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दरअसल 18वीं सदी और 21वीं सदी के बीच का फ़ासला इतना है कि अब उस दौर के शासकों और हुक्मरानों की बहादुरी ,देश प्रेम,उदारता और सहष्णुता के किस्से इतिहास के चंद पन्नों में सिमट कर रह गए हैं, या फिर कुछ फिल्मकार इनपर व्यावसायिक फिल्में और सीरियल्स बनाकर उन पात्रों को अपने अपने तरीके और नज़रिये से पुनर्जीवित करने की कोशिश करते हैं।फिर इतिहास पर शोध की बराबर गुंजाईश भी बनी रहती है ।यही गुंजाईश बीते कल को कई बार अपने शोध के आधार पर बदले स्वरूप मे पेश कर देती है । जिन से इनपर विवाद भी उठते हैं और सियासत करने वालों को इन विवाद से कुछ मुद्दे भी मिल जाते हैं। आज न तो पहले वाली रियासतें हैं और न ही वो पात्र और परिस्थितियां। ऐसे में आप टीपू सुल्तान की बात कर लीजिए या फिर अंग्रेजों से लोहा लेने वाले किसी दूसरे शासक की। सबके अपने अपने मायने भी हैं और इनके नाम पर सियासत करने वालों का एक बड़ा वोट बैंक भी।इस साल की शूरूआत मे गणतंत्र दिवस की परेड के बाद से सवा दो सौ साल पहले मैसूर के शससक रहे टीपू सुल्तान को लेकर सियासत दो खेमों मे बटी है ।एक खेमा उन्हें अपने ऐतिहासिक दर्पण मे कट्टर मुस्लिम परस्त बादशाह साबित करने पर तुला है तो दूसरा खेमा इतिहास के आलोक मे दावा कर रहा है कि वह धर्मर्निपेक्ष और सहिष्णु शासक था ।एक अर्से से विवादित मुद्दों पर राजनीति करने की देश की सियासत की आदत पड़ गयी है ।आखिर ऐसी क्या जरूरत है कि दो सौ साल पुराने किसी बादशाह के इतिहास को कुरेदा जाये .जब सहमति की गुंजाईश कम हो तो क्यों ना ऐसे इतिहास को इतिहास के पन्नों मे ही दफ्न रहने दिया जाये ? यहां देश, काल और परिस्थिति के बारे में सोचने का वक्त किसी के पास नहीं होता कि आखिर टीपू ने इतनी लड़ाइयां लड़ीं तो क्यों लड़ीं, आखिर अंग्रेजों ने तमाम रियासतों पर कब्ज़ा करने की जो कोशिशें कीं तो उसे बचाने की जंग बहादुर देशी शासकों ने लड़ीं तो क्यों लड़ीं ।सीधा सा जवाब है कि इन बहादुर शासकों, सुल्तानों ने कोई आज़ादी की जंग नहीं लड़ी, न ही अंग्रेज़ों को पूरी तरह अपने देश से बाहर करने के लिए किसी राष्ट्रीय आंदोलन का हिस्सा बने , इन्होंने केवल अपनी अपनी रियासतें ही बचाईं हैं ।
आज के संदर्भ मे ये कह देना तो आसान है लेकिन इतिहास के अवलोकन से पता चलता है कि इन शासकों ने अपने स्तर पर फिरंगियों से जम कर लोहा लिया था ।अपने दम पर ही टीपू सुल्तान ने तीन बार मैसूर के युध्द मे अंग्रेजों को परास्त किया था ।क्या ये गौरतलब नही है कि आखिर टीपू सुल्तान की तलवार में ऐसा क्या खास है कि उसकी नीलामी 21 करोड़ में होती है।यही नही लंदन के बोनहैम्स नीलामी घर से टीपू सुल्तान के केवल तीस सामानों की कीमत 56 करोड़ रूपए आंकी जाती है ।दरअसल मैसूर रियासत के इस बहादुर सुल्तान की खासियत ही ये थी कि वो जिधर से निकलता था, अंग्रेजों के छक्के छूट जाते थे ।ईस्ट इंडिया कंपनी वाले जब भारत से गए तो जाते जाते भी टीपू सुल्तान की हर वो चीज़ ले गए जो टीपू को बहादुरी की मिसाल बनाते थे। उनकी रत्नों से ज़ड़ी तलवारें, नक्काशीदार तरकश, बंदूकें, पिस्टल, कांसे की तोपें और यहां तक कि हाथ कि राम नाम की अंगूठी को भी ले गये ।