हासिल कर उससे थोड़ा ही पीछे हैं ।वहीं झारखंड में भी ऐसा ही कुछ हाल दिखा जहां भाजपा को जम्मू कश्मीर से ज़्यादा उम्मीद थी ।यहां लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी के विकास की गाड़ी पर सवार भाजपा ने 41 फीसदी वोट पाए थे और राज्य की 14 में से 12 लोकसभा सीटें जीती थीं और 57 विधानसभा सीटों पर आगे रही थी । लेकिन ताजा विधानसभा चुनाव में उसे 32 फीसदी ही वोट मिले हैं और सहयोगियों के साथ 42 सीटें ही हासिल कर सकी है ।जबकि उससे काफी कम सीटें पाने वाली जेएमएम 20.7 फीसदी वोट हासिल करने मे कामयाब हो जाती है ।
इस बार कश्मीर घाटी मे भाजपा के प्रदर्शन पर सारे देश की निगाहें लगी थी ।क्यों कि देश का प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेन्द्र मोदी ने मुसलमानों के बीच लगातार अपनी उदार छवि पेश की और इस दौरान सरकार की तरफ से उनके विकास की बात ही की गयी ।मिशन कश्मीर के तहत पहली बार भाजपा ने कराब 40 फीसदी यानी 32 टिकट मुसलमानों को दिये थे ।वैसे तो भाजपा को जम्मू-कश्मीर की पचास सीटों पर कुछ खस हाथ नही लगा और घाटी मे उसका खाता फिर नही खुल सका लेकिन इसके बाद भी पहले के चुनावों के मुकाबले इस बार काफी बेहतर प्रदर्शन किया है ।वहीं जम्मू कश्मीर में बीजेपी को मिले मतों से यह बात भी साफ हो गई है कि लोकप्रियता के बावजूद नरेंद्र मोदी जम्मू और कश्मीर के बीच गहरी खाई को भर पाने में विफल रहे हैं । पार्टी मुस्लिम बहुल घाटी में एक भी सीट पाने में कामयाब नहीं हो पाई है । बीजेपी को सभी 25 सीटें जम्मू क्षेत्र से मिलीं, जहां हिंदू मतदाता बहुसंख्या में है वे हिंदू मतदाताओं को लुभाने में सफल रहे हैं लेकिन घाटी में उनका जादू नहीं चला । भले ही उन्होंने कांग्रेस और अब्दुल्लाह परिवार पर निशाना साधा हो या फिर दीवाली कश्मीरियों के साथ मनाई हो ।भाजपा के लिए यहां राहत भरी बात ये रही कि करीब 42 साल बाद भगवा दल का कोई मुस्लिम उम्मीदवार चुनाव जीत सका है ।भाजपा प्रत्याशी अब्दुल गनी कोहली ने नेकां के हिन्दू उम्मीदवार 6178 वोटों से परास्त किया ।इसके अलवा राजौरी और इंदरवाल सीट से भाजपा के मुस्लिम प्रत्याशी दुसरे स्थान पर रहे ।कश्मीर मे बीजेपी का चेहरा बन कर उभरी हिना भट तीसरे स्थान पर थी ।हिना के साथ हज़रतबल और शोपियां के भाजपा उम्मीदवार कांग्रेस के प्रत्याशियों से अधिक वोट पाने मे कामयाब रहे । इसके पहले सन 1972 मे जनसंघ के टिकट पर शेख अब्दुल रहमान चुनाव जीते थे ।हांलाकि भाजपा नेताओं का मानना है कि जम्मू में पार्टी का उल्लेखनीय प्रदर्शन उसे पीडीपी या एनसी के साथ गठबंधन के ज़रिए सत्ता का दावेदार तो बनाता ही है ।
झारखंड की चौथी विधानसभा के गठन के लिए हुए चुनाव मे पहली बार एक मजबूत सरकार का जनादेश मिला है । भाजपा के आक्रामक चुनाव प्रचार, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की काम करने वाले नेता की छवि और स्पष्ट बहुमत की सरकार देने की अपील का राज्य में असर दिखा लेकिन मतदाताओं ने इसे पूरी तरह नही अपनाया । पिछले 14 सालों में झारखंड अपने साथ अस्तित्व में आये राज्यों छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड से काफी पिछड़ गया है ।