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ये सियासी ड्रामा जनतंत्र के लिये या दलतंत्र के लिये !

Shahid Naqvi
Shahid Naqvi
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उत्तराखंड में सत्ता लोभ को लेकर जिस तरह से राजनीतिक हथकंडे अपनाए जा
रहे हैं, उससे नेताओं और राजनीतिक दलों को तो लाभ हो सकता है लेकिन
नुकसान उनको हो रहा है जिन्हो ने राज्य पाने के लिये लम्बी लड़ाइयां
लड़ी थी।अलग प्रदेश के रूप मे उत्तराखंड आसानी से वजूद मे नही आया था
वरन तेलंगाना की तरह यहां के लोगों को भी राज्य निर्माण के लिए अपने
प्राणों की आहुति देनी पड़ी थी। आजादी के बाद इस क्षेत्र को आवश्यकता और
आकांक्षाओं के अनुरूप आर्थिक प्रगति के लाभ नहीं मिले। उत्तर प्रदेश का
हिस्सा रहने पर उत्तराखंड के लोगों को रोजगार सहित विभिन्न सुख-सुविधाओं
की कमी खलती रही। इसीलिए बड़े संघर्ष के बाद उत्तराखंड को छत्तीसगढ़ और
झारखंड के साथ अलग राज्य का दर्जा मिला। प्राकृतिक रूप से खुशहाल पर्वत
श्रृंखलाओं पर आबाद राज्य के लोगों को उम्मीद थी कि अलग राज्य बनने से
उनके सपने साकार होंगे, लेकिन राज्य गठन के बीते 16 सालों में यहां जड़
जमा चुकी राजनीतिक अस्थिरता ने सभी को निराश किया है। विकास की छटपटाहट
से निकले उत्तराखंड की राजनीतिक सूरत इस कदर बदतर होगी ये शायद किसी ने
भी नही सोचा था। उम्मीद थी कि स्थानीय नेताओं के हाथों बागडोर आने पर
राज्य विकास की मुख्यधारा में शामिल होगा।लेकिन इन्ही नेताओं की जोड़तोड़
की राजनीति के चलते यहां विकास की गंगा बहाने के दावे पूरी तरह फेल हुए
हैं।राज्य मे राजनीतिक अस्थिरता के लिये देश के दोनो बड़े दल ही
जिम्मेदार हैं।राज्य के वजूद मे आने के बाद के बीते डेढ़ दशक मे यहां भाजपा और कांग्रेस की ही सरकारें
आती –जाती रही हैं।मात्र डेढ़ साल की पहली अंतरिम सरकार में ही राज्य की जनता को नित्यानंद स्वामी और भगत सिंह कोश्यारी के रुप में दो-दो सीएम देखने पड़े थे।अब उसी उत्तराखंड मे कांग्रेस की रावत सरकार एक बार फिर संकट
में है।तीन दशक पहले वजूद मे आये दल-बदल कानून के बावजूद सत्ताधारी दल
में बागी स्वर बुलंद हैं।जिसके चलते संख्या बल का समीकरण हल किया जा रहा
है। बगावत से उपजे तथ्यात्मक पहलूओं की कानूनी काट भी ढूंढी जा रही
है।संख्या का गणित ना उलझे इस लिये उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने मामले मे
दखल देते हुये पहले आदेश दिया था कि विधानसभा में 31 मार्च को बहुमत परीक्षण
कराया जाना चाहिए लेकिन बाद मे इस हाई वोल्‍टेज सियासी ड्रामे मे एक नया मोड़ तब आ गया जब डबल बेंच ने केन्द्र सरकार की अपील पर शक्ति परीक्षण पर सात अप्रैल तक रोक लगा दी है।केन्द्र सरकार के लिये ये ताजा आदेश राहत देने वाला माना जा रहा है।जबकि पहले राष्ट्रपति शासन के बावजूद विधान सभा मे शक्‍ति परीक्षण होना केन्द्र सरकार की सिफारिश पर सवाल उठाने जैसा था।
राज्य का इतिहास बताता है कि कांगेस
के एनडी तिवारी को छोड़ कर कोई मुख्यमंत्री पूरे पांच साल कुर्सी पर नही
बना रह सका । राजनीतिक मामलों के जानकारों का कहना है कि यहां के
