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जिस दौर में भारत दुनिया की बहुत बड़ी ताकत होने का सपना देख रहा है, उसी दौर में मच्छरों ने उसकी नाक में दम कर रखा है।देश की राजधानी दिल्ली और आर्थिक राजधानी मुंबई,झारखण्ड,उत्तराखण्ड, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश सहित देश के कई शहरों के लोग मादा एडिस मच्छर के डंक से पीड़ित हैं।जबकि पड़ोसी देश श्रीलंका साउथ-ईस्ट एशिया में मालदीव के बाद मलेरिया मुक्त होने वाला दूसरा देश बन जाता है।बीसवीं सदी मे श्रीलंका सबसे ज्यादा मलेरिया प्रभावित देशों में शामिल था,लेकिन साल 2012 मे उसने मच्छरों के प्रकोप से मुक्ति पाली। लगातार तीन साल तक मलेरिया का कोई केस सामने नहीं आने पर विश्व स्वास्थ्य संगठन ने उसे मलेरिया मुक्त देश घोषित कर दिया।गौरतलब है कि सन 1970 और 80 के दशक में श्रीलंका में मलेरिया खूब फैला।इसके बाद 90 के दशक में यहां एंटी मलेरिया कैम्पेन चलाना शुरू किया गया।करीब 26 साल बाद नेताओं के विजन और जनता के साहसिक कदम यानी दोतरफा कोशिशों से आज वह इस रोग की रोकथाम मे सालाना होने वाले करोड़ों के खर्च और जनहानि बचाने मे कामयाब है।इसके अलावा संयुक्त अरब अमीरात, मोरक्को, आर्मिनिया, तुर्कमेनिस्तान जैसे कई देश हैं जिन्होंने पिछले सात आठ सालों में मलेरिया से मुक्ति पाई है।हाल ही में पूरे यूरोप क्षेत्र को भी मलेरिया मुक्त घोषित किया गया है। यह दुनिया में पहला क्षेत्र है,जिसे मलेरिया मुक्त घोषित किया गया है।यूरोप में 1995 में मलेरिया के 90 हजार 712 मामले सामने आए थे।लेकिन दो दशक में यह शून्य हो गए।हम आजादी के पहले और उसके बाद से लगातार मलेरिया और डेंगू की रोकथाम के लिये अभियान चला रहे है और कब तक चलाते रहेगें पता नही।सरकार के लक्ष्य के मुताबिक भारत को मलेरिया मुक्त होने में 2030 तक का वक्त लग जाएगा, डेंगू और चिकनगुनिया से मुक्ति कब मिलेगी पता नहीं।यानी सरकार को उम्मीद है कि अगले डेढ़ दशक मे देश मलेरिया से मुक्त हो जायेगा।इस अभियान पर हुये खर्च और जनहानि का कोई स्पष्ट आंकड़ा नही है लेकिन अब तक अरबों रूपये खर्च और हजारों जनहानि का अनुमान है।डब्लू एच ओ की रिपोर्ट पर भरोसा करें तो हर सात में से एक भारतीय को मलेरिया का खतरा रहता है।जबकि डेंगू का प्रतिशत इससे कुछ कम है। देश में मलेरिया से होने वाली कुल मौतों में 90 फीसदी ग्रामीण क्षेत्रों में होती है।जबकि डेंगू का प्रकोप शहरों मे अधिक रहता है।भारत में स्वास्थ्य सेवाओं की दयनीय स्थिति का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि देश में हर साल एडीज मच्छरों से फैलने वाला डेंगू सैकड़ों जिंदगियां तबाह कर देता है। पिछले कुछ वर्षों से डेंगू ने कई राज्यों में पैर पसार लिए हैं, पर दिल्ली में यह बीमारी कहर बरपाती रही है। डेंगू के मच्छर बरसात के साथ अपना असर दिखाना शुरू कर देते हैं।
मच्छरों की अब ऐसी प्रजातियां पैदा हो गई हैं जिन पर सामान्य कीटनाशकों का कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा है। उनमें प्रतिरोधक क्षमता पैदा हो गई है, इसलिए बाजार में बिकने वाली मच्छर-मार टिकिया या रसायनों का उन पर असर नहीं हो रहा है। मच्छरों के काटने से फैलने वाली बीमारियों में डेंगू और मलेरिया के अलावा मस्तिष्क ज्वर, चिकनगुनिया और फाइलेरिया प्रमुख हैं।
