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मोदी ने बदला मुसलमानों का नज़रिया

Shahid Naqvi
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संघ के रगं मे गहरे तक रगें नरेन्द्र मोदी ने देश के चुनावी रगंमंच पर आने के बाद जब सब का साथ , सब का विकास का नारा दिया था तो तमाम लोगों के साथ धर्मनिरपेक्षता की आवाज़ उठाने वालों को इस पर सहज भरोसा नही हुआ था।लेकिन संघ के प्रचारक और भाजपा नेता से प्रधानमंत्री बने नरेन्द्र मोदी ने जब हेडगेवार ,गोवलकर और वीर सावरकर को छोड़ कर गांधी,नेहरू और अम्बेडकर के सहारे आगे बढ़ने की कोशिश की तो देश के 81 करोड़ मतदाताओं,जिसमे मुसलमान भी शामिल हैं,को एक नई रोशनी दिखी।इसी लिये नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से भाजपा और मुसलमानों के रिश्ते को ले कर पिछले दो साल मे इतनी बहस हुयी जितनी भाजपा के साढ़े तीन दशक के जीवनकाल मे भी नही हुयी।इसकी खास वजह ये है कि प्रधानमंत्री ने नतीजों के बाद अपनी पहली आम सभा से लेकर लालकिले की प्राचीर तक और देश-विदेश के मंचों से भारतीय मुसलमानों की काबलियत और देश भक्ति की जम कर तारीफ की है।इसी कड़ी मे केरल के कोझिकोड में पंडित दीनदयाल उपाध्याय की 100वीं जयंती के मौके पर उन्होने ये कह डाला कि मुसलमानों को वोट बैंक की मंडी का माल ना समझा जाए।बीजेपी की राष्ट्रीय परिषद को संबोधित करते हुए मोदी यहीं नही रूके और दीनदयाल उपाध्याय के 50 साल पहले के कथन, मुसलमानों को न पुरस्कृत करें न ही तिरस्कृत करें, बल्कि उनको परिस्कृत करें को दोहराते हुए कहा कि मुसलमान घृणा की वस्तु नहीं है उसे अपना समझे।प्रधानमंत्री ने विदेशों मे भारतीय मुसलमानों की राष्ट्रभक्ति पर गर्व और विश्वास करने का संकल्प जताया था।राजस्थान के शिक्षक इमरान खान की प्रतिभा का जिक्र ब्रिटेन मे किया तो कानपुर की नूरजहां के काम की तारीफ की।गौरतलब है कि बीते मार्च में बंगाल के खड़गपुर में एक चुनावी रैली के दौरान पीएम मोदी ने धार्मिक सद्भाव की मिसाल पेश की थी।मोदी के भाषण के दौरान पास के किसी मस्जिद से अजान सुनाई दी, अजान सुनते ही मोदी कुछ पल के लिए खामोश हो गए और अजान खत्म होने के बाद भाषण शुरू किया।उस वक्त मोदी ने कहा था, हमारे चलते किसी की पूजा, प्रार्थना में कोई तकलीफ ना हो इसलिए मैंने कुछ पल विराम दिया।यह तो सही है कि मोदी ने इस बयान के जरिये मुसलमानों के प्रति बीजेपी की सोच स्पष्ट की और विपक्षी दलों पर निशाना साधा।लेकिन ये सवाल फिर खड़ा होता है कि क्या पीएम मोदी और उनकी पार्टी वाकई मुसलमानों की बेहतरी को लेकर संजीदा है।या फिर उत्तर प्रदेश के चुनाव के मद्देनजर केवल एक बयान है।इसे समझने के लिये थोड़ा और पीछे जा कर ढ़ाई साल की कुछ घटनाओं पर भी गौर करना होगा।दरअसल नरेंद्र मोदी की मुसलमानों के प्रति सोच और गतिविधियां लगातार समीक्षा का विषय रहती हैं।
लगातार तीन रमजान बीते जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी परंपरा तोड़ते हुए राष्ट्रपति की इफ्तार पार्टी में शामिल नहीं हुए। भारत में एक सामान्य धारणा है कि यदि कोई नेता इफ्तार पार्टी में शामिल नहीं होता तो वह मुस्लिम विरोधी है परंतु मोदी ने इस धारणा को तोड़ने का काम किया।सनद रहे कि नेहरू जब पीएम थे, तब वे कांग्रेस मुख्यालय में इफ्तार पार्टी की मेजबानी करते थे। 