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हुसैन का भारत से दिल और दर्द का सम्बंध

Shahid Naqvi
Shahid Naqvi
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कर्बला हमारे लिए एक अमर आदर्श है।क्यों कि दसवीं मोहर्रम की घटना, इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का आंदोलन, और अन्य धार्मिक अवसर इस्लामी इतिहास का वह महत्वपूर्ण मोड़ हैं जहां सत्य और असत्य का अंतर खुलकर सामने आ जाता है। इमाम हुसैन के बलिदान से इस्लाम धर्म को नया जीवन मिला और इसके प्रकाशमान दीप को बुझा देने पर आतुर यज़ीदियत को निर्णायक पराजय मिली। इस घटना में अनगिनत सीख और पाठ निहित हैं।दरअसल हजरत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की कुर्बानी हमें अत्याचार और आतंक से लड़ने की प्रेरणा देती है। इतिहास गवाह है कि धर्म और अधर्म के बीच हुई जंग में जीत हमेशा धर्म की ही हुई है। चाहे वह भगवान राम हों,अर्जुन हों या फिर हजरत पैगंबर सल्ल. के नवासे हजरत इमाम हुसैन, जीत हमेशा धर्म की ही हुई है। तभी तो इस्लामी कैलेंडर का पहला महीना अर्थात् मोहर्रम शुरु होते ही भारत सहित पूरे विश्व में क़रबला की साढ़े 14 सदी पूर्व की दास्तां दोहाराई जाती है।यानी हज़रत मोहम्मद के नाती हज़रत इमाम हुसैन व उनके परिवार के सदस्यों का तत्कालीन मुस्लिम सीरियाई शासक की सेना के हाथों मैदान-ए-करबला में बेरहमी से कत्ल किये जाने की दास्तां।कर्बला के मैदान मे सत्य के लिए जान न्योछावर कर देने की जिंदा मिसाल बने इमाम हुसैन ने तो जीत की परिभाषा ही बदल दी। कर्बला में जब वे सत्य के लिए लड़े तब सामने खड़े यजीद और उसके 60 हजार से अधिक सैनिक के मुकाबले ये लोग महज 123 जिसमे 72 मर्द-औरतें और 51 बच्चे थे। इतना ही नहीं, इमाम हुसैन के इस दल में तो एक छह माह के बच्चे अली असगर भी शामिल थे। उस समय के आतंकवादी रूपी सीरियाई शासक यजीद जो खुद को इस्लाम का पैरोकार कहता था ने, क्रूरता की वह सारी हदें पार कर दीं जिसे सुन कर इंसानियत आज भी कांप उठती है।यजीद की फौज ने पैगम्बर स.स. के नवासे के काफिले को बेरहमी से कुचल डाला।इमाम हुसैन के बेटे अली अकबर सीने में ऐसा भाला मारा गया की उसका फल उसके कलेजे में ही टूट गया।मासूम बच्ची सकीना को तमाचे मार-मार कर इस तरह से उसके कानो से बालियाँ खींची गयी के उनके कान के लौ कट गए।अनैतिकता की हद तो यह थी कि शहीदों की लाशों को दफन तक न होने दिया।यजीद यहां पर भी नही रूका और हज़रत मोहम्मद के 80 वर्षीय मित्र हबीब इब्रें मज़ाहिर का भी कत्ल कर दिया।इतिहासकार लिखतें हैं कि शहीदों के सरों को काट कर भालों की नोक पर रख़ा गया था। जबकि उनके धड़ और लाशों को घोड़ों की नालों से कुचल दिया गया और उन्हें बगैर दफ़न के छोड़ दिया गया। इमाम की अग्नि परीक्षा की समाप्ती यहाँ नहीं हुई, बल्कि उनकी औरतों और बच्चों को बंदी बना कर उनपर भरपूर अत्याचार किया गया। बाद मे उन्हें कर्बला से दमिश्क (सीरिया) तक की कठिन यात्रा पर ले जाया गया। जहाँ उन्हें एक साल से भी अधिक समय तक बंदी बना कर रख़ा गया।