पिछले कुछ दशकों में औषधियों के खिलाफ भी प्रतिरोधक क्षमता विकसित होने से इलाज मुश्किल होता जा रहा है। मच्छरों के उन्मूलन के खिलाफ जो अभियान चलाया जाना चाहिए था वह भी ठप है। इसलिए इन रोगों से मरने वालों की संख्या लगातार बढ़ रही है। डेंगू और मलेरिया से संबंधित सही सही आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं क्योंकि इस तरह के आंकड़े इकट्ठा करना आसान नहीं है।दरअसल वही जांच आंकड़ा बनती है जो सरकारी संस्थानों मे होती है।निजी पैथालाजी लैबों से आंकड़ें लेने और देने का चलन नही है।लोग भी रोग के गम्भीर होने पर ही सरकारी शरण मे जाते है।वैसे डेंगू की अंतरराष्ट्रीय विशेषज्ञ नीना वालेचा का माना है कि पिछले कई दशकों में डेंगू के मरीज़ों की संख्या तीस गुना बढ़ गई है। अमेरिका की ब्रांडेस यूनिवर्सिटी के डोनाल्ड शेपर्ड के अक्टूबर 2014 में जारी शोध पत्र के अनुसार भारत विश्व में सबसे अधिक डेंगू प्रभावित देशों मे शामिल है।एक आंकड़े के मुताबिक 2012 में दक्षिण एशिया क्षेत्र में डेंगू के लगभग दो लाख नब्बे हजार मामले दर्ज हुए थे, जिसमें करीब 20 प्रतिशत भागीदारी भारत की थी। आज की तारीख में, जब हर साल डेंगू के मामले बढ़ रहे हों, तब ये चिंता का विषय है।साल 2010 में डेंगू के 20 हजार से ज्यादा मामले दर्ज हुए, जो बढ़कर 2012 में 50 हजार और 2013 में 75 हजार हो गए। राष्ट्रीय वेक्टर जनित रोग नियंत्रण कार्यक्रम के आंकड़ों के अनुसार, दिसंबर 2014 में 40 हजार केस दर्ज हुए थे।जबकि मौजूदा वर्ष मे मिले आंकड़ों के मुताबिक अब तक देश के विभिन्न राज्यों मे 13 हजार से अधिक लोग डेंगू कर चपेट मे आचुकें हैं। देश की खराब स्वास्थ्य सेवाओं और उस से भी खराब डॉक्टर-मरीज अनुपात को देखते हुए इस संख्या को जल्दी नीचे ले आना भी एक बड़ा काम है। देश में प्रति 1800 मरीजों पर एक डॉक्टर उपलब्ध है। आखिर ऐसी क्या वजह है कि डेंगू से निपटने के 10 बड़े संस्थान होने के बावजूद हम चार-पांच दशक मे हम इस बीमारी से बचने के सार्थक तरीके इजाद नहीं कर सके?जबकि इस दौरान ये बीमारी महानगरों से निकल कर छोटे शहरों तक पांव फैला चुकी है। क्या सिर्फ बचाव के दिशा निर्देश इस रोग से लड़ने के लिए काफी हैं। क्यों देश के पास मलेरिया उन्मूलन अभियान की तरह डेंगू से लड़ने का कोई स्थायी इलाज,अभियान या टीका नहीं है? देश में केंद्र सरकार की ओर से संचालित 10 ऐसे संस्थान हैं, जो महामारी-विज्ञान, चिकित्सकीय अध्ययन, रोग निदान, रोग नियंत्रण और टीका विकास शोध के कामों में लगे हैं।जाहिर है हर साल हजारों जिंदगियां बचाने के लिए इन संस्थानों को शोध के लिए करोड़ों रुपये भी दिये जाते होगें।लेकिन अब तक डेंगू के इलाज के लिए ना कोई सार्थक उपाय नहीं खोजा जा सका और ना ही इस पर लगाम लगायी जा सकी।खबरों के मुताबिक इंटरनेशनल सेंटर फॉर जेनेटिक इंजीनियरिंग एंड बायोटेक्नोलॉजी के वैज्ञानिको के अनुसार ‘देश को डेंगू रोधी टीका विकसित करने में अभी चार-पांच साल और लगेंगे।वैसे एक अध्ययन और चल रहा है जिसके तहत यह देखा जा रहा है कि मच्छरों में आनुवांशिक बदलाव करके किस प्रकार से डेंगू को रोका जा सकता है।
