Menu
blogid : 17405 postid : 828118

कब रूकेगा जंगल मे खूनी खेल

Shahid Naqvi
Shahid Naqvi
  • 135 Posts
  • 203 Comments

21 वीं सदी अपने 15 वें बसंत मे प्रवेश कर चुकी हे ।इस दौरान पिछली उपलब्‍ध्‍ियों के साथ स्‍वच्‍छ भारत से लेकर मेकइन इंडिया तक के कई सूत्र हमें खुश कर सकतें हैं लेकिन दशकों पुरानी कई समस्‍याऐं आज भी हमारे सामने ज्‍यों कि त्‍यों खड़ी है ।सीमा पार से फितरती पाकिस्‍तान की नापाक हरकतें जारी हैं वह हमारी उदारता का बदला नागरिक ठिकानों पर गोले बरसा कर दे रहा हे ।कभी 26/11 को दोहराने की नाकाम कोशिश होती है तो कभी कंधार दोहराने की साजिश होती है ।तो वहीं देश के भीतर आतंकवाद , नक्सलवाद और बोडो उग्रवाद का प्रेत हमें सताने के लिए फिर खड़ा है ।कोई सप्‍ताह ऐसा नही बीतता जब मानवता के इन दुश्‍मनों का बर्बर और खौफनाक चेहरा ना दिखता हो ।बोडो उग्रवाद और नक्‍सलवाद आज आतंकवाद से ज्‍़यादा खतरनाक हो गया है जिसके चलते देश के भीतर देश के दुश्‍मनों से आम नागरिकों की हिफाजत के लिए अब भी बोडो और नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में केंद्रीय सुरक्षा बलों के एक लाख से अधिक जवान तैनात हैं।वहीं एक भारतीय रिज़र्व नागा बटालियन भी इस संघर्ष से जूझने के लिए तैनात है। सवाल यह है कि जहां पाकिस्‍तान, बंगलादेश व नेपाल यहां तक कि चीन से लगती देश की सीमाओं पर भारतीय सुरक्षा बलों को अपना सब कुछ दांव पर लगाना पड़ रहा हो वहां लगभग एक लाख जवानों का आंतरिक संघर्ष से जूझते रहना कहां तक मुनासिब है? कट्टरपंथी विचारधारा के फैलाव का तीजा ये का हुआ है कि आज देश में तमाम सुरक्षा बंदोबस्‍त को धता बताते हुए आतंक के इन चेहरों ने करीब 119 जिलों तक पांव पसार लिये हैं । कितने अफ़सोस की बात है कि गत् दो दशकों मे अकेले अब तक नक्सल व माओ संघर्ष में 12 हज़ार 187 लोगों की जानें जा चुकी हैं। जिनमें 9 हज़ार 471 नागरिक मारे गए हैं जबकि 2 हज़ार 712 केंद्रीय सुरक्षा बलों के लोगों ने अपनी जाने गंवाई हैं।जबकि 2009 से जुलाई 2012 के बीच नक्सलियों ने देश के आठ नक्सल प्रभावित राज्यों में 150 से अधिक स्कूली इमारतों को निशाना बनाया, 67 पंचायत भवनों और 14 खान को निशाना बनाया । इस अवधि में 163 रेलवे प्रतिष्ठानों को निशाना बनाया गया जबकि 186 टेलीफोन प्रतिष्ठान भी नक्सलियों का निशाना बने ।बोडों उग्रवादियों के हमलों से जान माल का हुआ नुकसान अलग है ।
केन्‍द्र मे नरेन्‍द्र मोदी की मजबूत सरकार बनने के बाद भी शासन तंत्र को लाल गलियारे और बोडो उग्रवादियों से मिलने वाली चुनौती मे कोई कमी नजर नही आती है ।अपनी समानांतर सरकार चलाने की चाहत रखने वाले ये समाज विरोधी तत्‍व अपने प्रभाव वाले इलाकों मे सरकारी विकास कार्यो मे भी रूकावट डालतें हैं । नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट ऑफ़ बोडोलैंड के संदिग्ध चरमपंथियों ने जहां साल के आखिर मे कोकराझार और सोनितपुर ज़िलों में कई गांवों में हमले कर के 70 से अधिक आदिवासियों को मौत के घाट उतार दिया था । तो वहीं नक्‍सलियों ने नये साल का शुरूआत मे ही अंतागढ़ से लगभग 17 किलोमीटर दूर अतिसंवदेनशील क्षेत्र सरंड़ी मे सड़क निर्माण में लगे रोड रोलर को आग के हवाले कर दहशत फैला दिया। इससे वन विभाग द्वारा कराया जा रहा सड़क निर्माण कार्य रुक गया। इतना ही नहीं, नक्सली वन विभाग के एक कर्मचारी की मोटरसाइकिल भी साथ ले गए। कुछ दिन पूर्व ही नक्सलियों ने बैनर-पोस्टर के माध्यम से सड़क निर्माण का विरोध किया था। इस घटना से क्षेत्र में दहशत है।लगातार हो रही घटनाओं से यही लगता है कि शासन तंत्र की सुरक्षा व्यवस्था इस खतरे से निपटने के लिए पूरी तरह तैयार नहीं है ।राज्यों में पुलिस फोर्स और पुलिस स्टेशनों की भारी कमी है, हथियार नहीं है, सड़के जर्जर स्थिति में हैं । आजादी के बाद से अब तक अंदरूनी इलाकों में केंद्र और राज्य की सरकारें पक्की सड़कें नहीं बनवा सकी हैं। ऐसे में भारी साजो-सामान के साथ बलों को वहां पहुंचने में देर लगती है ।केन्‍द्र सरकार का कहना है कि इसी लिए बोडो उग्रवादियों की साजिश की खूफिया सूचना मिलने के बावजूद संथाल आदिवासियों पर हिंसा रोकने के लिए अर्द्धसैनक बल समय पर सोनितपुर जैसे इलाकों में नहीं पहुंच सके।
बांग्लादेश और भूटान की सीमा से लगे असम में कई वर्षों से जातीय हिंसा एक बड़ी परेशानी बनी हुई है । बोडो उग्रवादी यहां के गैर बोडो लोगों को निशाना बनाते रहे हैं ।असम राज्य की कुल आबादी 3 करोड़ से ज्यादा है जिसमें तकरीबन 10 फीसदी बोडो जाति के हैं ।दरअसल लड़ाई अपने प्रभुत्व और क्षेत्र की है। एनडीएफबी का जो धड़ा सरकार से बात कर रहा है, वह अलग राज्य चाहता है ताकि आदिवासियों और मुस्लिमों से बोडो समुदाय के हितों की रक्षा की जा सके। वहीं, बोडो उग्रवादी अरुणाचल से सटे इलाकों को बोडोलैंड घोषित करना चाहते हैं। उनका दावा है कि अलग हुए बिना बिना बोडो जाति का विकास नहीं हो सकेगा। इनके संबंध उल्फा से हैं जो असम का विभाजन कर अलग संप्रभु राष्ट्र की मांग कर रहा है। एनडीएफबी-एस के पास 500 से अधिक सशस्त्र उग्रवादी हैं। ये भूटान और अरुणाचल प्रदेश से सटी सीमा में सक्रिय हैं। ये उग्रवादी कोकराझार और सोनितपुर जैसे जिलों में हमले करते हैं। हमले 15 फीसदी आबादी वाले आदिवासियों पर ज्यादा होते हैं। 2012 से इन्होंने राज्य में 20 फीसदी आबादी वाले मुस्लिमों पर भी हमले किए है ।वहीं विवाद का एक कारण बांग्लादेश से यहां आकर बसे मुसलमानों को भी माना जाता है ।कहा जाता है कि इनकों यहां बसाने के पीछे कहीं ना कहीं सरकारों के सियासी मकसद भी रहे ।आरोप –प्रत्‍यारोप की सियासी हलचलों से पहले से सरकार विरोधी बोडो आदिवासी ने इसे अपना हक हड़पा जाना माना और उग्र हो गए । फिर अलग राज्य की मांग के साथ शुरू हुआ कत्ल-ए-आम का दौर ।भारत सरकार ने इस विवाद के निपटारे के लिये असम में बोडो क्षेत्रीय परिषद (बीटीसी) की स्थापना की. जो वहां खुद से प्रशासनिक फैसले करती है लेकिन कानून व्यवस्था की जिम्मेदारी राज्य सरकार की है. बोडो उग्रवादी बीटीसी से संतुष्ट नही हैं. इस मसले को और पेचीदा बनाया बोडो उग्रवादियों के खिलाफ खड़े हुए दो संगठनों ने. अलग बोडो राज्य की मांग के खिलाफ हैं गैर-बोडो सुरक्षा मंच और अखिल बोडोलैंड मुस्लिम छात्र संघ. जब इन संगठनों के सदस्य बोडो उग्रवादियों के सामने आते हैं तो भी खूनखराबा होता है ।