राजनेताओं में समाई सत्ता की भूख ने राज्य की अवधारणा को ही तार-तार कर
दिया है। 2007 में भाजपा के सत्ता के आने के बाद तो ये राज्य राजनितिक
अस्थिरता का केंद्र बन गया.,भाजपा शासन ने राज्य को तीन सीएम दे डाले।
कुछ ऐसा ही नजारा साल 2012 के बाद भी कांग्रेसी सरकार में दिखाई
दिया।इसके बाद के इन चार सालों में भी कांग्रेस ने विजय बहुगुणा और हरीश
रावत के रूप में दो सी एम दिए। अपनी ही सरकार के खिलाफ कांग्रेसी
विधायकों की बगावत से भाजपा भी सीएम की कुर्सी की दौड़ मे शामिल हो गयी
है।या यूं कहे कि कांग्रेस मुक्त भारत के सपने को पूरा करने के लिये ये एक गैर चुनावी तरीका हो सकता है।लेकिन ये तय है कि अब प्रदेश के नेताओं की सत्ता भूख आम आमजन की भावना पर
भारी पड़ने लगी है। इसे प्रदेश का दुर्भाग्य कहा जाएगा कि कांग्रेस और
भाजपा की सरकारें रहने के बावजूद उत्तराखंड की जनता मूलभूत सुविधाओं के
लिए आज भी बेचैन है।प्रचूर प्राकृतिक संसाधनों और पर्यटन की अपार सम्भावना के बावजूद यहां दूसरे राज्यों मे छोटे -मोटे काम करने के लिये मजबूर हैं।पहाड़ों पर आबाद लोगों के पास जीवन जीने की बुनियादी सुविधायें भी नही हैं।यहां दोनो बड़े दलों की बराबरी से सरकारें रही हैं इस लिये काई अच्छे दिन लाने का वादा नही कर सकता है।
इसी क्रम में तीन दशक पहले बना दलबदल कानून
फिर चर्चा में है।दरअसल सन 1985 में सत्ता संभालने के साथ ही राजीव गांधी
ने 52वें संविधान संशोधन के जरिए देश के संसदीय लोकतंत्र की एक बड़ी
बुराई दल-बदल पर अंकुश लगाने की कोशिश की थी। इस तरह दसवीं अनुसूची, जिसे
आमतौर पर दलबदल विरोधी कानून कहा जाता है, को संविधान में जोड़ा गया था।
मगर इस कानून में कमियां बरकरार हैं। इन्हीं का फायदा उठाकर पूर्व मे
नरसिंह राव ने अपनी अल्पमत सरकार को बचा लिया था। उसके बाद एनडीए सरकार
ने 2003 में 90वें संशोधन के जरिए इस कानून को सख्त करने की कोशिश की
थी।अब डेढ़ दशक बाद कानून को व्यवहारिक और प्रभावी बनाने के लिए एक बार
फिर इसमें बदलाव और समीक्षा की जरूरत महसूस की जा रही हैं।कानून का
उद्देश्य आयाराम गयाराम को रोकना और केंद्र व राज्य में आई चुनी हुई
सरकार को स्थिरता देना था लेकिन आज ये पूरा नहीं हो रहा।अब कानून पर
दोबारा विचार करने का समय आ गया है।जानकारों का कहना है कि अभी दलबदल
कानून इसलिए फेल हो जाता है क्योंकि केंद्र और राज्य के बीच राजनीतक
परिस्थितियां ट्विस्ट हो जाती हैं। कानून में राज्यपाल और स्पीकर को
विस्तृत अधिकार मिले हैं लेकिन कई बार इनका प्रयोग राजनीति से प्रेरित भी
होता है।
इसके उलट ये सवल पैदा होता है कि एक निर्वाचित
विधायक पहले किसके प्रति जिम्मेदार है,अपने राजनीतिक दल के प्रति या
निर्वाचन क्षेत्र की जनता के प्रति?अगर देखा जाये तो यह साधारण प्रश्न
नहीं है।क्यों कि देश में बहुुुतेरी राजनीतिक उठा-पटक इसी प्रश्न से
जुड़ी हुयी होती हैं।उत्तराखंड,अरूणाचल,मणिपुर या दूसरे राज्यों के उदाहरण
सामने रखे जा सकते है।अगर राजनीतिक दलों के आलाकमानों का सख्त हस्तक्षेप
न हो तो सरकारों का चलना ही मुश्किल हो जाता।इसी लिये ये सवाल भी खड़ा होता है कि क्या यह स्थिति हमारी