बताया गया है कि ये अंगूठी उनके मृत शरीर से तब निकाली गई थी, जब वे 1799 में श्रीरंगापट्टनम की लड़ाई में ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना के हाथों रणभूमि में वीरगति को प्राप्त हुए थे। एक ब्रिटिश सैनिक ड्यूक ऑफ वेर्लिगटन आर्थर बेलेसले ने यह अंगूठी सुल्तान की उंगली से निकाल ली थी। अंगूठी सांप्रदायिक सौहार्द की प्रतीक मानी जाती है, क्योंकि ‘राम’ नाम लिखी अंगूठी को एक मुस्लिम शासक पहनता था।लगभग सवा चार तोला वजनी यह सोने की अंगूठी रैगलन के निजी संग्रहालय में थी। कहा जाता है कि मैसूर के टाइगर टीपू सुल्तान के पास रॉकेट टेक्नोलॉजी थी। अंग्रेजों के साथ लड़ाई में उन्होंने कई बार छोटे-छोटे रॉकेट्स का इस्तेमाल किया था। उस वक्त अंग्रेजों के लिए ये एक हैरानी की बात थी, क्योंकि उन्हें भी टीपू सुल्तान की इस टेक्नोलॉजी की जानकारी नहीं थी। उनके मिसाइल अंग्रेजों के मिसाइल से ज्यादा उन्नत थे, जिनकी मारक क्षमता दो किलोमीटर तक थी ।बाद मे अंग्रेजों ने इससे प्रेरण लेकर राकेट टेक्नोलॉजी को और विकसित किया जिसका यूरोप की लड़ईयों मे उन्होने प्रयोग भी किया ।आजाद भारत के मिसाईल मैन डा अब्दुल कलाम साहब ने भी टीपू को मिसाईल तकनीकी का खोजकर्ता बताया है ।एक जानकारी के मुताबिक ब्रिटेन की नेशनल आर्मी म्यूजियम ने अंग्रेजी हुकूमत से लोहा लेने वाले 20 सबसे बड़े दुश्मनों की लिस्ट बनाई है ।जिसमे केवल दो भारतीय योद्धाओं को ही इसमें जगह दी गई है ।जिसमे एक टीपू सुल्तान का भी नाम शामिल हैं । नेशनल आर्मी म्यूजियम के आलेख के अनुसार टीपू सुल्तान अपनी फौज को यूरोपियन तकनीक के साथ ट्रेनिंग देने में विश्वास रखते थे. टीपू विज्ञान और गणित में गहरी रुचि रखते थे ।यहां ये कहने का तात्पर्य है कि कई महान शासकों ने अपनी रियासतें बचाने के अलावा अपनी बहादुरी से देश का मान भी बढ़ाया है ।जिससे बाद मे कहीं ना कहीं से देश के आजादी आंदोलन और एकीकरण मे सबक भी मिला होगा ।
इतिहासकार प्रो0 विशम्भरनाथ पाण्डेय ने मधुर सन्देश संगम मे उन ऐतिहासिक तथ्यों और वृतान्तों को उजागर किया हैं जिससे टीपू सुल्तान के बारे मे कई अहम जानकारी हासिल होती है ।वह लिखते हैं कि इस सिलसिलें में महात्मा गॉधी की वह टिप्पणी भी काबिलेगौर हैं जो उन्होने अपने अख़बार ‘यंग इंडिया’ मे 23 जनवरी, 1930 र्इ0 अंक में पृष्ठ 31 पर की थी। प्रो0 पाण्डेय के मुताबिक उन्होने लिखा था कि मैसूर के फतह अली (टीपू सुल्तान) को विदेशी इतिहासकारों ने इस प्रकार पेश किया हैं कि मानों वह धर्मान्धता का शिकार था। इन इतिहासकारों ने लिखा हैं कि उसने अपनी हिन्दू प्रजा पर जुल्म ढाए और उन्हें जबरदस्ती मुसलमान बनाया, जबकि वास्तविकता इसके बिल्कुल विपरीत थी। हिन्दू प्रजा के साथ उसके बहुत अच्छे सम्बन्ध थें। प्रो0 पाण्डेय कहते हैं कि यग इण्डिया’ में आगे कहा गया हैं ‘‘ टीपू सुल्तान ने हिन्दू मन्दिरों विशेष रूप से श्री वेकटरमण, श्री निवास और श्री रंगनाथ मन्दिरों को जमीने एवं अन्य वस्तुओं के रूप् में बहुमूल्य उपहार दिए।