इन बंदियों में कर्बला में बचे केवल एक पुरुष थे जो इमाम हुसैन के पुत्र इमाम जैनुल आबेदीन थे।उनके बच जाने का कारण उनकी बीमारी थी जो कर्बला में अधिकतर बेहोशी की हालत में थे।इस बीमार इमाम पर कर्बला के जंग के बाद उनकी बेहोशी, बीमारी और कमजोरी की हालत में बार बार जुल्म किया गया।शायद इसी लिए कई इतिहासकारों का मानना है कि करबला मे इस्लामी आंतकवाद की पहली इबारत लिखी गयी। यज़ीद एक दमनकारी शासक था, खुले आम अपनी पापी गतिविधियों में लिप्त था, जैसे शराब पीना, निर्दोष लोगों को डराना और उनकी ह्त्या करना और विद्वानों का मजाक उड़ाना। फिर भी अपने वह आप को सही उत्तराधिकारी घोषित करता था और मुस्लिम समाज के नेता होने का दावा करता था। इसके दमन और सैन्य बल के कारण, भयभीत समाज चुप था और डर के कारण कुछ नहीं कर पाता था।यज़ीद ने इमाम हुसैन से कहा के उसकी बययत करें यानी उसके प्रति अपनी निष्ठा साबित करें।इमाम ने ये कह कर बययत से इंकार कर दिया कि हम पैगंबर के घराने से अहलेबैत हैं, जो पैगम्बरी को स्त्रोत है। मेरे जैसा कोई भी शख्स यजीद जैसे किसी भी शख्स के प्रति निष्ठा नहीं साबित कर सकता है।बल्कि मौत को आनंदपूर्वक शहादत की तरह देख सकता हूँ। इमाम हुसैन नें जिस मूव्मेंट की शुरुआत की वह केवल यह नहीं थी कि घर से निकलो, मैदान में जाओ और शहीद हो जाओ बल्कि इमाम बहुत बड़े मक़सद के लिये निकले थे।इमाम का मक़सद केवल शहादत नहीं थी,बल्कि वह इस्लाम के बचाव के लिए यजीद के मुकाबले मे आये थे।उन्होने यज़ीद के सारे गलत कार्यों को उजागर कर दिया और बताया की सत्य की विजय कैसे होती है।सत्य पर रहने वाले कैसे होते हैं।कहते हैं कि इमाम हुसैन ने यजीद की अनैतिक नीतियों के विरोध में मदीना छोड़ा और मक्का गए। उन्होंने देखा कि ऐसा करने से यहाँ भी खून बहेगा तो उन्होंने भारत आने का भी मन बनाया लेकिन उन्हें घेर कर कर्बला लाया गया और यजीद के नापाक इरादों के प्रति सहमति व्यक्त करने के लिए कहा गया।इस्लामिक इतहास में, अल हुसैन इब्ने अली ने एक शानदार अध्याय लिखा। यह अध्याय ऐसा है जो 14 सदियों के बाद भी मानवता के दिलो दिमाग पर आज भी गूंजता है।शयद एक आधुनिक मुस्लिम लेखक की यह टिपण्णी सही जान पड़ती हैं कि कर्बला हर साल इस्लाम का नवीनीकरण करती है। अपने समय का महान ब्रिटिश इतिहासकार एडवर्ड गिब्बन ने अपनी पुस्तक डेकलाईन एंड फौल आफ रोमन अम्पाएर लन्दन के वोलूम 5 मे उसने लिखा, किसी भी समय और बदले हुए दौर के लिए हुसैन अ:स की दुखद मौत का दृश्य, कड़े से कड़े दिल के पाठक के दिल में उनके लिए सहानुभूति जगाने के लिए काफी है।महात्मा गांधी ने 1924 में अपनी लेखनी यंग इंडिया में कर्बला की जंग को ऐसे दर्शित करते हुए लिखा, मै उसके जीवन को अच्छी तरह समझना चाहता हूँ, जो मानवजाति में सर्वोत्तम है और मानवता के लाखों दिलों पर एक निर्विवादित राज किया करता है, हुसैन की निर्भीकता,इश्वर पर अटूट विश्वास और स्वयं को बलि पर चढ़ा कर हुसैन ने इस्लाम को बचा लिया। झांसी की रानी महारानी लक्ष्मी बाई को इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम से असाधारण आस्था थी। प्रोफेसर आर शबनम ने अपनी पुस्तक भारत में शिया और ताजिया दारी मैं झांसी की रानी के संबंध में लिखा है कि यौमे आशूरा और मुहर्रम के महीने में लक्ष्मी बाई बड़े आस्था के साथ मानती थी और इस महीने में वे कोई भी ख़ुशी वाले काम नहीं करती थी।