नक्सलवाद और बोडो विचार वा चिंतन शून्य हरकत है । यह देश के बहुसंख्यक सर्वहारा जन के अमन-चैन, समृद्धि और सुख विरोधी विचारधारा है । इन समस्‍याओं को लेकर सरकारें जिस तरह राजनैतिक रोटी सेंकती रही हैं वह आम जनता की समझ से बाहर कतई नहीं है । नौकरशाह यानी वास्तविक नीति नियंताओं के बीच जनता के कितने हितैषी हैं, ऐसे चेहरों को भी आज जनता पहचानती है । पर सबसे चिंताजनक तथ्य और विरोधाभास यह है कि अपवादों को छोड़ कर आतंकवादी उन्‍हीं को सबसे ज्‍यादा अपना शिकार बनाते है जिनके हक के लिए वह लड़ने का दावा करते हैं ।उसी तरह बोडो और नक्‍सली हमलों मे भी केवल गरीब, निर्दोष, आदिवासी और कमजोर व्यक्ति ही मारा जा रहा है ।नक्सलवाद के बौद्धिक हिमायती वाक्‍यजाल गढ़ते हैं वे कैसे यह भूलने की मूर्खता कर रहे हैं कि मानव अधिकार उनके भी हैं जो इन के क्रूरतम आक्रोश का शिकार हो रहे हैं । जो बमौत मारे जा रहे हैं क्या उनका कोई मानव अधिकार नहीं है ? निचले स्तर के जो अकारण सिपाही मारे जा रहे हैं उनके अनाथ बच्चों का कोई मानव अधिकार नहीं ? इसे गरीबों के हक की लड़ाई कहना नक्सलवाद और बोडोवाद का सबसे बड़ा झूठ है । अदृश्य किंतु सबसे बड़ा सत्य तो यही है कि वह सत्ता प्राप्ति का गैर प्रजातांत्रिक और तानाशाही का हिंसक संघर्ष है । इतने बड़े लोकतांत्रिक देश में बंदूक की नोक पर सत्ता हासिल करने की बात करना इनकी की मानसिक विक्षिप्तता को दर्शाता है। ये उन्हीं क्षेत्रों में पैर पसारते हैं जहां की भौगोलिक स्थिति उनके माकूल है और वहां की आबादी अशिक्षित है. आज की स्थिति बहुत अविश्वसनीय है। दूरस्थ क्षेत्र की आबादी सरकार को ढूंढ़ती है। उन्हें सरकार तो नहीं मिलती पर बीहड़ों में नक्सली आसानी से जरूर मिल जाते हैं। हिंदुस्तान के हर अंतिम व्यक्ति तक सरकार पहुंचे ताकि इनका का अंत हो ।