कुल 156 मंदिरों की सूची है जिन्हे टीपू सुल्तान वार्षिक अनुदान दिया करते थें। कुछ मन्दिर उसके महलों के अहाते मे थे यह उसके खुले जेहऩ, उदारताएवं सहिष्णुता का जीता-जागता प्रमाण हैं। इससे यह वास्तविकता उजागर होती हैं कि टीपू एक उदार शासक था। उसे अपनी इबादत में हिन्दू मन्दिरों की घंटियों की आवाज से कोर्इ परेशानी महसूस नही होती थी। टीपू ने आजादी के लिए लड़ते हुए जान दे दी और दुश्मन के सामने हथियार डालने के प्रस्ताव को सिरे से ठुकरा दिया। जब टीपू की लाश उन अज्ञात फौजियों की लाशों मे पार्इ गर्इ तो देखा गया कि मौत के बाद भी उसके हाथ में तलवार थी । वह तलवार जो आजादी हासिल करने का जरिया थी। लेकिन यहां सवाल ये है कि क्या टीपू सुल्तान को लेकर छिड़ी जंग जायज़ है। कर्नाटक सरकार के टीपू की जयंती मनाने के फैसले को इस कदर सियासी रंग देना क्या किसी खास धारा को आगे बढ़ाने की कोशिश नहीं है ? सरकारें तो ऐसी जयंतियां मनाती ही रहती हैं । उनके मंत्रालयों को भी कुछ न कुछ ऐसे काम करने होते हैं जो कहीं न कहीं खबर बने या जिससे कोई न कोई विवाद उठे।ऐसा लगता है कि खुद को धर्मनिरपेक्ष साबित करने के लिए कर्नाटक की सरकार ने टीपू की जयंती का ऐलान सबकुछ जानते बूझते किया था। उसे पता था कि इसका विरोध होगा और ऐसे माहौल में ये खबर अपना संदेश देने का काम कि वह एक खास वर्ग की हितैशी है।लगता है कि वह अपने मकसद मे कामयाब होती दिख रही है ।क्यों कि टीपू सुल्तान हीरो या विलन, महान या एंटी हिंदू, कर्नाटक से शुरू हुई यह बहस अब पूरे देश की राजनीति को प्रभावित कर रही है। इस को लेकर लगातार विरोध प्रदर्शन भी हो रहें हैं ।उसे ये भी पता है कि मोदी जी इन मामलों पर चुप रहते हैं जिससे तमाम ऐसे संगठनों को अपने को राष्ट्रवादी साबित करने का मौका मिल जाता है जो ऐसे किसी भी मामले में हिंसक होने से भी परहेज नही करते हैं ।
दरअसल कर्नाटक एक ऐसा राज्य है जहां कई राजवंशों ने यहां की संकृति को विकसित करने में अहम भूमिका निभाई । टीपू सुल्तान और उसके बाद बाजीराव पेशवा की हार के बाद अंग्रेज़ों ने कर्नाटक पर कब्ज़ा किया। फिर भी टीपू और पेशवा को लेकर यहां आज भी सियासत कम नहीं होती। तो क्या ये मान लेना चाहिए कि संचार क्रांति और तकनीकी विकास के इस युग में टीपू सुल्तान पर चल रही सियासत को कहीं न कहीं से हवा दी जा रही है? क्या इस विवाद को तूल देने की कोशिश उसी कड़ी का हिस्सा नहीं है जिससे मोदी सरकार की पूरे देश में किरकिरी हो रही है। ऐसी ताकतों को हवा कैसे मिल रही है जो देश के माहौल को बिगाड़ने की कोशिश में लगे हैं या अपना एजेंडा बेहद बचकाने तरीके से लागू करने की कोशिश में जुटे हैं? क्या टीपू सुल्तान की जयंती मनाना सचमुच कर्नाटक की अस्मिता से जुड़ा सवाल है? देश का हाल देखकर, माहौल भांपकर, आहत होकर गिरीश कर्नाड जैसा फिल्मकार क्यों अपने बयान पर माफी मांग लेता है? देश का एक बड़ा तबका आखिर क्यों इस वैचारिक लड़ाई में खुलकर सामने आ गया है? सांस्कृतिक एकता और समरसता की बात करने वाला हमारा देश क्या ऐसी मानसिकता वालों की गिरफ्त में सचमुच आ रहा है? इन बेहद गम्भीर और बड़े सवालों पर सब को मंथन करना चाहिये ।
** शाहिद नकवी **
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