इससे जाहिर है कि हिंदुस्तान के सभी धर्मों में हज़रत इमाम हुसैन से अकीदत और प्यार की परंपरा रही है। कर्बला की महान त्रासदी ने उदारवादी मानव समाज को हर दौर में प्रभावित किया है।यही कारण है कि भारतीय समाज में हज़रत इमाम हुसैन की याद न केवल मुस्लिम समाज में रही है बल्कि ग़ैर मुस्लिम समाज में मानवता के उस महान नेता की स्मृति बड़ी श्रद्धा के साथ मनाई जाती है। भारतीय सभ्यता जिसने हमेशा मज़लूमों का साथ दिया है कर्बला की महान त्रासदी से प्रभावित हुए बगैर ना रह सकी।राजस्थान ,मध्य प्रदेश और बंगाल की पूर्व देसी रियासतों में इमाम हुसैन को अकीदत के साथ याद किये जाने की परंपरा मिलती हैं। प्रेमचंद का प्रसिद्ध नाटक ‘कर्बला’ सही और गलत से पर्दा उठाता है। इसी तरह उर्दू साहित्य में ऐसे हिंदू कवियों की संख्या बहुत अधिक है जिन्होने अपनी रचनाओ में कर्बला के बारे में जिक्र न किया हो।जिनमे बी दास मुंशी चखनो लाल दलगीर, राजा बलवान सिंह, दिया किशन, राजा उल्फत राय, कंवर धनपत राय, खनोलाल जार, दलोराम कौसर, नानक लखनवी, मिनी लाल जवान, रूप कुमारी, मुंशी गोपीनाथ शांति, बावा कृष्ण मगमोम, कंवर महेंद्र सिंह बेदी सहर, कृष्ण बिहारी, डॉ. धर्मेंद्र नाथ, महेंदरसिंह अश्क, बाँगेश तिवारी, गुलज़ार देहलवी आदि का नाम लिया जा सकता है।इन्होने इमाम हुसैन की अक़ीदत में बहुत से कविताये लिखी है जिस में उन का अक़ीदा झलकता है।
कर्बला पर गौर करने के बाद ये साफ हो जाता है कि मोहम्मद साहब ने जो इस्लाम दिया था वह ज़ुल्म और दहशतगर्दों का इस्लाम नहीं बल्कि अमन शांति और सब्र का इस्लाम है।आज के दौर मे फिर आतंकवात ने पंख फैला लिये हैं,इस्लाम की नई परिभाषा गढ़ कर बेगुनाहों का कत्ल किया जा रहा है।महिलाओं की आबरू लूटी जा रही है,लोगों को बेघर किया जा रहा है।मानवता और मुल्कपरस्ती तार-तार हो गयी है तो क्या इमाम हुसैन का बलिदान आज फिर प्रेरण नही बन सकता है।बन सकता है लेकिन यहां तो सत्ता पाने की चाहत मे खून खराबा हो रहा है।इस्लाम का चेहरा लगाये यें लोग पैगम्बर के इस्लाम को नाहक बदनाम कर रहे हैं।हालाते ज़माना का जायज़ा लिया जाये तो हर दौर के हालात इमाम हुसैन अलैहिस सलाम की कामयाबी का ऐलान कर रहे हैं। यज़ीद कामयाब होता तो उस की कामयाबी के असरात होते लेकिन आज न उस की क़ब्र का निशान है न उस के ज़ायरीन हैं, न कोई उस का नाम लेवा है, न उस की बारगाह है, न उस का तज़किरा है। इमाम हुसैन अलैहिस सलाम आज भी हर तरह से फ़तह और कामयाब हैं, हर मुहर्रम उन की फ़तह का ऐलान करता है।हर हक उन ही के गिर्द चक्कर लगाता है। हर जालिम उन ही के नाम से घबराता है।हर सिपाही को उन ही से जिहाद का हौसला मिलता है, ग़रीबों को सहारा और हर निहत्थे इंसान के लिये उन की दास्तान हथियार का काम करती है। उनकी ज़िंदगी प्रेरणा का एक स्त्रोत है।
** शाहिद नकवी **

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