संवैधानिक व्यवस्था के अनुरूप है? राजनीतिक दलों के सदस्य-विधायकों की
प्राथमिक जिम्मेदारी उनके दल के प्रति मान ली गई है। तभी वे अपने विवेक
से मुख्यमंत्री चुनने, किसी विधेयक पर मतदान करने, आदि सर्वाधिक
महत्त्वपूर्ण कार्यों पर भी दलीय निर्देश से चलने को बाध्य हैं। दल-बदल
कानून 1985 द्वारा इसे कानूनी रूप भी दे दिया गया कि सांसद और विधायक
विधायिका की कार्यवाही में भी अपने दल के आदेश से चलने के लिए बाध्य
हैं।अगर विधायक हर विधायी कार्य में दलीय निर्देश से चलने के लिए बाध्य
हो, तब उसकी जनता के प्रति जवाबदेही ही क्या है, जिसने उसे चुना? कहा जा
सकता है कि दल ने उसे टिकट दिया था, और उसकी जीत के लिए अभियान चलाया था।
पर दल के टिकट और अभियान के बावजूद कोई उम्मीदवार हार सकता है। जबकि बिना
दलीय टिकट के भी कोई चुनाव में खड़ा हो सकता है, और जन-समर्थन से जीत कर
विधायिका में पहुंच सकता है।इससे साफ होता है कि विधायिका के लिए
निर्वाचन में उम्मीदवार-व्यक्ति और मतदान करने वाली जनता ही प्रमुख है।
मगर हकीकत मे हमारे लोकतंत्र मे राजनीतिक दलों की अहमियत को स्वीककार कर
लिया गया है।जिससे विधायिका और सरकार के कार्य संचालन में एक विकृति ही आई
है।यही वजह है कि इससे राष्ट्रीय और सामाजिक हितों के स्थान पर दलीय हितों को प्रमुखता
मिल गई है और राजनीति दलगत राजनीति में तब्दीाल हो गई है।यह भी सही हे कि
भारतीय राजनीति से विचारों और नीतियों की विदाई तो बहुत पहले हो चुकी है।इस
लिये दलों के प्रति वफादारी भी कम दिखयी पड़ती है। तात्कालिक राजनीतिक
लाभ ही सबसे बड़ी चीज हो गयी है।इस लिये कोफ्त होती है कि छह दशक से अधिक
समय के लोकतंत्र के अनुभव ने हमारे देश को कहां लाकर खड़ा कर दिया है।
दरअसल दल-बदल की समस्या के कुछ ऐसे पहलू भी हैं जिन्हें नजरंदाज नहीं
किया जा सकता क्योंकि हर स्थिति में दल-बदल अवसरवाद या महत्वाकांक्षा या
लोभ के कारण ही होता है।उत्तराखंड मे हरीश रावत द्वारा अपनी सरकार बचाने
की कोशिश स्वाभाविक है। लेकिन इस स्थिति के लिए भाजपा का यह दावा भी
हास्यास्पद है कि उसने असंतुष्टों को चारा नहीं डाला। सारी दुनिया देख
रही है कि उत्तराखंड के असंतुष्ट् नौ विधायकों का विद्रोह दलबदल कानून की
परिधि में है।यह भी सही है कि कानूनी दांव-पेंच से बचाव तो हर अपराध में
संभव है और इसका फैसला अदालत और विधान सभा में ही होगा। लेकिन उत्तराखंड
के ग्रामीण क्षेत्रों की दुर्दशा की चिंता राजनीतिक दलों की नहीं है।
शिक्षा, स्वास्थ्य, पेयजल, आवास, सड़क की न्यूनतम सुविधाओं के वायदे
दोनों पार्टियां करती रही हैं। सत्ता और धन के लालची नेताओं के आपसी
संघर्ष में उत्तराखंड के लोग मूकदर्शक की तरह आंसू बहा रहे हैं।ऐसा
शर्मनाक दलबदल,अवसरवाद और मूल्यहीनता भारतीय लोकतंत्र के इतिहास मे कलंक
के रूप में तब तक दर्ज होता रहेगा जब तक इन कमियों को दूर करने के बारे
में भारत का राजनीतिक वर्ग सोचने को तैयार नहीं होता है।बदलाव के त्याग मांगता है जिसके लिये किसी न किसी को तो आगे आना होगा ।
** शाहिद नकवी**

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