वह विकास के पायदान पर अपने पड़ोसी पश्चिम बंगाल, बिहार और ओडिशा से काफी पिछड़ चुका है । संभवत: यह देश का इकलौता राज्य है, जहां की लगभग 45 प्रतिशत आबादी गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करती है । एक औद्योगिक राज्य होने के कारण यहां के शहरों में कुछ चमक -दमक दिख सकती है, लेकिन अगर आप शहर 10 से 15 किमी दूर किसी गांव में जायें तो यहां के आमलोगों की भयंकर गरीबी और पिछड़ेपन का सच समाने आ जायेगा । यहां तक कि यह राज्य अपने बजट की पूरी राशि भी खर्च नहीं कर पाता है । आज भी झारखण्ड मे कई सवाल खड़े हैं । जयपाल सिंह मुंडा से लेकर हेमंत सोरेन तक और झारखंड पार्टी से लेकर झामुमो तक आदिवासी हितों की अब तक जैसी-जितनी बातें की जाती रही हैं, वे अमल में क्यों नहीं आयीं? बाबूलाल मरांडी से अब तक राज्य के जितने मुख्यमंत्री हुए, सभी आदिवासी रहे हैं । भाजपा का राज्य में अधिक शासन रहा है । कांग्रेस, झामुमो, भाजपा, आजसू ही नहीं, निर्दलीय भी सत्ता में रहे, फिर भी झारखंड के सीने में दर्द-तड़प और आंखों में निरंतर बहते आंसुओं का कारण क्या है? क्या इसका एकमात्र कारण अस्थिर सरकार है? क्या सचमुच इस चुनाव के बाद झारखंड की तसवीर बदल जायेगी ? भाजपा की अगली सरकार के सामने इन्हीं सवालों को सुलझाने की चुनौती होगी और राज्य को एक प्रभावी नेतृत्व देना भी एक अहम चुनौती है ।
दरअसल, इन चुनावों ने एक बार फिर यह साफ़ कर दिया कि विधानसभा के चुनाव विधानसभा के चुनाव हैं । इनमें राष्ट्रीय मुद्दों और नेताओं के अलावा राज्य केन्द्रित और स्थानीय मुद्दे, स्थानीय नेता (मुख्यमंत्री का उम्मीदवार) और उम्मीदवार महत्वपूर्ण होते हैं. यहाँ तक कि स्थानीय विधायकों का प्रदर्शन भी टेस्ट पर होता है ।वहीं लोकसभा चुनावों में मिली करारी हार के बाद भी कांग्रेस संभलती नहीं दिख रही है 1 दोनों राज्यों में कांग्रेस चुनाव के पहले साथ सत्ता में थी लेकिन दोनों ही जगह उसने अलग होकर चुनाव लड़ने का फैसला किया । जहां झारखंड में कांग्रेस ने राष्ट्रीय जनता दल और जनता दल के साथ करार किया तो वहीं जम्मू-कश्मीर में अकेले चुनाव लड़ा ।इन नतीजों से यह भी साफ़ है कि कांग्रेस की राजनीतिक ढलान जारी है । हालाँकि ओपिनियन और एक्जिट पोल के भविष्यवाणियों के विपरीत वह जम्मू-कश्मीर में पूरी तरह से साफ़ नहीं हुई लेकिन झारखण्ड में वह काफी सिकुड़ गई है । यहाँ उसे सिर्फ 6 सीटें मिली हैं और 10.4 फीसदी वोट के साथ तीसरे नंबर की पार्टी बन गई है. इस स्थान पर भी उसे बाबूलाल मरांडी की झारखण्ड विकास मोर्चा के साथ प्रतियोगिता करना पड़ रही है क्योंकि मरांडी की पार्टी सीटों के मामले में कांग्रेस से आगे और वोट प्रतिशत में सिर्फ 0.4 फीसदी पीछे है ।बहरहाल अब दायित्व भाजपा पर है कि वह इस जनादेश का सम्मान करते हुए झारखण्ड में भ्रष्टाचार और कुशासन से मुक्त एक समावेशी और जनोन्मुखी सरकार देने का वायदा पूरा करे । खासकर उसे जम्मू-कश्मीर में ज्यादा राजनीतिक परिपक्वता और संवेदनशीलता का परिचय देना होगा क्योंकि चुनावों के दौरान जम्मू और कश्मीर घाटी के बीच की खाई और चौड़ी हुई है, उसे भरना जरूरी है । अन्यथा राज्य में चुनावों के जरिए बने नए राजनीतिक माहौल का इस पा विपरीत असर पड़ सकता है । बीजेपी अगर नतीजों को गंभीरता से ले तो उसे यह भी तय करना होगा कि उसका असली एजेंडा क्या है, विकास या धर्म के नाम पर राजनीति ।
** शाहिद नकवी **
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