डेंगू के बड़े पैमाने पर फैलने के लिए भारत में सबसे ज्यादा अनुकूल दशाएं, जैसे जनसंख्या वृद्धि, जनसंख्या घनत्व, अनियोजित शहरीकरण और रोगवाहक कीट घनत्व मौजूद हैं।अगर आप यह समझ रहे हैं कि डेंगू की वजह गरीब और उनके इलाके हैं तो आप गलत हो सकते हैं।क्यों कि पिछले साल मुंबई में डेंगू के लक्षणों वाले मरीजों की सबसे ज्यादा संख्या पॉश इलाकों से थी।सर्वे मे पाया गया था कि मुंबई के पॉश इलाकों से 50 फीसदी डेंगू के मरीज थे।जबकि झुग्गी झोपड़ी से 10 फीसदी और चॉल से 40 फीसदी डेंगू के लक्षण वाले मरीज मिले थे।जिन इलाकों में ऊंची-ऊंची इमारतें हैं, वहां मच्छरों का असर ज्यादा है। यानी लापरवाही से किए जा रहे विकास कार्यों की वजह से भी मादा एडिस मच्छर पनप रहे हैं।ये कहना ऐ दम गलत होगा कि हमारी सरकारें नागरिकों की सेहत को ले कर एक दम से गाफिल है।आखिर मलेरिया से मौत पर हम क्यों चौकन्ने हुए। जांच से लेकर इलाज की तमाम आधुनिक सुविधा देने की कोशिश का ही नतीजा है कि मलेरिया फैलने मे कमी आई।भारत में 1953 तक लगभग हर साल साढ़े सात करोड़ लोग मलेरिया के शिकार होते थे, जिनमें लगभग आठ लाख लोग मौत की भेंट चढ़ जाते थे।राष्ट्रीय मलेरिया उन्मूलन कार्यक्रम चलाया गया।वर्ष 1977 में सरकार ने मलेरिया उन्मूलन नीति में सुधार करके इस कार्यक्रम को लागू किया। लेकिन 1994 में जब मलेरिया महामारी के रूप में फैला तो इसके कार्यक्रम पर ही संदेह व्यक्त किया जाने लगा।इसके बाद 1996 में संशोधित मलेरिया उन्मूलन कार्यक्रम बनाया गया। देश के आठ राज्यों के कुल सौ जिलों में विश्व स्वास्थ्य संगठन के सहयोग से परिवर्तित मलेरिया नियंत्रण कार्यक्रम चलाया जा रहा है।लेकिन आज अगर इस बीमारी से कोई मर जाए तो हमारे कान खड़े हो जाने चाहिए,पड़ताल होनी चाहिये कि बाकायदा विभाग है और कर्मचारी तैनात हैं और बजट भी है। अकेले दिल्ली में तीनों निगमों में चार हज़ार कर्मचारी इसके लिए तैनात किये गए हैं। देश के तमाम निगमों के संसाधन को जोड़ लें तो पता चलेगा कि मच्छरों के पीछे कितने लोग लगे हैं।इनका काम मलेरिया, डेंगू और चिकनगुनिया से मुक्ति दिलाना है।बताया जाता है कुल मिलाकर करोड़ों का सालाना बजट है।कुछ बीमारियां पर्यावरण के बिगाड़ या साफ-सफाई की कमी और सार्वजनिक स्तर पर बरती जाने वाली लापरवाही आदि की देन होती हैं।इनसे निपटने के लिए केवल सरकारी प्रयास जरूरी हैं,जन-सहभागिता की भी उतनी ही आवश्यकता है।हम समय समय पर ध्यान नहीं देते हैं।खुद भी मच्छर पैदा करने के हालात पैदा करते हैं और बाज़ार से क्रीम और क्वायल खरीद कर समझते हैं कि मच्छर हमारा क्या बिगाड़ लेगा।जरा सेचिये हम सब की भी जिम्मेदारी है।हम बात-बात पर देश भक्ति का नारा तो जोरशोर से लगाते हैं लेकिन कभी गौर नही करते कि मच्छरजनित बीमारी से भारत की अर्थव्यवस्था को हर साल करीब 13000 करोड़ रुपये का नुकसान हो रहा है।प्रधानमंत्री मोदी ने स्व्च्छ भारत का नारा यूं ही नही दिया है,इस नारे को अमल मे लाने का भार हम पर भी है।श्रीलंका से मलेरिया मुक्ति की ख़बर हमारे भीतर भी सपनों को जगाती है,सच अगर सब मिल कर उठ खड़े हो तो यकीनन ठीक उसी तरह कामयाब होगें जैसे भारत ने पोलियो से मुक्ति पा ली है। पोलियो मुक्ति अभियान भी कम शानदार नहीं है।ये सरकार और हमारा सामूहिक प्रयास ही तो है कि एक नियत समय पर पोलियो की दवा लेकर कोई आपके दरवाज़े पर आकर खड़ा हो जाता है।
**शाहिद नकवी **
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