Menu
blogid : 17405 postid : 1111932

ऐसे तो नही दूर होगी दाल की किल्‍लत

Shahid Naqvi
Shahid Naqvi
  • 135 Posts
  • 203 Comments

भारतीय राजनीति में नेताओ को सियासत के लिए मुद्दा चाहिए इन दिनों इस
सियासत का शिकार हो गयी है गरीबो की वह दाल जिसके बारे मे कहा जाता था कि
घर की मुर्गी दाल बराबर। दाल पर जितनी तेजी से सियासत हुयी उतनी तेजी से
कीमते भी बढ़ी हैं ।यूं तो साल 2016 को संयुक्त राष्ट्र संघ ने इंटरनेशन
पल्सेज ईयर घोषित किया है । लेकिन अब तक दाल-रोटी से गुजारा करने वाले
गरीबों के घर में अब दाल नहीं गल पा रही । सरकारों की लाख कोशिशों के
बावजूद दाल की कीमत सामान्‍य होने का नाम नही ले रही है ।फुटकर मे पिछले
एक साल में अरहर दाल की क़ीमत में करीब 150 प्रतिशत से भी ज़्यादा का
इजाफा हुआ है ।भारतीय बाजार मे किसी एक वस्‍तू की कीमतों मे उछाल का शायद
ये एक रिकार्ड है ।आम आदमी के लिये बना दाल रोटी का जुमला भी अब खास हो
गया है ।क्‍योंकि दाल अब गरीबों की थाली से बहुत दूर चली गयी है लेकिन
देश की सियासत इससे चिंतित होने के बजाय अपनी जिम्‍मेदारी के बचाव मे
कुतर्क कर रही है ।इससे उपभोकता तो हलाकान है हि किसानों की जेबें भी
खाली है ।दाल की बढ़ी कीमतों के बाद भी किसान खुश होने के बजाय खाली हाथ
है और बदहाली से तंग आकर आत्‍महत्‍या कर रहा है ।बढ़ी कीमतों का एक
हिस्‍सा भी किसानों तक नही पहुंच रहा है ।कितनी विचित्र परिस्‍थितियां
हैं कि दाल उत्‍पादन करने वाले और दाल खरीदने वाले दोनों खुश नही हैं
।लेकिन दाल का व्‍यापार करने वाले हमेशा की तरह मालामाल हो रहें है ।
सरकार हरकत में तब आयी जब पानी सिर से उपर चढ़ गया ।उसे
वोट की चिंता और जनता के उन सवालों का डर सताने लगा जो डेढ़ साल पहले
मंहगाई कम करने और अच्‍छे दिनों को लाने के वादों के बदले अब किये जाने
लगे हैं ।खाद्दान की आसमान छूती कीमतों और प्‍याज़ के आंसुओं ने मध्‍यम
वर्ग मे निराशा के भाव भर दिये हैं इस लिये वैकल्‍पिक मीडिया के सहारे वह
और कुछ नही अपने पुराने दिन की मांग करने लगा है ।वैसे तो दाल की कीमतें
हर साल बढ़ती हैं लेकिन अच्‍छे दिन मे ये कुछ ज्‍़यादा ही बेलगाम हो गयी
।सवाल पैदा होता है कि आखिर इस मंहगाई का कारण क्‍या हो सकता है?दाल का
ये संकट असली है या नकली ?इस बारे मे तमाम कृषि विषेशज्ञों का मानना दलहन
के किसानों की उपेक्षा और बढ़ती कीमतों की असली वजह की पड़ताल किये बिना
टालू उपायों के चलते ये हालात पैदा हुयें हैं ।दरअसल तीन दशक बाद लगातार
तीन साल तक सूखे की मार ने भारतीय किसानों के दलहन के खेतों को ही उजाड़
दिया है।पिछले दो सालों से तो मौसम किसानो को सीधे ठेंगा दिखा रहा है
।पहले मॉनसून ने देर से आकर धोखा दिया। बुआई का काम देर से शुरू हुआ।
उसके बाद सूखे का लंबा दौर चला, जिसके चलते फसलें सूख गईं। आमतौर पर
दालों का उत्पादन भी मॉनसूनी वर्षा पर निर्भर करता है लेकिन देश के कई
भागों में सर्दी के मौसम में भी बारिश होने से दालों की पैदावार पर असर
पड़ता है । भारत में 87 प्रतिशत क्षेत्र में दालों की खेती वर्षा पर
निर्भर करती है । उत्तर भारत में पाले के प्रकोप से अरहर, चना, मसूर, मटर
जैसे दालों को नुकसान होता है । वहीं देश के तराई भागों में मिट्टी में
काफी अधिक नमी होने से दलहन में रोग लग जाते हैं, जिससे फसल बर्बाद होती
है ।लेकिन इसके बावजूद भारत दुनिया का सबसे बड़े दाल उत्‍पादक देश बना
हुआ है ।

