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जब हम देश में विभिन्न स्तर पर चुनावों का संपादन देखते हैं तो सकारात्मक भाव से लगता है कि राजतन्त्र से लोकतंत्र का सफर लगातार मजबूत हो रहा है। लोकतंत्र की सबसे छोटी और महत्वपूर्ण इकाई है पंचायत। यहीं से प्रारम्भ होती है लोकतंत्र की पहली सीढ़ी।अब पंचायती राज प्रणाली भारतीय शासन प्रणाली का एक अपरिहार्य हिस्सा बन गयी है।दरअसल देखा जाये तो पंचायती राज की शुरूआत से भारतीय राजनीति का व्याकरण ही बदलने लगा है। शासन प्रक्रिया धीरे-धीरे सरकारों के एकाधिकार से निकल रही है। सबसे निचले स्तर पर दलितों, महिलाओं और गरीबों के सत्ता में आने से शासन प्रक्रिया में अब बराबरी का स्तर आ गया है।भारतीय लोकतंत्र निश्चय ही हमेशा जय-जयकार का हकदार रहा है । मगर क्या स्थानीय लोकतंत्र के बारे में भी यही कहा जा सकता है?क्यों कि अपेक्षाओं के मुकाबले स्थानीय लोकतंत्र अपने कामकाज की कसौटी पर अब तक खरा नही उतर सका है ।आंकड़ों के मुताबिक भारत की करीब दो तिहाई आबादी कोई 41 हजार गांवों में निवास करती है।देश मे दो लाख 47 हजार पंचायतें हैं और पंचायती राज संस्थाओं में सीधे चुनाव से आने वाले 30 लाख प्रतिनिधि हैं।जानकारों का कहना है कि दुनियां के किसी और देश मे इतने बड़े पैमाने पर जनप्रतिनिधी चुन कर नही आते हैं । राजनैतिक चेतना, सामाजिक न्याय, आर्थिक शैक्षिक सांस्कृतिक विकास, स्वास्थ्य सुरक्षा, पोषण, खेत खलिहान की सुरक्षा, बीज की उपलब्धता, पर्याप्त राशन जैसे मामले इन लाखों पंचायत प्रतिनिधियों हवाले हैं।इन मुद्दों पर मंथन करते हुये साल 1993 का पंचायती राज कानून के 22 साल इस देश में देखते ही देखते गुजर गए है । इन वर्षों में मुक्त बाजार के फैलाव में भारत की ग्राम अवधारणा को ही उखड़ते नहीं देखा गया, बल्कि उस अवधारणा के विकास से जुड़े पहलुओं को भी छिन्न भिन्न होते देखा गया है ।दरअसल पंचायती राज कानून को लेकर जो सपने बुने गये थे उसके आधार पर इसे गांव की तरक्की का आधार, लोकतंत्र की पहली पगडंडी गांव देहात को जिंदा रखने के लिये अहम माना गया था।ग्राम सरकार आज 22 साल की हो चुकी है फिर भी कोई ये मानने को सहज तैयार नही होगा कि हमारे गांव पूरी तरह अधिकार संपन्न, कृषि संपन्न और स्वास्थ्य सेवाओं से संपन्न हो गए हैं ?गांवों मे पीने का साफ पानी मयस्सर है, बिजली उपलब्ध है, सड़कें बन गई हैं, महिलाऐं बीमारियों, कुपोषण और अंधविश्वासों से घिरी नही हैं ।इन बातों को स्वीकार करने मे आज भी हर भारतीय को हिचक होती है ।देश की कुछ ग्राम पंचायतों को बदलाव और तरक्की की मिसाल तो माना जा सकता है लेकिन बड़े पैमाने पर बहुत बदलाव नजर नही आता है ।बल्कि गांव सरकार के नाम पर बीते दो दशकों मे गांवों में एक अजीब किस्म की चुनावी हवा चल पड़ी हैं। जिसमे मे गांव के विकास की चिंताएं या सरोकार नहीं हैं । त्वरित लाभ और दीर्घ स्वार्थों की लालसाएं ही दिखती हैं । धनबल का बेलगाम प्रवाह इन चुनावों में सबसे चिन्ताजनक पहलू के रूप में सामने आया है । सरंपच पद के लिए मतदाताओं के बीच तीखा ध्रुवीकरण देखने को मिलाता है जिससे गांव का माहौल भी खराब होता है । पिछले वर्षों में पंचायती राज संस्थाओं को मिलने वाले अनुदान में वृद्धि हुई है और लाखों की मिलने वाली ग्रांट संरपच बनने की होड़ में केंद्रीय आकर्षण बनी हुई है ।जिससे पंचायती राज का मकसद ही बदल गया और जनतंत्र की ताकत पर बाहुबल वा धनबल हावी हो गया है ।पंचायती राज का रूप बदल कर प्रधान राज ने तो राजनैतिक दबंगई, स्वार्थ और अवसरवादिता के जोर ने ये प्रक्रिया ही उलट दी।गांव के विकास के लिये शुरू की गयी 150 से ज्यादा केंद्र पोषित योजनाऐं कमीशनखोरी के चक्कर मे बेअसर दिखती हैं ।इस के चलते गांव का भूगोल तो बदलता जा रहा है लेकिन गांव सिमटता जा रहा है और असली किसान मजदूर बनता जा रहा है ।
