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गणतंत्र की वर्षगांठ आत्ममंथन का अवसर

Shahid Naqvi
Shahid Naqvi
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सत्‍तरवें पड़ाव पर खड़ा है हमारा गणतन्त्र।साढ़े छह दशकों का सफ़र पूरा हो चुका है। हमारी मातृभूमि के लिए आन-बान और शान का दिन है गणतन्त्र-दिवस। ब्रिटिश राज से छुटकारा पाने के 894 दिन बाद सन 1950 में पहले गणतंत्र दिवस मनाने की शुभ घड़ी आई। 21 तोपों की सलामी के बाद भारतीय राष्ट्रीय ध्वज को डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने फहरा कर इसका आग़ाज़ किया। तब से हर साल इस मौक़े पर हम अपने देश और देशवासियों के स्वाभिमान का ये उत्सव मनाते हैं। ऐसी अनेक महत्‍वपूर्ण स्‍मृतियां हैं जो इस दिन के साथ जुड़ी हुई है।इस लिये आज के दिन हर भारतीय के मन में देश भक्ति की लहर और मातृभूमि के प्रति अपार स्‍नेह भर उठता है। अतिथि देवो भव:” की महान भारतीय परंपरा और संस्कृति का अनुसरण करते हुये हम किसी न किसी देश की हस्‍ती को इस मौक़े पर मेहमान बनाते हैं और अपनी सामरिक क्षमता, अपनी ख़ासियतों और अपनी ताक़त को याद करते हैं। इसके साथ ही मनाते हैं अपनी संस्कृति के विविध रंगों में रंगा उत्सव। एक ब्रिटिश उपनिवेश से एक सम्प्रभुतापूर्ण, धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक राष्ट्र के रूप में भारत का निर्माण एक ऐतिहासिक घटना रही।आज दुनिया के सबसे बड़े गणतंत्र को बने 67 साल हो गए। कहते हैं कि कभी यह देश गणों का तंत्र था यानी शासन जनता के हाथों में होता था। इन सालों में काफी कुछ बदला है और देश तरक्‍की के पायदान पर काफी आगे बढ़़ गया है ।दुनियां हमें भविष्‍य की महाशक्‍ति के रूप मे भी देख रही है ।आर्थिक मोर्चे से लेकर राजनीति के अखाड़े तक सैन्‍य मोर्चे से लेकर खेल के मैदान तक विश्‍व पटल पर हमारा दबदबा है ।लेकिन इस दौरान एक बड़ा बदलाव ये हुआ कि ‘गण’ गौण होता जा रहा है और ‘तंत्र’ हावी हो गया है। गणतंत्र के असली मायने गुम हो गए हैं और ‘गणतंत्र’ को ‘गण’ का ‘तंत्र’ बनाने वाला ‘तंत्र’ हावी हो गया है ।देश के शासनकर्ता से लेकर तमाम नेता यही कहते हैं कि सत्‍ता आम जनता के ही हाथों मे है ।फिर भी जनता का कोई वजूद कहीं क्यों नहीं दिख रहा है? जनता के नाम पर जो कुछ हो रहा है,, हुआ है और होने वाला है उसे देखकर कहीं नहीं लगता कि सब कुछ जनता के लिए समर्पित है । जनता की आराधना के लिए है और जनता की प्रतिष्ठा के लिए हो रहा है। आजादी के दीवानों ने जिन उम्मीदों के साथ लड़ाई शुरू की थी और उसे अंजाम तक पहुंचाया था, अब के दौर में सब कुछ भुला दिया गया है। सत्ता का स्वाद बाद के नेताओं को ऐसा भाया कि अब सारा संघर्ष सत्‍ता की राजनीति के बीच उलझ कर रह गया है । लगता है जैसे जनता सिर्फ वादों और नारों का हिस्सा हो कर रह गयी है जहाँ उसके लिए ही जीने और मरने की कसमें जरूर खायी जाती हैं पर भुगतना सब कुछ आखिर मे जनता को ही पड़ता है।