दरअसल दुनिया के 171 देशों में दाल का उत्पादन होता
है । दुनिया भर के 723 लाख हेक्टेयर रकबे में दाल की फसल उगाई जाती है,
जहां करीब 644 लाख टन दाल का उत्पादन होता है । जिसमें भारत अकेले पूरी
दुनिया के करीब 25 प्रतिशत दाल का उत्पादन करता है । भारत में कुल बुआई
क्षेत्र के करीब 33 फीसदी हिस्से पर दाल की फसल उगाई जाती है । हालांकि
प्रति हेक्टेयर के हिसाब से भारत काफी पीछे है यहां प्रति हेक्टेयर करीब
700 किलो दाल का उत्पादन होता है जबकि, फ्रांस में सबसे ज़्यादा प्रति
हेक्टेयर 4,219 किलो दाल का उत्पादन होता है । प्रति हेक्टेयर उत्पादन
में फ्रांस के बाद कनाडा दूसरे नंबर पर आता है । कनाडा में प्रति
हेक्टेयर 1,936 किलो दाल का उत्पादन होता है । जबकि अमेरिका में प्रति
हेक्टेयर 1,882 किलो दाल का उत्पादन होता है । रुस में ये आंकड़ा 1,643
किलो प्रति हेक्टेयर है और चीन में 1,596 किलो प्रति हेक्टेयर। आंकड़ों
से साफ है कि भारत मे प्रति हेक्टेयर दालों की पैदावार विदेशों से कम है
।लेकिन इसके बावजूद एक दशक पहले तक अरहर की पैदावार से देश का किसान
संतुष्‍ट था , दाल के रूप में प्रयोग करने के अलावा किसान अरहर बेच कर
मुनाफा भी कमा रहे थे।वहीं बड़े किसान कैश क्रॉप के रूप में अरहर की खेती
कर उसे बेच कर मुनाफा कमाते थे। लेकिन पिछले कुछ वर्षो से अरहर घाटे की
फसल मानी जाने लगी है ।किसान एक क्‍विंटल अरहर के उत्‍पादन पर पांच हजार
के आसपास खचै करता है ।दूसरे फसल मे ज्‍़यादा जोखिम के कारण किसानों का
रूझान दलहन की खेती के प्रति कम हुआ है ।किसान अब नगदी फसलों पर दांव
लगाना चाहते हैं ।ऐसे मे गन्‍ना , केला , पपीता , टमाटर और दूसरी
सब्‍जियों की फसलें उन्‍हें मुफीद लगती हैं ।इसके अलावा दाल उत्‍पादक कई राज्‍यों के किसान सोयाबीन की खेती मे दिलचस्‍पी लेने लगे हैं।इसकी पैदावार भी अधिक होती है और रकम भी नकदी मे मिलती है।लेकिन जानकारों के मुताबिक इससे भूमि की उपजाउू क्षमता कम होती है। इस हिसाब से कुछ हद तक दाल
की मंहगाई और कमी समझ मे आती है लेकिन संकट इतना भी नही कि दाल की कीमतें
दुगने से ज्‍़यादा हो जाये ।वैसे भारत को हमेशा विदेशों से दाल का आयात
करना पड़ता है ।भारत को सालाना करीब 30 लाख टन दालों का आयात करना पड़ता
है लेकिन इस साल ये आंकड़ा 55 लाख टन तक पहुंच सकता है । भारत कनाडा,
ऑस्ट्रेलिया म्यानामार और अफ्रीकी देशों से दाल का आयात करता है । साल
2012-13 में देश में कुल 40.2 लाख टन दाल का आयात किया गया । जबकि
2013-14 में घरेलू बाजार में 30.4 लाख टन दाल विदेशों से आयात किया गया ।
ये सारे आंकड़े गवाह हैं कि दाल की किल्‍लत
की बड़ी वजह सरकारों की नीतियां और जमाखोर हैं ।एक जानकारी के मुताबिक
किसानों की बहुराज्यीय सहकारी संस्था नेफेड ने दालों की महँगाई का