1980 में जब इंदिरा गांधी दोबारा सत्ता में आईं तो पीएम की मेजबानी में इफ्तार पार्टी दी जानी लगी। इंदिरा से लेकर वाजपेयी और मनमोहन सिंह तक हर पीएम ने हर रमजान में 7 रेसकोर्स या प्रेसिडेंट हाउस में इफ्तार पार्टी दी। अटल बिहार वाजपेयी जब पीएम थे तो वे भी इफ्तार पार्टी की मेजबानी करते थे।वह राष्ट्रपति की इफ्तार पार्टी में भी जाते थे। करीब साल भर पहले दादरी की घटना को लेंकर खूब सियासत हुयी और चहुंओर इसकी निंदा भी हुई। लेकिन कई दिनों तक पीएम मोदी खामोश रहे। यहां तक कि राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने इस घटना पर चिंता जता दी। आखि‍रकार मे पीएम मोदी ने इस मसले पर चुप्पी तोड़ी और सांप्रदायिक सद्भाव का जिक्र तो किया लेकिन उनके बयान में दादरी का तनिक भी जिक्र नहीं था।यह घटना अकेली नहीं है, ऐसी कई घटनाएं हैं जब मुसलमानों को निशाना बनाया गया और पीएम मोदी खामोश रहे। मध्य प्रदेश के एक रेलवे स्टेशन पर दो महिलाओं की पिटाई, झारखंड में मवेशियों का व्यापार करने वाले 2 लोगों की हत्या और हिमाचल प्रदेश मे गोरक्षा के नाम एक मुस्लिम युवक की हत्या जैसी घटनाओं पर भी पीएम के तेवर कोझिकोड वाले नही रहे।यहां पर पीएम मोदी का यह कहना कि वे ऐसी राजनीति में विश्वास नहीं करते जो समाज को बांटती हो।वे भारत के 125 करोड़ लोगों के सेवक हैं और इसमें निसंदेह हिंदुस्तानी मुसलमान भी शामिल हैं।बहुसंख्यकों और अल्पसंख्यकों की राजनीति से देश को बहुत नुकसान हुआ है। अल्पसंख्यकों की समस्याओं का समाधान रोजगार और विकास से ही हो सकता है।
इससे सहमत होने के बावजूद कई और बातें हैं जो कोझिकोड और खड़गपुर में दिखाये गये मुस्लिम प्रेम से पीएम मोदी को अलग करती है।हाल मे ही भाजपा के संथापक सदस्य रहे मध्य प्रदेश के मुस्लिम भाजपा नेता आरिफ मोहम्मद का निधन हुआ।स्व. बेग की भाजपा मे सदस्यता क्रमांक 3 था यानी अटल और अडवानी के बाद वह उस दौर मे पार्टी से जुड़े थे ,जब किसी मुसलमान के लिये ये कल्पना करना भी मुश्किल था।कहा जाता है कि इसके बावजूद भी केन्द्रीय भाजपा की ओर से शोक संवेदना व्यक्त काने मे कंजूसी बरती गयी।उत्तर प्रदेश मे 19 फीसदी से अधिक मुसलमान है लेकिन भाजपा की प्रदेश कार्यकारणी मे मुसलमानों का प्रतिनिधित्व नही है।लोकसभा चुनाव मे पार्टी ने देश भर से एक-दो मुस्लिमों को ही टिकट दिया था।वहीं राज्यों मे भी मुस्लिम नेतृत्व का अभाव है।जिन हालातों मे दो साल पहले लोकसभा चुनाव हुये थे तब उदारवादी मुसलमानों को सच में यकीन था कि एक बार सत्ता में आने पर पद की संवैधानिक जिम्मेदारियां मोदी को अल्पसंख्यकों के प्रति पाली हुई अपनी नापसंदगी में बदलाव लाने पर मजबूर कर देंगी।शायद इसी लिये सीएसडीएस के चुनाव सर्वेक्षण यह बताते हैं कि राष्ट्रीय स्तर की चुनावी राजनीति में भाजपा मुसलमानों की पहली पसंद नहीं रही है,लेकिन यह भी सच है कि 2014 के आम चुनावों में भाजपा को मिलने वाला मुस्लिम मत प्रतिशत पिछले लोकसभा चुनावों के मुकाबले तीन प्रतिशत बढ़ा है।
असल में नरेन्द्र मोदी को मुसलिम और दलित प्रेम यूं ही नहीं जन्मा है।दरअसल अपने 36 साल के सफर के बाद भी बीजेपी जनता के बीच अपनी छवि हिन्दू पार्टी से अलग नही कर सकी है।देश के विभिन्न राज्यों मे हुये चुनावों से उसे ये अच्छे से समझ मे आ गया है कि देश की आम जनता भारतीय संविघान के अनुरूप धर्मर्निपेक्ष है । उग्र हिंदुत्वह उसे पहचान तो दिला सकता है लेकिन लम्बे समय तक केन्द्र की कमान नही दिला सकता है। देश की जनता धार्मिक दर्शन और सियासत के बीच के बारीक अंतर को बहुत संजीदगी से समझती है।