हालाँकि आजादी के बाद की सभी सरकारों ने देश के विकास पर बहुत जोर दिया। लेकिन विकास माडल की अनुपयुक्तता के कारण विकास में जनसामान्य की भागीदारी, सभी वर्गों का विकास और वंचित और पिछड़े तबकों का तरक्‍की बाधित हुयी है । संविधन के हवाले से लंबे अरसे तक विकास पर जोर दिया गया। हालाँकि यह विकास गरीबों, पिछड़ी जातियों और अल्पसंख्यक समुदायों के पक्ष में ही किया गया, ताकि वे विकास की मुख्यधरा में शामिल हो सकें। किन्तु जिस सामाजिक न्याय, समता और समानता की अपेक्षा के साथ विकास प्रक्रिया का क्रियान्वयन हुआ, इसके परिणामस्वरूप वंचितों, शोषितों, पिछड़ों और उपेक्षितों की एक नई जमात पैदा हो गई। आरक्षण और सब्सिडी के माध्यम से वंचितों का विकास संभव नहीं हो सका। इन प्रयासों की असफलता को नक्सल और माओवादी जैसी हिंसक आन्दोलन के परिपेक्ष्य में भी देखा जा सकता है। यह स्थिति तब दिखाई देती है जब भारत में वर्षों से अंतिम व्यक्ति का विकास, अन्त्योदय और सर्वोदय जैसी विकास अवधरणाएं चर्चा में रही हैं। अनेक पंचवर्षीय योजनाओं के क्रियान्वयन के बाद भी आर्थिक-सामाजिक विषमता की खाई को पाटना संभव नहीं हो सका। जवाहर रोजगार योजना, समेकित ग्रामीण विकास कार्यक्रम, ग्रामीण आवास स्कीम, स्वण्र जयंती ग्राम स्वरोजगार योजना, इंदिरा गांध्ी गरीबी उन्मुलन कार्यक्रम, महात्मा गांध्ी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी जैसे अनेक योजनाओं और कार्यक्रमों के बावजूद आज आधुनिक भारत का दो चेहरा दिखाई देता है। एक चेहरा तो चमकदार भारत के उन लोगों का है जिनके हाथ मे योजनाऐं बनाने से लेकर शासनसत्‍ता की बागडोर है , जबकि दूसरा चेहरा ‘वंचित भारत’ का है। भारत में एक वर्ग ने तो आर्थिक उदारीकरण, तकनीकी विकास और नीतिगत परिवर्तनों को भरपूर लाभ उठाया, किन्तु एक बड़ा वर्ग इन अवसरों को एक दर्शक की तरह देखता ही रहा। पीडि़त भारत और चमकदार इंडिया का मेल आज भी एक बड़ी चुनौती है।देश की लगभग आधी आबादी महिलाओं की है लेकिन महिलाओं का एक बड़ा हिस्सा अवसरों की उपलब्ध्ता से वंचित है, हाशिए पर है। महिलाएँ निर्णय प्रक्रिया और भागीदारी में सबसे पीछे है। शारीरिक दुर्बलता, अशिक्षा, अस्वास्थ्य और सामाजिक पूर्वाग्रहों के कारण उनकी दयनीय स्थिति है। महिलाओं की इस स्थिति के रहते भारत के विकास, उत्थान, उन्नति, प्रगति और चमकदार भारत का सपना बेमानी है।
महिलाओं की ही तरह किसान भी वंचित जनसंख्या का प्रतिनिध्त्वि करता है। अन्य वंचित समूहों की ही तरह भारत में किसानों की दशा दयनीय है। कृषि क्षेत्रा में विकास और उन्नति का लाभ कृषकों की बजाए बिचौलियों और उद्योगपतियों को ही मिलता रहा है। देश के अनेक हिस्सों में किसानों की आत्महत्या की खबरें सामान्य हैं। जो किसान देश की जनता का भरण-पोषण करता है, जिसे अन्नदाता के नाम से संबोध्ति किया जाता है वहीं खाद्यान की कमी और कुपोषण का शिकार है ।देश के किसी कोने को किसान आज सुकून से दो वक्‍त की रोटी नसीब नही हो रही है । बीते सालों मे देश मे देश में पुनर्जागरण की आवाज के साथ बड़े आंदोलन किये गये। इन आंदोलन को देश की दशा और दिशा बदलने वाला बताया गया। कितने दुर्भाग्य की बात है कि एक का आंदोलन राजनीतिज्ञों के सहयोग के साथ खत्म हो गया और दूसरे का आंदोलन का नतीजा ये रहा कि देश को एक नया राजनीतिक दल मिला और फिर चुनाव लड़ने वा सरकार बनाने का सिलसिला चल पड़ा ।आखिर मे जनता के हिस्‍से अया वादों ,दावों और आश्‍वासनों के मीठे बोल । आजादी के 6 दशक से कुछ अध्कि समय बीतने के बावजूद अब तक भारत में संसदीय लोकतंत्रा प्रयोगों के दौर से ही गुजर रहा है। राजनीतिक प्रक्रिया में आम जनता की उदासीनता एवं उनकी असहभागिता चिंता का विषय बना हुआ है। देश में अब भी हिंसाजनित राजनीति के शिकार सामन्य वर्ग हो रहे हैं।
देश में जनता के लिए वो सारी चीजें सपने की तरह हैं, जो आजादी के समय देखी और दिखाई गई थीं, जो उम्मीदें गणतंत्र के गठन के दौरान की गई थीं। आज भी देश की पूरी आबादी को दो वक्त का खाना मयस्सर नहीं हो रहा है और भ्रष्टाचार जो पहले सैकड़ों और हजारों में था, उसने करोड़ों और अरबों, खरबों तक का सफर तय कर लिया है। महंगाई चरम पर है।सामप्रदायिक हिंसा में कोई कमी नहीं आई है। देश के तकरीबन हर हिस्से में जात पात, ऊंच नीच के नाम पर अत्याचार हो रहे हैं।कभी मुंबई जलता है तो दिल्ली मे धमाके होतें हैं।उत्‍तर प्रदेश मे किसी अनजाने के बयान पर मालदा मे बवाल होता है ।कलमकार,साहित्‍यकार सहिष्‍णुता और असहिष्‍णुता मे बंट जाते हैं।असम में बोडो उग्रवाद का आतंक है तो छत्तीसगढ़ सहित देश के आधे से ज्यादा राज्य नक्सलवाद की खूनी क्रांति में जल रहे हैं। लिंग भेद हावी है। बेटियों को जलाया जा रहा है। आज के दौर में सब कुछ महंगा है ,पीने का साफ पानी क्रड आयल के दाम के आसपास है ।जनता को उसका जायज़ हक दिलाने के लिये न्यायपालिका को अतिसक्रिय होना पड़ रहा है । लालकिले की प्राचीर से भवनात्‍मक नारों वादों और दिलासाओं का दौर चल रहा है ।बड़े बदलाओ की आस के साथ जन के एतिहासिक समर्थन के बाद भी बीस महीने मे जमीनी हकीकत जस की तस है ।अभी भी युवा भारत मेकइन इंडिया और स्‍टार्टअप के सुनहरे सपने देख रहा है । इसमें कोई दो राय नहीं कि हमारी कई सफलताओं से दुनिया चकित है।मंगल विजय जैसे अभियानों से दुनिया ने हमारा लोहा माना है ।अदनान सामी को नागरिकता दे कर हमने उदार चेहरा दिखाया है तो पड़ोसी के नापाक इरादों को नाकाम करके सैन्‍य क्षमता का भी एहसास कराया है । नई सोचवाले और ईमानदार छवि वाले प्रधानमंत्री ने बदलाव की जो बयार चलायी है वह आने वाले दिनों मे ताजगी का एहसास करायेगी ऐसी उम्‍मीद की जानी चाहिये ।सबका साथ और सबका विकास का नारा जमीनी हकीकत मे बदलेगा।बावजूद इसके यह निश्चिंत होकर बैठने का वक्त नहीं है क्‍यों कि चुनौतियां हमेशा बनी रहती हैं। यह अवसर आत्ममंथन का है। यह विचारने का है कि देश में व्याप्त तमाम तरह की विसंगतियों से किस तरह छुटकारा पाया जा सके? किस तरह उन सपनों को साकार किया जा सके, जिसकी कभी उम्मीद जगाई गई थी। इसलिए इस शुभ अवसर पर देश में ऐसा वातावरण बनाया जाना चाहिए, जिसमें भाईचारा बराबरी व संवेदनशीलता कूट-कूट कर भरी हो ।अब वक्‍त आगया है कि गण को भी देश हित में सोचना होगा । दरअसल15 अगस्त और 26 जनवरी जैसे राष्ट्रीय दिवस हमें यही याद दिलाने के लिए तो आते हैं।
** शाहिद नकवी **

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