अन्देशा जताते हुए 8 अप्रैल, 1 मई, 5 और 30 जून 2015 को, चार बार दिल्ली
सरकार को ख़त लिखे। ख़तों में दाल का भंडारण या स्टाक बढ़ाने का सुझाव था
लेकिन केजरीवाल सरकार और केन्‍द्र सरकार ने कुछ नहीं किया।कभी गरीबी को
नजदीक से देखने का दावा करने वाले खाद्य मंत्री राम विलास पासवान भी
गरीबों की दाल को अमीर बनने से नही रोक सके ।वह बिहार चुनाव के चलते दाल
और प्‍याज की कीमतों को लेकर बहुत बेचैन भी नही हैं ।प्रधानमंत्री के पास
भी फ़ुर्सत कहाँ है? उन पर भारत से ज़्यादा दुनियाभर की ज़िम्मेदारियाँ
हैं।सरकार ने दालों की जमाखोरी रोकने तथा कीमतों पर अंकुश लगाने के
इरादे से केंद्र ने आयातकों, निर्यातकों, लाइसेंस प्राप्त खाद्य
प्रसंस्करणकर्ताओं के साथ बिग बाजार जैसे बड़े डिपार्टमेंटल दुकान चलाने
वाले खदुरा विक्रेताओं के लिये भंडार सीमा नियत की है ।साथ मे जमाखोरों
पर नकेल भी कसी गयी जिससे लाखों टन दालें गोदामों से निकली भी हैं ।लेकिन
सवाल उठता है कि जब सरकार को जब पता था की दाल की कीमत बढ़ने वाली है तब
दो माह पहले क्यों नही आयात किया । देश के सर्वश्रेष्ठ प्रशासक कहे जाने
वाले नरेन्द्र मोदी और उनकी सरकार ने समय रहते ये अनुमान क्यों नहीं
लगाया कि इस बार देश में दाल का कितना उत्पादन हुआ है? कितनी माँग है?
कितना आयात करने की नौबत आएगी? और क्यों न आयात को दाम के आसमान छू लेने
से पहले ही कर लिया जाए? क्यों आयात से पहले जमाख़ोरों और काला-बाज़ारियों
को जनता को लूटने की खुली छूट दे दी जाए? साफ़ है कि जैसे ही दाम ने
कुलाँचे भरना शुरू किया अगर वैसे ही आयात का फ़ैसला लिया गया होता तो आज
दाल और प्याज़ हमारी थालियों से नदारद न हुए होते! जानकार मानते हैं कि
आयात बढ़ाने से क़ीमतों पर कुछ खास असर तो नहीं पड़ेगा उल्टा नई फसल आने
पर किसानों को इसका खामियाजा भुगतना होगा। जानकारों के मुताबिक सरकार को
दाल की कीमतों पर लगाम के लिए भविष्‍य को ध्यान में रखकर ठोस उपाय करने
चाहिए ।जानकारों के मुताबिक जमाखोरी मंहगाई का मूल कारण नही ,बल्‍कि
सरकार मे साहस की कमी और इसे गम्‍भीरता से ना लेना है । इंडियन
इंस्टीट्यूट ऑफ पल्सेज रिसर्च कानपुर के मुताबिक सरकार को दलहन का
उत्पादन बढ़ाने के लिए आरएंडडी पर जोर देना चाहिए । साथ ही किसानों को
दाल की बुआई के लिए हर स्तर पर सहायता की जानी चाहिये ।ऐसा योजना बने
जिसका सीधा लाभ किसानों को ही मिले जिससे दलहन की बुआई का रकबा बढ़ाया जा
सके ।किसानों को सस्‍ते लोन,किसान उपयोगी मंडियों का विस्‍तार ,ग्रामीण
सड़कों का सुधार और भण्‍डारण की उचित व्‍यवस्‍था की जाये ।इसके अलावा दाल
की खेती में तकनीक,बार्क के जरिये खोजे गये जल्‍दी पकने वाले बीज का
इस्तेमाल और वैज्ञानिक तरीके से करने को बढ़ावा देने की जरूरत है ।
**शाहिद नकवी **

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh