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जेएनयू की साख पर बट्टा ना लगायें

Shahid Naqvi
Shahid Naqvi
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राष्ट्रीय मूल्यांकन एवं प्रत्यायन परिषद के मुताबिक देश का सबसे प्रतिष्ठित विश्वपविद्यालय ,देश मे जनवादी आंदोलनों का वैचारिक गढ़ ,कई किलोमीटर तक फैले दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्विविद्यालय परिसर मे कोई किसी भी पृष्ठ भूमि से आये लेकिन यहां उसे खुल कर जीना सिखा दिया जाता है ।मानविकी से ले कर समाज विज्ञान और अंतरराष्ट्री यअध्ययन तक मे यहां बड़ी आला तालीम दी जाती है ।इसी लिये यहां शिक्षा हासिल करना हर छात्र का सपना होता है । लेकिन पिछले कुछ महीनों से गर्व करने लायक शिक्षा का ये मंदिर कुछ अलग कारणों से सुर्खियों मे है । कभी यहां अश्लीेलता और यौन उत्पीड़न की शिकायत पर हंगामा बरपा होता है गुरू और शिष्य  का रिश्ता कलंकित होता है तो कभी दलित और महिला उत्पीड़न की खबरों से हलचल मचती है ।एक सरकारी आंकड़े के मुताबिक साल 2013-14 में जेएनयू में यौन उत्पीड़न के एक दर्जन से अधिक मामले सामने आए थे।लेकिन ताजा मामला अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर कुछ ज़्यादा ही गम्भीर है और संस्थान के कुछ छात्रों पर राष्ट्रविरोधी गतिविधियों मे शामिल होने का आरोप लगरहा है ।देश के अपराधी संसद पर हमले के दोषी आतंकी अफजल गुरु की फांसी की बरसी विश्वविद्यालय परिसर मे मनाया जाना और भारत विरोधी नारे लगना वाकई चिंतनीय है।इसी मामले मे विश्वविद्यालय छात्र संघ के अध्यक्ष को देशद्रोह और आपराधिक षड्यंत्र के आरोप में दिल्ली पुलिस ने गिरफ्तार भी किया है । इसके अलावा कुछ और छात्रों को भी पुलिस तलाश रही है।छात्र संघ अध्‍यक्ष की गिफ्तारी के बाद से तो देश की राजनीति को ही इस मुद्दे ने गर्मा दिया है।विपक्षी दलों के तेवर से तो यही लगता है कि संसद का बजट सत्र भी इससे बेअसर नही रहेगा । दरअसल जेएनयू मे वैचारिक टकराहट और विवाद का ये पहला मामला नही है ।पिछले साल छात्र संघ चुनाव के नतीजों के बाद से ही जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय मे वैचारिक टकराहट तेज हो गयी हैं।कभी महिषासुर दिवस को मनाने और अंतरराष्ट्रीय वेदांत सम्मेलन में योग गुरु बाबा रामदेव के विरोध के बाद यहां के छात्रों को राजनीतिक हलके मे विचार धारा के आधार पर बांटा जाने लगा ।आधुनिक सोच,खुले विचारों और शिक्षा की बयार के बीच जेएनयू वह कैंपस है, जहां पर 1975 में आपातकाल का पुरजोर विरोध किया गया था। यहां के छात्रों ने 1984 में सिख विरोधी दंगों का विरोध किया तो बाबरी ध्वंस और गुजरात दंगे का भी यहां विरोध हुआ।
मनमोहन सिंह और राहुल गांधी के अलावा प्रणब मुखर्जी भी जब जेएनयू आए तो उन्हें तीखे सवालों का सामना करना पड़ा।हमेशा नवउदारवादी नीतियों का सबसे मुखर विरोध जेएनयू कैंपस में ही होता है। मुजफ्फरनगर दंगों का भी जेएनयू के छात्रों ने उसी तरह विरोध किया जैसे वह इसी तरह के दूसरे मामलों मे करते आयें हैं।ये वही कैम्पस है जहां पूर्व प्रधानमंत्री स्व.