शूरू मे इनका उद्देश्य शासन के विरुद्ध जनयुद्ध की परिकल्पना थी। आज इसका अर्थ सिर्फ चंदा उगाही और पुलिसबलों पर हमला करके हथियार लूटना है। ये लोग चाहते हैं कि आदिवासी अनपढ़ ही रहें और तरक्की न करें। ।आखिर आदिवासी ग्रामों को सड़क, शिक्षा और स्वास्थ्य की बुनियादी सुविधा से वंचित करके रखने वाले ये संगठन कौन सा मानव अधिकार का पाठ पढ़ा रहे हैं ।बहरहाल असम के सोनितपुर और कोकराझार जिलों में हुए हमले के बाद केन्द्र सरकार ने सख्त तेवर दिखाये हैं। सेना ने असम पुलिस और सीएसएफ के साथ मिलकर प्रतिबंधित संगठन नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट ऑफ बोडोलैंड (एनडीएफबी) के खिलाफ ‘ऑपरेशन ऑल ऑउट’ शुरू किया है। लेकिन सवाल ये है कि क्या जवाबी कार्रवाई से इनके हौसले पस्त होंगे? क्या सेना के सामने ये लोग हथियार डाल देंगे? क्या कुछ बोडो उग्रवादियों को मौत के घाट उतार देने से इस गंभीर समस्या का हल मुमकिन है? ऐसा लगता तो नहीं. क्योंकि बोडो उग्रवादियों ने भूटान और म्यांमार में अपने कैम्प स्थापित कर लिये हैं ।कहा जाता है कि यहीं से उन्हें एके-47 जैसे आधुनिक हथियार भी मिल रहे हैं । हालांकि सेना ने इन उग्रवादियों के खिलाफ शुरू किए अपने ताजा अभियान में चीन, भूटान और म्यांमार को भी शामिल किया है लेकिन देखना होगा कि यह मिशन कितना कारगर साबित होगा । सरकारें अभी तक देश के व्यापक हितों की उपेक्षा करके इनकों अपनें बिगड़ैल नागरिक बता कर सख्‍ती करनें से बचती रहीं हैं । कई संगठन धार्मिक चश्‍मे से भी इस समस्‍या को देखती रही हैं । जिससे देश विरोधी तत्वों को लगातार बल मिलता रहा है।लेकिन अब केन्‍द्र की मोदी सरकार से अवाम को बड़ी उम्‍मीदें हैं और उन्‍हें लगता है कि ये राजनीतिक बदलाव ‘अच्छी’ सुबह लेकर आएगा और 2015 वादे पूरे किए जाने से तौला जाएगा ।
** शाहिद नकवी **

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh