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इस्लामी कैलेंडर का पहला महीना मोहर्रम शुरु होते ही पूरे विश्व में इमाम हुसैन की शहादत की वह दास्तां दोहाराई जाती है जो आज से साढ़े 14 सौ साल पूर्व इराक के करबला शहर में पेश आई थी। यानी पैगम्बर हज़रत मोहम्मद के नाती हज़रत इमाम हुसैन व उनके परिवार के 72 सदस्यों का तत्कालीन मुस्लिम सीरियाई शासक की सेना के हाथों मैदान-ए-करबला में बेरहमी से कत्ल किये जाने की दास्तां।इसमे कोई शक नही कि दसवीं मोहर्रम को करबला में घटी घटना इस्लामी इतिहास की एक ऐसी घटना है जोकि इस्लाम के दोनों पहलुओं को पेश करती है।एक ओर हज़रत इमाम हुसैन व उनका परिवार वह इस्लामी पक्ष है जिसे वास्तविक इस्लाम कहा जा सकता है। यानी त्याग, बलिदान, उदारवाद, सहनशीलता, समानता, भाईचारा, अन्याय और असत्य के आगे सर न झुकाने व ईश्वर के अतिरिक्त संसार में किसी को सर्वशक्तिमान न समझने जैसी शिक्षाओं को पेश करता है। दूसरी ओर उस दौर का सीरिया का शासक यज़ीद है जोकि इस्लाम का वह क्रूर चेहरा है, जो अपनी सत्ता कायम रखने और गलत नीतियों के लिये ज़ुल्म,अत्याचार तथा बेगुनाह व मासूम लोगों की हत्याएं करना ही धर्म समझता था ।तभी तो मुसलमान पिता की संतान होने के बावजूद क्रूर यज़ीद, इमाम हुसैन के 80 वर्षीय मित्र हबीब इबने मज़ाहिर और 6 महीने के बच्चे अली असगर तक को कत्ल करने का आदेश देने में हिचकिचाया नहीं था।
यज़ीद व्यक्तिगत् तौर पर प्रत्येक इस्लामी शिक्षाओं का उल्लंघन करता था। उसमें शासक बनने के कोई गुण नहीं थे। वह दुष्ट, चरित्रहीन, बदचलन तथा अहंकारी प्रवृति का राक्षसरूपी मानव था। अपने पिता की मृत्यु के बाद वह सीरिया की गद्दी पर बैठा तो उसने हज़रत मोहम्मदके नवासे इमाम हुसैन से बैअत तलब की यानी यज़ीद ने हज़रत मोहम्मदके परिवार से इस्लामी शासक के रूप में मान्यता प्राप्त करने का प्रमाण पत्र हासिल करना चाहा। इमाम हुसैन ने यज़ीद की गैर इस्लामी आदतों के चलते उसको इस्लामी राज्य का राजा स्वीकार करने से इंकार कर दिया।वह हजरत मोहम्मद से मिली शिक्षाओं के आधार पर इस्लाम को उसी रूप मे पेश करना चाहते थे जैसा उन्होने छोड़ा था ।यानी वह चरित्रपूर्ण और उदार इस्लाम के पक्षधर थे लेकिन यजीद सत्ता की ताकत से व्याभिचार और बदकारी करना चाहता था ।इस्लामी इतिहासकारों के मुताबिक यजीद की ओर से बैअत का पहला संदेश आने के बाद इमाम हुसैन ने उसे कई बार समझाने की कोशिश की लेकिन युध्द के लिये पहले से तैयार बैठे यजीद ने शान्ति का हर प्रस्ताव नकार दिया ।कुछ इतिहासकारों ने कहीं-कहीं उल्लेख किया है कि अहिंसा के पुजारी इमाम हुसैन ने हिंसा को रोकने के लिये यज़ीद के समक्ष एक अंतिम प्रस्ताव यह भी रखा था कि वह अपने परिजनों के साथ मदीना छोड़कर हिंदुस्तान चले जाना चाहते हैं।यजीद के इंकार करने के बाद वह मदीना छोड़ कर मक्का के लिये निकले, जहां उनका हज करने का इरादा था लेकिन उन्हें पता चला कि दुश्मन हाजियों के भेष में आकर उनका कत्ल कर सकते हैं। हुसैन ये नहीं चाहते थे कि काबा जैसे पवित्र स्थान पर खून बहे, फिर हुसैन ने हज का इरादा बदल दिया और शहर कूफे की ओर चल दिए। रास्ते में दुश्मनों की फौज उन्हें घेर कर कर्बला ले आई।कहा जाता है कि जब दुश्मनों की फौज ने हुसैन को घेरा था, उस समय दुश्मन की फौज बहुत प्यासी थी, इमाम ने दुश्मन की फौज को पानी पिलवाया। यह देखकर दुश्मन फौज के सरदार ‘हजरत हुर्र’ अपने परिवार के साथ हुसैन से आ मिले। इमाम हुसैन ने कर्बला में जिस जमीन पर अपने तम्बू लगाए, उस जमीन को पहले हुसैन ने खरीदा, फिर उस स्थान पर अपने खेमे लगाए। यजीद अपने सरदारों के द्वारा लगातार इमाम हुसैन पर दबाव बनाता गया कि हुसैन उसकी बात मान लें, जब इमाम हुसैन ने यजीद की शर्तें नहीं मानी, तो दुश्मनों ने अंत में नहर पर फौज का पहरा लगा दिया और हुसैन के खेमों में पानी जाने पर रोक लगा दी गई। तीन दिन गुजर जाने के बाद जब इमाम के परिवार के बच्चे प्यास से तड़पने लगे तो हुसैन ने यजीदी फौज से पानी मांगा, दुश्मन ने पानी देने से इंकार कर दिया, दुश्मनों ने सोचा हुसैन प्यास से टूट जाएंगे और हमारी सारी शर्तें मान लेंगे। जब हुसैन तीन दिन की प्यास के बाद भी यजीद की बात नहीं माने तो दुश्मनों ने हुसैन के खेमों पर हमले शुरू कर दिए। इसके बाद हुसैन ने दुश्मनों से एक रात का समय मांगा और उस पूरी रात इमाम हुसैन और उनके परिवार ने अल्लाह की इबादत की और दुआ मांगते रहे कि मेरा परिवार, मेरे मित्र चाहे शहीद हो जाए, लेकिन अल्लाह का दीन ‘इस्लाम’, जो नाना (मोहम्मद) लेकर आए थे, वह बचा रहे।
