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बदलाव के वायदे पर खरी उतरती मोदी सरकार

Shahid Naqvi
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प्रधानमंत्री बनने से पहले नरेन्द्र मोदी ने देश से अच्छे दिन का जो वायदा किया था उसका सही आंकलन अब सरकार के तीसरे साल मे होगा।लेकिन वह केन्द्र सरकार की रीति-नीतियों में आमूलचूल बदलाव के वायदे पर अमल करते जरूर दिख रहे हैं। आजादी के पहले से चला आ रहा रेलवे बजट को अलविदा कहना इसी कड़ी का एक बड़ा हिस्सा कहा जा सकता है।यानी 93 साल पुराना रेल बजट, 2017 से वित्त मंत्री अरुण जेटली का सिरदर्द हो जाएगा।अब शायद जल्दी ये भी फैसला आयें कि आम बजट को परंपरागत समय से एक माह पहले ही पेश किया जायेगा।दरअसल जून में ही संकेत मिल गए थे कि इस साल फरवरी में आया रेल बजट शायद अंतिम साबित हो। अब सरकार ने बाकायदा इसकी घोषणा कर दी है कि अलग से रेल बजट नहीं आएगा।बेशक भारतीय रेल राष्ट्र की जीवन-रेखा है और जन-जीवन की आर्थिकी से लेकर सांस्कृतिक परिदृश्य तक एक सतत महत्वपूर्ण आधार है।भारतीय रेलवे अपने 17 क्षेत्रीय रेलों और 68 मंडलों के प्रशासनिक तंत्र और करीब 65,000 किमी नेटवर्क के सहारे ये देश का सबसे बड़ा नियोजक और परिवहन का मुख्य आधार स्तंभ बना हुआ है। यह रोज 12,335 यात्री गाड़ियां चला रहा है।यह साधारण आदमी के लिए परिवहन का सबसे सस्ता विकल्प और देश में लाखों लोगों को रोजगार दिलाने का अहम जरिया भी है।वर्ष 2009 में ऑल इंडिया ऑडिट एंड अकाउंट्स एसोसिएशन की ओर से पेश एक रिपोर्ट में दी गई जानकारी के मुताबिक केंद्र सरकार के अंतर्गत करीब 44 प्रतिशत ऐसे लोग हैं जिन्हें रेलवे ने रोजगार दिया हुआ है।भारत में एक तिहाई माल ढुलाई अभी तक रेलवे के जरिए ही होती है जो सीधे तौर पर उत्पादन और विकास को प्रभावित करता है।लेकिन दुर्भाग्य से भारतीय रेलवे पिछले कुछ समय से, खासकर नब्बे के बाद से लगातार 2014 तक चले गठबंधन सरकारों के दौर में, राजनीति का मोहरा बनकर रह गई।
सत्तारूढ़ दलों ने अपने मुख्य राजनीतिक सहयोगी को रेलवे मंत्रालय देकर संतुष्ट रखने की नीति अपनाई।रेल मंत्रियों ने खुद को अपने राज्य के मुख्यमंत्री या बड़े नेता के रूप में पेश करने के लिए रेलवे का बाखूबी इस्तेमाल किया। उन्होंने बिना किसी ठोस योजना के मनमाने तरीके से गाड़ियां चलाईं लेकिन यात्री किराया बढ़ाने से परहेज किया। रेलवे के लिए जैसी-तैसी कंपनियां बनाकर उनमें अपने लोगों को बिठाया मनमाने ढंग से ठेके दिए।यहां किसी एक को कठघरे मे खड़ा नही किया जा सकता लेकिन क्षेत्रीयवाद के चलते देश मे रेल सेवाओं का असामान्य विकास भी हुआ।ये कहने मे कोई हर्ज नही कि इसी के चलते रेलवे अकुशलता और भ्रष्टाचार का गढ़ बनती गई और देखते-देखते जबर्दस्त घाटे का शिकार हो गई।उसका खर्च बढ़ता गया और आमदनी सिमटती गई।यात्रियों के बढ़ते बोझ के हिसाब से इसका ढांचा नहीं बदल पा रहा।अभी आलम यह है कि पटरियां कमजोर हैं, पुल जर्जर हैं। स्टेशनों पर गंदगी का अंबार लगा रहता है। वीआईपी ट्रेनों तक की बोगियों के टॉयलेट गंदे रहते हैं।समय- समय पर रेल का खाना खाने से लोगों के बीमार होने की खबरें आती रहती हैं।भारतीय रेल बरसों से इन तमाम चुनौतियों से जूझ रही है इसी लिए उसकी अव्यवस्था और बदहाली भी बरसों से राष्ट्रीय चिंता रही है।