लेकिन तमाम खामियों के बावजूद भी तस्वीर का दूसरा रूख ये है कि जिस तरह पहले मध्य प्रदेश फिर राजस्थान और अब उत्तर प्रदेश मे ग्राम सरकार के चुनावों मे परिपक्यता और जोश दिखा उससे ये कहा जा सकता है कि अपनी कमियों के बावजूद भारत की पंचायती राज प्रणाली को भी शाबासी के दो बोल मिलने चाहिए। भारत की विविधता ,विशालता और कार्य की व्यापकता के चलते लोकतंत्र का विकेन्द्रीकरण एक स्वागत योग्य कदम है। इसने देश में एक मूल क्रांति का सूत्रपात किया है। पहले पंजाब के गावों के विकास की समूचे देश मे मिसाल दी जाती थी , क्यों कि यहां के गांव शेष भारत के गांवों के मुकाबले अपने पैरों पर खड़े होते हैं । लेकिन ग्राम सरकार के वजूद मे आने के बाद से देश के दूसरे हिस्से के गांवों की भी तस्वीर बलने लगी है ।कई पंचायती राज संस्थाओं की कार्य प्रणाली से कुछ उल्लेखनीय सफलताएं मिली है।क्यों कि ऐतिहासिक रूप में वंचित समूहों के प्रतिनिधित्व, भागीदारी और सशक्तिकरण के संबंध में पंचायतों की नई पीढ़ी ने काम कर के दिखाया है। पहले राजस्थान और अब उत्तर प्रदेश के पंचायत चुनावों के नतीजे ये बता रहें हैं कि ऊर्जावान युवा समुदाय नेतृत्वकारी भूमिका में आगे आया है । ।नतीजों की जो तस्वीर सामने आयी है वह कई मायने मे अच्छे संकेत दे रही है । उत्तर प्रदेश की पंचायतों मे अब पढ़े लिखे जनप्रतिनिधियों की भरमार होगी । ग्राम पंचायत चुनाव में भी मतदाताओं ने अनुभव की बजाए शिक्षा को ज्यादा तवज्जो दी है, यहां भी शिक्षित युवाओं का परचम लहराया है. बदलाव की खातिर राजनीति में आने वाले युवाओं की भी उम्दा मिसालें हैं ।दरअसल भारतीय राजनीति का चेहरा जब-जब बदला है, उसके पीछे युवाओं का जज्बा और जुनून देखने लायक रहा है। चाहे वह 1970 के दशक में पटना के गांधी मैदान से उठा जेपी आंदोलन हो जिसने नीतीश कुमार, लालू प्रसाद यादव और रामविलास पासवान जैसे नेताओं को जन्म दिया या फिर दिल्ली के ऐतिहासिक रामलीला मैदान से शुरू हुआ अन्ना आंदोलन । जिसके जरिए दिल्ली की जनता को अरविंद केजरीवाल के रूप में एक अदद नया नेता मिला। दोनों ही आंदोलनों का मुख्य चेहरा भले युवा नहीं था लेकिन यह युवाओं की अपार ताकत और बदलाव की इच्छाशक्ति ही थी जिसने इन आंदोलनों को सफल बनाया ।उत्तर प्रदेश के साथ राजस्थान और मध्यप्रदेश ग्राम सरकार के चुनावी नतीजों पर गौर करने से लगता है कि राजनीति में आने के इच्छुक युवा बड़े पैमाने पर गांव, कस्बे और शहरों की स्थानीय राजनीति से अपने राजनैतिक करियर की शुरुआत कर रहे हैं। इनमें गैर-राजनैतिक घराने वालों की भी अच्छी-खासी तादाद है । ताजा आंकड़ों के मुताबिक नवनिर्वाचित ग्राम प्रधानों में पढ़े-लिखे लोगों की हिस्सेदारी 91.41 फीसदी है। इनमें इंटर तक पढ़े लोगों की तादाद 76.47 फीसदी है जबकि ग्रेजुएट 10.39 फीसदी और पोस्ट ग्रेजुएट 3.61 फीसदी हैं।वहीं गांव सरकार के दर्जनों परूष और महिला प्रतिनिधियों के पास पीएचडी की डिग्री हैं। उम्र के लिहाज से देखें तो उत्तर प्रदेश मे 21 से 35 वर्ष के आयुवर्ग के 35.17% प्रत्याशी विजयी हुए, जबकि 36 से 60 वर्ष की उम्र के आयुवर्ग में 59.38% लोग प्रधान बने हैं।