इंदिरा गांधी से लेकर पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और राहुल गांधी तक को काले झंडे दिखाए गए। यहां आमतौर पर प्रति वर्ष 300 राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन होते हैं।यह बुद्धिजीवियों का भी आश्रय है और इसने राष्ट्र निर्माण में काफी योगदान दिया है।यहां से निकल कर कई नामचीन हस्तियों ने राजनीति से लेकर हर क्षेत्र मे देश की सेवा की है । छात्र गुणवत्तापूर्ण पुस्तकें लिखते और संपादित करते हैं जो यहां की अकादमिक सक्रियता को दर्शाता है । इस लिये मार्क्स, एंगेल्स, गांधी,लेलिन ,सुकरात और ऐसे तमाम महान दारर्शनिकों को पढ़ने समझने वाले यहां के तमाम युवाओं को सीधे कठधरे मे नही खड़ा किया जा सकता है।वैसे जेएनयू छात्र संघ ने इस कार्यक्रम पर विवाद से अपने को अलग करने का दावा भी किया है।जेएनयू में भारत विरोधी नारे लगना और अपने  ही देश के प्रधानमंत्री को अपशब्द कहना सचमुच गलत है । हिन्दुरस्तान की धरती मे रह कर ,यहां उगा अन्ना खा कर ,सीमाओं पर देश के लिये जान कुरबान करने वाले जवानों की शहादत को अनदेखा कर देश की बरबादी और कश्मीर की आजादी की कामना करना तो अक्ष्मय है ।हर स्तर पर इस कृत्य का विरोध किया जाना चाहिये और कानून को भी अपना काम करने देना चाहिये ।अभिव्यक्ति  की स्वतंत्रा की आड़ मे चाहे कुछ भी करने की अनुमति नही दी जा सकती है।हर किस्स की आजादी की एक सीमा होती है और इस सीमा को पार करने की इजाजत देने का मतलब है अराजकता को दावत देना ।
एक अहम बात ये भी है कि जेएनयू के ताजा प्रकरण मे उग्र प्रतिक्रिया देने के बजाय एक गंभीर और परिपक्व नजरिये से भी देखने की दरकार है।देश मे जब विश्वविद्यालयों की स्थाापना की गयी थी तो ये माना गया था कि ये मानवता, सहनशीलता, तर्कशीलता, चिन्तन प्रक्रिया और सत्य की खोज की भावना को स्थापित करेगें ।ये भी माना गया था कि अगर विश्वविद्यालय अपना कर्तव्य ठीक से निभाएं तो यह देश और जनता के लिए अच्छा होगा।इतिहास गवाह है कि किसी देश के नव र्निमाण मे युवाओं की बड़ी अहम भूमिका रहती है ।देश मे भी आजादी के पहले और आजादी के बाद कई बड़े भारतीय राजनीति और सामाजिक आंदोलनों में छात्र अहम वा निर्णायक भूमिका में रहे और  इसमे संस्थानों का बड़ा योगदान भी था । लेकिन मौजूदा दौर में छात्र संगठन राजनीतिक दलों के लिए समर्थन जुटाने वाली छात्र इकाई से ज्यादा कुछ नहीं दिखतें हैं ।कुछ अर्से से देखा जा रहा है कि विश्वाविद्यालयों से देश ,समाज और युवाओं की आवाज बुलंद होने के बजाय विचार धारा की आवाजें बुल्रद हो रही है ।यानी उच्च शिक्षा संस्थान अब विचार धारा के नाम पर राजनीति का अखाड़ा बनते जा रहे हैं ।कई जानकारों का मानना है कि जेएनयू का यह विवाद उन तमाम विवादों की कड़ी है, जो हाल के महीनों मे कमोबेश कई विश्वविद्यालयों जैसे हैदराबाद विश्वविद्यालय, जयपुर विश्वीविद्यालय ,लखनऊ विश्वविद्यालय, पूरब के ऑक्सफोर्ड के नाम से मशहूर इलाहाबाद विश्वविद्यालय और बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में देखने में आया है। देश की राजनीति पर पैनी नजर रखने और राजनीति शास्त्र के एक जानकार का इस बारे मे कहना है कि उचच शिक्षा संस्थान भविष्य का आईना होते हैं ।लोकतंत्र के तीनों स्तम्भ को बनाने वाले और युग र्निमाण के अगुवा यहीं से आते हैं इस लिये राजनीति भी यहां ज़्यादा होती है ।फिर  देश मे नए बेरोजगारों की तेजी से बढ़ती संख्या दो करोड़ प्रतिवर्ष से कम नहीं बैठती। यानी बेरोजगारों की फौज में हर साल कम से कम दो करोड़ नए बेरोजगार युवा और जुड़ते जा रहे हैं। जबकि रोज़गार पैदा होने की रफ्तार इसके मुकाबले बहुत कम है और इस मद मे संसाधन जुटापाना हर सरकार के लिये टेढ़ी खीर रहा है।बेरोजगारी से उपजी निराशा युवाओं मे कहीं आक्रोश न पैदा कर दे इस लिये जाने अंजाने शिक्षा के मंदिरों मे विचारधारा की घुट्टी पिलाने की कोशिश को अंजाम दिया जाता है ।ताकि जरूरत पड़ने पर अपने हिसाब से उसका प्रयोग किया जा सके ।
दिक्कत ये है कि शैक्षणिक जगत में बौद्धिक स्तर पर विचारधारा की बात होने के बजाय अन्य स्तरों पर टकराव के रूप में सामने आने लगी है।इस लिये एक तरह की अतिवादिता के खिलाफ वे दूसरे किस्म की अतिवादिता सामने आने लगी है । लोकतंत्र मे अभिव्यक्ति की आजादी और स्त्री-पुरुष समानता के अलग मायने हैं । लोकतंत्र में सबके अपने-अपने विचार भी होते हैं जो उसकी असली ताकत भी हैं।लेकिन ये भी सही है कि किसी लोकतांत्रिक देश में कोई बड़ा विश्वविद्यालय कैसे किसी एक विचारधारा से जुड़ा रह सकता है। छात्रसंघ को संबोधित करने के लिए किसी अकादमिक शख्सियत को बुलाया जाना चाहिए लेकिन आज कल नया चलन विचारधारा प्रधान लेक्चर का चल पड़ा है जो अक्सर सियासी होतें हैं ।जिनसे विचारधारा प्रधान सियासी बयार बहने लगती है ।हाल के दिनों मे देश के आधा दर्जन से अधिक उच्च शिक्षा संस्थानों मे विचारधारा को लेकर विवाद की खबरें आयी । नतीजन जिन युवाओं को भविष्य  र्निमाण के लिये अकादमिक चर्चा करनी चाहिये वह विचारधारा की बहस-मुबाहिसे मे उलझ जातें हैं । अपने आसपास के माहौल से प्रभावित न रहने की जेएनयू की पुरानी परंपरा रही है ।इस लिये यहां कि छात्र राजनीति की संस्कृति शुरू से ही अलग रही है।फिर जेएनयू कैंपस यूनिवर्सिटी है और उसे एक खास योजना के तहत बनाया गया था। वहां पढ़ाई-लिखाई का सबसे अलग माहौल रहा है और छात्र राजनीति शुरू से ही अपेक्षाकृत उच्च बौद्धिक स्तर लिए रही। इसमें विचारधारात्मक बहस-मुबाहिसे की निर्णायक भूमिका बनी रही है । महज लुभावने नारों, जुमलेबाजी या जज्बाती भाषणों से इसमें पैठ बनाना अब तक संभव नहीं हुआ है।जेएनयू के ताजा विवाद मे हमेशा की तरह देश की राजनीति और बौद्धिक वर्ग साफ दो खेमों मे बंटता दिख रहा है जिसके अपने अलग मायने हैं।अभिव्यबक्तिस की आजादी के तहत कानून के किसी पूर्व फैसले पर बहस या सहिष्णुेता पर सवाल एक अलग मुद्दा है।इस लिये राजनीति से ज़्यादा एक शानदार शिक्षा संस्थान की प्रतिष्ठा‍ और वहां तालीम हासिल कर रहे तमाम मेघावी युवाओं का भविष्य  अहम है ।दोनो का दीर्घकालिक नुकसान बचाने के लिये सरकार और संस्थायन प्रशासन को गम्भीरता से सोचना चाहिये कि इसकी साख पर भी बट्टा ना लगने पाये ।इसके साथ ये भी जरूरी है कि हमारे नीति नियंता इस बात पर भी गौर करें कि देश के तमाम विश्वपविद्यालयों मे शिक्षा के नाम पर क्या हो रहा है ताकि दोबारा किसी दूसरे उच्चन शिक्षा संस्थान मे छात्र राजनीति के नाम पर विचारधारा की राजनीति हावी न हो और कैम्पस का माहौल पढ़ाई के इतर ना रहे।