इमाम हुसैन की कुर्बानी हमें अत्याचार और आतंक से लड़ने की प्रेरणा देती है। इतिहास गवाह है कि धर्म और अधर्म के बीच हुई जंग में जीत हमेशा धर्म की ही हुई है। चाहे राम हों या अर्जुन व उनके बंधु हों य पैगम्बर के नवासे हजरत इमाम हुसैन , जीत हमेशा धर्म की ही हुई है।यह भी सही है कि धर्म की ओर से लड़ने वालों की संख्या अपने मुकाबले के दुश्मनों से चाहे कितनी कम क्यों ना हो ।इमाम हुसैन कर्बला में जब सत्य के लिए लड़े तब सामने खड़े यजीद के पास 60 हजार के करीब सैनिक थे लेकिन उसके मुकाबले मे इमाम के महज 72 साथी ही थे । 10 अक्टूबर, 680 ई. को कर्बला मे इस्लाम की बुनियाद बचाने में 72 लोग शहीद हो गए, जिनमें दुश्मनों ने छह महीने के बच्चे अली असगर के गले पर तीन नोक वाला तीर मारा, 13 साल के बच्चे हजरत कासिम को जिन्दा रहते घोड़ों की टापों से रौंद डलवाया और सात साल के बच्चे औन-मोहम्मद के सिर पर तलवार से वार कर उसे शहीद कर दिया।इमाम हुसैन की शहादत के बाद दुश्मनों ने इमाम के खेमे भी जला दिए और परिवार की औरतों और बीमार मर्दों व बच्चों को बंधक बना लिया। कर्बला की घटना किसी व्यक्ति, गुट या राष्ट्र के हितों की पूर्ति के लिए नहीं हुई है बल्कि कर्बला की घटना समस्त मानवता के लिए सीख है वह किसी जाति, धर्म या दल से विशेष नहीं है। इसमें जो पाठ हैं जैसे न्याय की मांग, अत्याचार के विरुद्ध आवाज़ व प्रतिरोध, प्रतिष्ठा, अच्छाई का आदेश देना, और बुराई से रोकना समस्त मानवता के लिए पाठ है। अगर कर्बला की एतिहासिक घटना से मिलने वाले पाठों को एक पीढी से दूसरी पीढी तक स्थानांतरित किया जाये तो पूरी मानवता उससे लाभ उठा सकती है। हम करबला की घटनाओं का विश्लेषण करें तो हम पायेंगे कि इमाम हुसैन और उनके साथियों ने कदम-कदम पर अहिंसा की ऐसी मिसाल पेश की है जो सदियों तक इंसान के लिये प्रेरणा का सबब रहेगी । इमाम हुसैन को प्यासे देवता के नाम से आज संपूर्ण भारत में आदर और श्रद्धा प्राप्त है।यही वजह है कि भारत मे मोहर्रम मे मुसलमानो के अलावा दूसरे समुदाय के लोगों की भी बराबर से हिस्सेदारी रहती है ।ग्वालियर मे जहां हिन्दू जोश से ताजिया उठाते हैं तो वहीं कई शहरों मे हिन्दू इमामबाड़ों मे अजादारी का सिलसिला आज भी जारी है ।कई मुस्लिम इतिहासकारों ने दस्तावेजी सबूतों के साथ लिखा है कि इमाम हुसैन ने ना केवल भारत आने की ख्वाहिश जाहिर की थी वरन उनके पुत्र इमाम जैनुलआब्दीन ने सम्भवता गुप्तवंश के शासकों से पत्रव्यवहार भी किया था ।हालांकि कुछ मुस्लिम विद्वान की इस मामले मे भिन्न राय है ।लेकिन एक बात तो तय है कि भारत में जितने औलियाएकराम, सूफी सन्त आए और जितनी मजारें इस देश में हैं, वह किसी इस्लामी मुल्कि से कतई कम नहीं हैं।इसमे मेरा मत है कि यहां के लोग जितने शांतिप्रिय, मेहमान नमाज और अहिंसावादी है उतने अरब देशों के कतई नही हैं । आज भी दरगाहों और मजारों पर मुरादें मांगने तथा उन्हें नमन करने वालों की संख्या गैर मुस्लिमों की ही ज्यादा है।अजमेर और मध्य प्रदेश के जावरा कि हुसैन टेकरी मे इसे कभी भी देखा जा सकता है ।इस साल दशहरा और मोहर्रम साथ चल रहा है तो कई स्थानों मे अहिंसा के पुजारी की याद मनाने पालों ने साझी संस्कृति की मिसाल पेश करते हुये चौकियों के रास्ते वाले अपने जुलूस स्थ्गित कर दियें हैं ।
** शाहिद नकवी **
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