तो वहीं साठ साल से अधिक उम्र के आयुवर्ग के प्रधान महज़ 5.45% बने सकें हैं। बिजनौर के जुझेला गांव के निवासी तरुण शेखावत चार साल से जर्मनी में नौकरी कर रहे थे। लेकिन तरुण ने गांव के लिए म्यूनिख (जर्मनी) में 4500 यूरो प्रति महीने (लगभग 37 लाख रुपए सालाना) की नौकरी छोड़ दी और अब वह गांव के लिये जुट गये हैं ।इसी तरह मलिहाबाद की सिघरवा ग्राम पंचायत के नवर्निवाचित प्रधान रिज़वान ने निजी कम्पनी मे इंजीनियरिंग की लाखों की नौकरी अपने गांव के लिये छोड़ दी ।माल की लतीफपुर पंचायत से एमसीए डिग्री धारक श्वेता सिंह ने भी शहर को अलविदा कह कर गांव की राजनीति मे आना बेहतर समझा ।ललितपुर के मड़वारा ब्लाक मे ग्रामप्रधान चुनी गयी रूचिका एमबीए हैं ।वह सिने स्टार राजा बुंदेला की भतीजी है ।
इसी तरह राजस्थान मे गांव सरकार चला रहे जनप्रतिनिधियों मे 36 फीसदी ग्रेजुएट, 10 प्रतिशत पोस्ट ग्रेजुएट, 5 प्रतिशत प्रोफेशनल और 1 प्रतिशत के करीब के पास डॉक्टरेट की डिग्री है ।जबकि पंचायत समिति सदस्य में तो 18प्रतिशत पोस्ट ग्रेजुएट और 7 प्रतिशत पंचायत प्रतिनिधी प्रोफेशनल उपाधि धारक हैं । आम तौर पर रूढि़वादी माने जाने वाले राजस्थान में भी स्थानीय निकायों और ग्राम पंचायत चुनाव के नतीजे हैरान करने वाले थे ।. यहां के मतदाताओं ने शिक्षित युवाओं के साथ-साथ महिलाओं को भी नेतृत्व का मौका दिया था । दरअसल इस बदलाव की वजह प्रदेश की वसुंधरा राजे सरकार का वह फैसला भी रहा जिसके तहत पंच पद को छोड़कर पंचायती राज चुनाव में अन्य सभी पदों के लिए खड़े होने वाले उम्मीदवारों के लिए सरकार ने न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता की अनिवार्यता लागू कर दी थी।जिससे प्रदेश के ग्रामीण क्षेत्र में नया और युवा नेतृत्व उभरा है और गैर-राजनैतिक पृष्ठभूमि वाले युवाओं को भी इस बार मौका मिला है । लेकिन खास बात यह रही कि जनता को केवल न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता पर खरे उतरने वाले ही नहीं बल्कि उच्च शिक्षित जनप्रतिनिधि भी मिले हैं। इन्हीं में से एक हैं जैसलमेर की जिला प्रमुख चुनी गई अंजना मेघवाल। एमए और बीएड कर चुकीं 32 वर्षीया अंजना ने राजस्थान प्रशासनिक सेवा की प्रमुख परीक्षा भी पास कर ली है।राजस्थान जैसे राज्य मे अंजना जैसों की कहानी मिसाल इसलिए है क्योंकि राजस्थान की आलोचना हमेशा से ही यहां की विधवाओं की स्थिति को लेकर होती रही है। अंजना ने 2011 में एक हादसे में अपने पति को खो दिया था ।उसके बाद भी वह समाज की मुख्यधरा मे बनी रही ।इसके पहले मध्य प्रदेश के मतदाताओं ने भी युवा प्रतिनिधियों को पसंद किया था । प्रदेश के नगर पालिका निगमों में महापौर के कुल 14 पदों में से सिर्फ दो की आयु 56 वर्ष से ऊपर है। नगर पालिका निगम में ही कुल 778 पार्षदों में 65 वर्ष से अधिक आयु का केवल एक पार्षद है। जबकि सर्वाधिक 317 पार्षद 36 से 45 वर्ष आयु वर्ग के ।अब हरियाणा मे भी पंचायत चुनाव होने हैं ,वहां की सरकार भी पचांयत मे शिक्षित प्रतिनिधि चाहती है ।इसके लिये वह अदालत से भी कानूनी लड़ाई जीत गयी है ।इसके पहले गुजरात ने भी पंचायत मे शिक्षित लोगों के चुनाव लड़ने का नियम बनाया है । ये तो होना ही चाहिये कि जिस पर विकास का जिम्मा है वह न्यूनतम दर्जा 5 तो पास होना ही चाहिये । ये सब भविष्य की राजनीति के लिए यह अच्छा संकेत है कि गांव के मतदाताओं की दिलचस्पी भी पढ़े लिखे प्रतिनिधि चुनने मे दिख रही है ।
** शाहिद नकवी **
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