** -शाहिद नकवी -**
राष्ट्रीय मूल्यांकन एवं प्रत्यायन परिषद के मुताबिक देश का सबसे प्रतिष्ठित विश्वपविद्यालय ,देश मे जनवादी आंदोलनों का वैचारिक गढ़ ,कई किलोमीटर तक फैले दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्विविद्यालय परिसर मे कोई किसी भी पृष्ठ भूमि से आये लेकिन यहां उसे खुल कर जीना सिखा दिया जाता है ।मानविकी से ले कर समाज विज्ञान और अंतरराष्ट्री यअध्ययन तक मे यहां बड़ी आला तालीम दी जाती है ।इसी लिये यहां शिक्षा हासिल करना हर छात्र का सपना होता है । लेकिन पिछले कुछ महीनों से गर्व करने लायक शिक्षा का ये मंदिर कुछ अलग कारणों से सुर्खियों मे है । कभी यहां अश्लीेलता और यौन उत्पीड़न की शिकायत पर हंगामा बरपा होता है गुरू और शिष्य  का रिश्ता कलंकित होता है तो कभी दलित और महिला उत्पीड़न की खबरों से हलचल मचती है ।एक सरकारी आंकड़े के मुताबिक साल 2013-14 में जेएनयू में यौन उत्पीड़न के एक दर्जन से अधिक मामले सामने आए थे।लेकिन ताजा मामला अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर कुछ ज़्यादा ही गम्भीर है और संस्थान के कुछ छात्रों पर राष्ट्रविरोधी गतिविधियों मे शामिल होने का आरोप लगरहा है ।देश के अपराधी संसद पर हमले के दोषी आतंकी अफजल गुरु की फांसी की बरसी विश्वविद्यालय परिसर मे मनाया जाना और भारत विरोधी नारे लगना वाकई चिंतनीय है।इसी मामले मे विश्वविद्यालय छात्र संघ के अध्यक्ष को देशद्रोह और आपराधिक षड्यंत्र के आरोप में दिल्ली पुलिस ने गिरफ्तार भी किया है । इसके अलावा कुछ और छात्रों को भी पुलिस तलाश रही है।छात्र संघ अध्‍यक्ष की गिफ्तारी के बाद से तो देश की राजनीति को ही इस मुद्दे ने गर्मा दिया है।विपक्षी दलों के तेवर से तो यही लगता है कि संसद का बजट सत्र भी इससे बेअसर नही रहेगा । दरअसल जेएनयू मे वैचारिक टकराहट और विवाद का ये पहला मामला नही है ।पिछले साल छात्र संघ चुनाव के नतीजों के बाद से ही जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय मे वैचारिक टकराहट तेज हो गयी हैं।कभी महिषासुर दिवस को मनाने और अंतरराष्ट्रीय वेदांत सम्मेलन में योग गुरु बाबा रामदेव के विरोध के बाद यहां के छात्रों को राजनीतिक हलके मे विचार धारा के आधार पर बांटा जाने लगा ।आधुनिक सोच,खुले विचारों और शिक्षा की बयार के बीच जेएनयू वह कैंपस है, जहां पर 1975 में आपातकाल का पुरजोर विरोध किया गया था। यहां के छात्रों ने 1984 में सिख विरोधी दंगों का विरोध किया तो बाबरी ध्वंस और गुजरात दंगे का भी यहां विरोध हुआ।
मनमोहन सिंह और राहुल गांधी के अलावा प्रणब मुखर्जी भी जब जेएनयू आए तो उन्हें तीखे सवालों का सामना करना पड़ा।हमेशा नवउदारवादी नीतियों का सबसे मुखर विरोध जेएनयू कैंपस में ही होता है। मुजफ्फरनगर दंगों का भी जेएनयू के छात्रों ने उसी तरह विरोध किया जैसे वह इसी तरह के दूसरे मामलों मे करते आयें हैं।ये वही कैम्पस है जहां पूर्व प्रधानमंत्री स्व.इंदिरा गांधी से लेकर पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और राहुल गांधी तक को काले झंडे दिखाए गए। यहां आमतौर पर प्रति वर्ष 300 राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन होते हैं।