दुनियां के सबसे बड़ा रेल नेटवर्क का तमगा लिये भारतीय रेल की बदहाली को कुछ इन आंकड़ों से भी समझा जा सकता है।साल 2001-02 में यात्री गाड़ियों की संख्या 8,897 और उन पर होने वाला घाटा 4,955 करोड़ था।अब गाड़ियां बढ़ कर 12,335 से अधिक हो गयी हैं और सालाना घाटा 30000 करोड़ रुपए से अधिक हो गया है।रेलवे में संसाधनों का विकास वाकई बहुत धीमी गति से हो रहा है।आजादी यानी वर्ष 1947 से पहले जहां 53,000 किमी का रूट इसके नाम था जो आजादी के बाद इसमें बामुश्किल 12 हजार किमी का ही इजाफा और हो सका है। भारतीय रेल को पटरी पर लाने के लिए तमाम रेल मंत्रियों ने समितियां बना कर समीक्षा की, लेकिन विडंबना यह है कि सारी सिफारिशें आज भी धूल फांक रही हैं।रेल मंत्री सुरेश प्रभू ने रेलवे में सुधार के लिए तमाम कोशिशों की लेकिन इसके बावजूद वे रेलवे की माली हालत सुधार नहीं पाए हैं।ऐसा तब है जब बीते एक माह में उन्होंने रेलवे की दो सबसे फायदेमंद सेवाओं को पूरी तरह निचोड़ लिया।उन्होने पहले कोयले पर माल भाड़ा बढ़ाया,रेलवे का लगभग 50 फीसदी ढुलाई राजस्व कोयले से ही आता है।जब इससे खास फर्क नही पड़ा तो प्रीमियम ट्रेनों मांग के हिसाब से महंगे किराये बढ़ाने की नीति लागू की गई।इस पर विपक्ष ने बहुत शोरशराबा नही किया तो सरकार ने अर्थशास्त्री बिबेक देबरॉय और मेट्रोमैन श्रीधरन की अध्यक्षता मे जो समितियां बनायी उसकी रिपोर्ट को भी लागू करने का फैसला कर लिया। इन्ही सिफारिशों और नीति आयोग की सलाह पर ही रेल बजट को आम बजट से जोड़ने का बड़ा फैसला लिया गया है। रेल तंत्र में हर स्तर पर सुधार की जरूरत को महसूस करते हुए ही विशेषज्ञों ने कहा कि इसके चरित्र में बुनियादी बदलाव आना चाहिए और अन्य मुल्कों की तरह भारतीय रेलवे को भी नई टेक्नॉलजी और नई इकॉनमी से तालमेल करके चलना चाहिए।लेकिन यह तभी हो सकता है जब इसे पेशेवर नजरिए से चलाया जाए।रेल बजट को आम बजट से जोड़ने की पहल से इसकी शुरुआत हो सकती है। रेल बजट खत्म करने से भारतीय रेलवे सरकार के एक आम मंत्रालय की तरह काम करेगी और इसका काफी सारा तामझाम खत्म हो जाएगा। इसे अनावश्यक तवज्जो नहीं मिलेगी तो इसका सियासी इस्तेमाल अपने आप कम हो जाएगा। रेल मंत्री दबावमुक्त होकर फैसले लेंगे तो रेलवे को कई झंझटों से छुटकारा मिलेगा। अब किराया और मालभाड़ा बढ़ाने के लिए सरकार को रेल बजट का इंतजार करने और संसद की सहमति लेने की जरूरत नहीं रहेगी। देबरॉय समिति ने अपनी सिफारिश में कहा है कि रेलवे अधिनियम, 1989 के तहत इस तरह के फैसले प्रशासनिक कार्रवाई की तरह भी किए जा सकते हैं। रेल बजट की परिपाटी बंद होने से रेल मंत्रालय की स्थिति भी दूसरे मंत्रालयों जैसी होगी। और शायद रेलमंत्री का भी राजनीतिक कद पहले जैसा नहीं होगा। मगर जब कृषि और उद्योग जैसे अर्थव्यवस्था के अन्य बड़े क्षेत्रों के लिए अलग से बजट नहीं आता, और जब रक्षा बजट, रेल बजट से बड़ा होते हुए भी आम बजट के हिस्से के तौर पर आता है, तो रेल बजट को अलग से लाने की परिपाटी बनाए रखने का कोई औचित्य नहीं था। लेकिन सरकार के ताजा फैसले ने जहां रेल मंत्रालय को वित्तीय चिंता से मुक्त किया है, वहीं वित्त मंत्रालय के सिर पर नई चुनौतियां डाल दी हैं।बजटों के विलय के साथ रेलवे अपने सौ साल पुराने इतिहास की तरफ लौटती दिख रही है।