वहीं देश के मजबूत धर्मनिरपेक्ष ढांचे और आम आदमियों की सोच में आ रहे सकारात्मक बदलाव ने भी धार्मिक दीवारों को कमजोर किया है। सबसे बड़ा फर्क युवा वर्ग की सोच में आया है।गोरक्षा के नाम पर पहले मुसलिमों और बाद में दलितों के साथ भेदभाव भरा व्यवहार किया गया।इसमें राष्ट्रवादी कहे जाने वाले संगठनों का बहुत बड़ा हाथ था।गोमांस के नाम पर कई हिंसक कांड हुये, जिसमें भाजपा ने चुप्पी साध ली थी।जब यह मसले आगे बढ़े तो प्रधानमंत्री ने 80 फीसदी गोरक्षा संगठनों को फर्जी बता दिया।अब दलितों के बाद मुसलिमों की बारी आई।पाकिस्तान के साथ तनाव भरे माहौल में भाजपा पर नैतिक दबाव आने लगा।कहा जा रहा है कि ऐसे में माहौल को हल्का करने के लिये प्रधानमंत्री मोदी ने अपना मुसलिम राग छेड़ दिया।हमेशा से भाजपा की राजनीति का केन्द्र बिंदू मुसलिम विरोध रहा है।देश में मंदिर मस्जिद विवाद के पहले हिन्दू मुसलिम एक साथ गंगा जमुनी सभ्यता के साथ रहते थे।अयोध्या में विवादित ढांचा ढहाये जाने के बाद देश में साम्प्रदायिक माहौल खराब हुआ।मुम्बई का बम विस्फोट ऐसी पहली बड़ी घटना थी जिसने इस दूरी को आतंकवाद से जोड़ दिया।इसके बाद देश में होने वाली आतंकी घटनायें बढ़ने लगी।देश विरोघी ताकतों को मजहबी दूरी बढ़ाने में मदद मिली,वह इस दूरी के बहाने देश को आतकवाद के मुहाने पर ले आये।भाजपा वोट के धुव्रीकरण का आरोप कांग्रेस और दूसरे दलों पर लगाती है।सच यह है कि खुद भाजपा कांग्रेस और दूसरे दलों की तरह ही वोट बैंक की परिपाटी पर ही चलती रही है।सत्ता में आने के बाद मुस्लिम नेता,सोशल वर्कर्स, धर्मगुरु और शिक्षाविदों से कई बार की मुलाकात के बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को एक के बाद एक इस बात का आभास होने लगा है कि देश की एकता और अखंडता के लिये दलित और मुसलिम भी बेहद जरूरी हैं।इनको साथ लेकर चले बिना देश का विकास संभव नहीं है।आंकड़ें भी गवाह हैं कि अगर मुस्लिम एक जुट हो कर वोट करतें हैं तो भाजपा को सीधा नुकसान होता है।इसी लिये वह अक्सर बदले नजर आते है़।लेकिन मुश्किल बात यह है कि यह सच प्रधानमंत्री तो समझ गये, पर उनसे जुडे फायर ब्रांड वक्ता और तमाम संघठन यह बात समझे तो बात बने। अब सवाल पैदा होता है कि मुसलमानों के मामले मे एक कदम आगे और दो कदम पीछे चलने वाली भाजपा पर आखिर मुसलमान कैसे और क्यों भरोसा करें ! लेकिन जब तक इस तरह के बयान लगे बंधे दायरों में जारी होते रहेंगें,तब तक राजनीतिक विमर्श भी हिंदू-मुस्लिम सीमितताओं में बंधा रहेगा।इसलिए यह भी ज़रुरी है कि राजनीति और नीति दोनों के स्तर पर मुस्लिम विविधताओं और बदलते मुस्लिम समाज के नए सवालों पर चर्चा हो।यहां एक बात और साफ कर देना जरूरी है कि मुस्लिम धार्मिक रुझानों के विषय में हुए सीएसडीएस के हाल के राष्ट्रीय सर्वेक्षण में यह बात सामने आई है कि भारत में 60 प्रतिशत से ज्यादा मुसलमान अपनी रोज़मर्रा की जिंदगी के मसलों (जिनमे वोट डालना भी शामिल है) के लिए मज़हबी रहनुमाओं से न तो कोई मशवरा करते हैं और न ही उनकी राजनीतिक सलाहों पर कोई ख़ास तवज्जो देते है।लेकिन यहां ये भी तय है कि हिंदुस्तान का मुसलमान उस मायनों में वोट बैंक नहीं है जिस मायने में अमरीका के अश्वेत, डेमोक्रेटिक पार्टी के हैं या फिर ब्रितानिया के अल्पसंख्यक समूह वहाँ की लेबर पार्टी के वोट बैंक हैं।ऐसे मे भाजपा और पीएम मोदी को मुसलमानों का भरोसा जीतने के लिए अपना दिल ज़रा बड़ा करना चाहिए।
** शाहिद नकवी **

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