यह बुद्धिजीवियों का भी आश्रय है और इसने राष्ट्र निर्माण में काफी योगदान दिया है।यहां से निकल कर कई नामचीन हस्तियों ने राजनीति से लेकर हर क्षेत्र मे देश की सेवा की है । छात्र गुणवत्तापूर्ण पुस्तकें लिखते और संपादित करते हैं जो यहां की अकादमिक सक्रियता को दर्शाता है । इस लिये मार्क्स, एंगेल्स, गांधी,लेलिन ,सुकरात और ऐसे तमाम महान दारर्शनिकों को पढ़ने समझने वाले यहां के तमाम युवाओं को सीधे कठधरे मे नही खड़ा किया जा सकता है।वैसे जेएनयू छात्र संघ ने इस कार्यक्रम पर विवाद से अपने को अलग करने का दावा भी किया है।जेएनयू में भारत विरोधी नारे लगना और अपने  ही देश के प्रधानमंत्री को अपशब्द कहना सचमुच गलत है । हिन्दुरस्तान की धरती मे रह कर ,यहां उगा अन्ना खा कर ,सीमाओं पर देश के लिये जान कुरबान करने वाले जवानों की शहादत को अनदेखा कर देश की बरबादी और कश्मीर की आजादी की कामना करना तो अक्ष्मय है ।हर स्तर पर इस कृत्य का विरोध किया जाना चाहिये और कानून को भी अपना काम करने देना चाहिये ।अभिव्यक्ति  की स्वतंत्रा की आड़ मे चाहे कुछ भी करने की अनुमति नही दी जा सकती है।हर किस्स की आजादी की एक सीमा होती है और इस सीमा को पार करने की इजाजत देने का मतलब है अराजकता को दावत देना ।
एक अहम बात ये भी है कि जेएनयू के ताजा प्रकरण मे उग्र प्रतिक्रिया देने के बजाय एक गंभीर और परिपक्व नजरिये से भी देखने की दरकार है।देश मे जब विश्वविद्यालयों की स्थाापना की गयी थी तो ये माना गया था कि ये मानवता, सहनशीलता, तर्कशीलता, चिन्तन प्रक्रिया और सत्य की खोज की भावना को स्थापित करेगें ।ये भी माना गया था कि अगर विश्वविद्यालय अपना कर्तव्य ठीक से निभाएं तो यह देश और जनता के लिए अच्छा होगा।इतिहास गवाह है कि किसी देश के नव र्निमाण मे युवाओं की बड़ी अहम भूमिका रहती है ।देश मे भी आजादी के पहले और आजादी के बाद कई बड़े भारतीय राजनीति और सामाजिक आंदोलनों में छात्र अहम वा निर्णायक भूमिका में रहे और  इसमे संस्थानों का बड़ा योगदान भी था । लेकिन मौजूदा दौर में छात्र संगठन राजनीतिक दलों के लिए समर्थन जुटाने वाली छात्र इकाई से ज्यादा कुछ नहीं दिखतें हैं ।कुछ अर्से से देखा जा रहा है कि विश्वाविद्यालयों से देश ,समाज और युवाओं की आवाज बुलंद होने के बजाय विचार धारा की आवाजें बुल्रद हो रही है ।यानी उच्च शिक्षा संस्थान अब विचार धारा के नाम पर राजनीति का अखाड़ा बनते जा रहे हैं ।कई जानकारों का मानना है कि जेएनयू का यह विवाद उन तमाम विवादों की कड़ी है, जो हाल के महीनों मे कमोबेश कई विश्वविद्यालयों जैसे हैदराबाद विश्वविद्यालय, जयपुर विश्वीविद्यालय ,लखनऊ विश्वविद्यालय, पूरब के ऑक्सफोर्ड के नाम से मशहूर इलाहाबाद विश्वविद्यालय और बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में देखने में आया है। देश की राजनीति पर पैनी नजर रखने और राजनीति शास्त्र के एक जानकार का इस बारे मे कहना है कि उचच शिक्षा संस्थान भविष्य का आईना होते हैं ।लोकतंत्र के तीनों स्तम्भ को बनाने वाले और युग र्निमाण के अगुवा यहीं से आते हैं इस लिये राजनीति भी यहां ज़्यादा होती है ।