1880 से पहले लगभग आधा दर्जन निजी कंपनियां रेल सेवा चलाती थीं।ब्रिटिश सरकार ने अगले 40 साल तक इनका अधिग्रहण किया और रेलवे को विशाल सरकारी ट्रांसपोर्टर में बदल दिया।इस पुनर्गठन के बाद 1921 में एक समिति की सिफारिश के आधार पर स्वतंत्र रेलवे बजट की परंपरा प्रारंभ हुई, जिसमें रेलवे का वाणिज्यिक स्वरूप बनाए रखने के लिए केंद्र सरकार की ओर से रेलवे की लाभांश व्यवस्था तय की गई थी। अब बजट मिलन के बाद रेलवे को कंपनीकरण की तरफ लौटना होगा ताकि इसे वाणिज्यिक और सामाजिक रूप से लाभप्रद और सक्षम बनाया जा सके। रेल बजट का आम बजट में विलय भारतीय रेल को बदलने का आखिरी मौका है।दरअसल, मोदी सरकार पटरियों, स्टेशनों व ट्रेनों के आधुनिकीकरण के लिये भारी धन जुटाना चाहती है।इसमें निजी भागीदारी के अलावा विश्व बैंक से मिलने वाले चार लाख करोड़ रुपये आधुनिकीकरण को अंजाम देने में सहायक होंगे।जापान ने भी एक लाख करोड़ का ऋण बुलेट ट्रेन की महत्वाकांक्षी योजना के लिए देने का वायदा किया है। मगर, यह धन रेलवे की आधुनिकीकरण की जरूरतों के लिये है, अगर रेलवे चालू परियोजाओं को पूरा करना चाहे तो उसके लिए ही रेलवे को पांच लाख करोड़ रुपए चाहिए। जिसमें से अकेले नयी रेल लाइनों के लिए 1.82 लाख करोड़ रुपए की दरकार है।दूसरी तरफ कहा जा रहा है कि रेल बजट के विलय पर कैबिनेट की मुहर के बाद महंगी रेल सेवाओं का युग शुरू होने जा रहा है। रेल किराये और मालभाड़े में सिलसिलेवार बढ़ोत्तरी तय मानी जा रही है। आम जनता को महंगे सफर व महंगाई की मार झेलने के लिए तैयार रहना होगा।ऐसा माना जा रहा है कि रेलवे अब सामाजकि दायित्व के एवज में हजारों करोड़ रुपये का नुकसान सहने के मूड में नहीं है।जाहिा है इससे रेलवे की रियायतों पर कैंची चलने की उम्मीद बढ़ गयी है। यात्री किराये व रियायात के रूप में सामाजिक दायित्व की रेलवे की जिम्मेदारी को लेकर एक समिति के गठन का भी जलदी ऐलान हो सकता है।समिति यह तय करेगी कि रेलवे को इस मद में होने वाले नुकसान को कैसे कम किया जाए।एक आंकड़े के मुताबिक यात्रियों को रियायात देने के मद में रेलवे सालाना 1500 करोड़ रुपये नुकसान सहता है। रेल बजट को आम बजट के साथ पेश करने की केंद्र सरकार के फैसले पर बिहार के मुख्यमंत्री और पूर्व रेल मंत्री नीतीश कुमार सहित कई नेताओं ने असहमति जताई है।।सब की अपनी-अपनी चिंतायें हैं।बहरहाल रेल बजट को आम बजट में समाहित करने के बाद वहां रेलवे को कितनी जगह मिल पाएगी, यह अभी साफ नहीं है।लेकिन इस फैसले को लेकर सबसे बड़ी चिंता यह है कि कहीं इससे रेलवे की पारदर्शिता ही खत्म न हो जाए।लेकिन ये भी तय है कि अब भारतीय रेल को ठोस प्राथमिकताएं तय करने की जरूरत है।अगर ऐसा नहीं हुआ तो तमाम कमेटियों में उलझ कर भारतीय रेल कहीं दिशाहीनता का ही शिकार ना हो जाये।यानी हर बदलाव रिफॉर्म यानी सुधार नहीं होता।वहीं सियासी नेतृत्व और रेल यात्रियों को रेलवे के पुनर्गठन की कुनैन जैसी कड़वी गोली भी चबानी ही पड़ेगी।वहीं मोदी सरकार खास कर वित्त मंत्री अरूण जेटली के लिये भी ये बड़ी चुनौती है कि वह रेलवे के बोझ का बंदोबस्त कैसे करतें हैं।वहीं दूसरी ओर सरकार को इस बात का भी परा ध्यान रखना पड़ेगा कि जनता पर अतिरिक्त बरेझा ना पड़े।
** शाहिद नकवी**

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