फिर  देश मे नए बेरोजगारों की तेजी से बढ़ती संख्या दो करोड़ प्रतिवर्ष से कम नहीं बैठती। यानी बेरोजगारों की फौज में हर साल कम से कम दो करोड़ नए बेरोजगार युवा और जुड़ते जा रहे हैं। जबकि रोज़गार पैदा होने की रफ्तार इसके मुकाबले बहुत कम है और इस मद मे संसाधन जुटापाना हर सरकार के लिये टेढ़ी खीर रहा है।बेरोजगारी से उपजी निराशा युवाओं मे कहीं आक्रोश न पैदा कर दे इस लिये जाने अंजाने शिक्षा के मंदिरों मे विचारधारा की घुट्टी पिलाने की कोशिश को अंजाम दिया जाता है ।ताकि जरूरत पड़ने पर अपने हिसाब से उसका प्रयोग किया जा सके ।
दिक्कत ये है कि शैक्षणिक जगत में बौद्धिक स्तर पर विचारधारा की बात होने के बजाय अन्य स्तरों पर टकराव के रूप में सामने आने लगी है।इस लिये एक तरह की अतिवादिता के खिलाफ वे दूसरे किस्म की अतिवादिता सामने आने लगी है । लोकतंत्र मे अभिव्यक्ति की आजादी और स्त्री-पुरुष समानता के अलग मायने हैं । लोकतंत्र में सबके अपने-अपने विचार भी होते हैं जो उसकी असली ताकत भी हैं।लेकिन ये भी सही है कि किसी लोकतांत्रिक देश में कोई बड़ा विश्वविद्यालय कैसे किसी एक विचारधारा से जुड़ा रह सकता है। छात्रसंघ को संबोधित करने के लिए किसी अकादमिक शख्सियत को बुलाया जाना चाहिए लेकिन आज कल नया चलन विचारधारा प्रधान लेक्चर का चल पड़ा है जो अक्सर सियासी होतें हैं ।जिनसे विचारधारा प्रधान सियासी बयार बहने लगती है ।हाल के दिनों मे देश के आधा दर्जन से अधिक उच्च शिक्षा संस्थानों मे विचारधारा को लेकर विवाद की खबरें आयी । नतीजन जिन युवाओं को भविष्य  र्निमाण के लिये अकादमिक चर्चा करनी चाहिये वह विचारधारा की बहस-मुबाहिसे मे उलझ जातें हैं । अपने आसपास के माहौल से प्रभावित न रहने की जेएनयू की पुरानी परंपरा रही है ।इस लिये यहां कि छात्र राजनीति की संस्कृति शुरू से ही अलग रही है।फिर जेएनयू कैंपस यूनिवर्सिटी है और उसे एक खास योजना के तहत बनाया गया था। वहां पढ़ाई-लिखाई का सबसे अलग माहौल रहा है और छात्र राजनीति शुरू से ही अपेक्षाकृत उच्च बौद्धिक स्तर लिए रही। इसमें विचारधारात्मक बहस-मुबाहिसे की निर्णायक भूमिका बनी रही है । महज लुभावने नारों, जुमलेबाजी या जज्बाती भाषणों से इसमें पैठ बनाना अब तक संभव नहीं हुआ है।जेएनयू के ताजा विवाद मे हमेशा की तरह देश की राजनीति और बौद्धिक वर्ग साफ दो खेमों मे बंटता दिख रहा है जिसके अपने अलग मायने हैं।अभिव्यबक्तिस की आजादी के तहत कानून के किसी पूर्व फैसले पर बहस या सहिष्णुेता पर सवाल एक अलग मुद्दा है।इस लिये राजनीति से ज़्यादा एक शानदार शिक्षा संस्थान की प्रतिष्ठा‍ और वहां तालीम हासिल कर रहे तमाम मेघावी युवाओं का भविष्य  अहम है ।दोनो का दीर्घकालिक नुकसान बचाने के लिये सरकार और संस्थायन प्रशासन को गम्भीरता से सोचना चाहिये कि इसकी साख पर भी बट्टा ना लगने पाये ।इसके साथ ये भी जरूरी है कि हमारे नीति नियंता इस बात पर भी गौर करें कि देश के तमाम विश्वपविद्यालयों मे शिक्षा के नाम पर क्या हो रहा है ताकि दोबारा किसी दूसरे उच्चन शिक्षा संस्थान मे छात्र राजनीति के नाम पर विचारधारा की राजनीति हावी न हो और कैम्पस का माहौल पढ़ाई के इतर ना रहे।
** -शाहिद नकवी -**

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