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तीन तलाक पर लगाम की जरूरत

Shahid Naqvi
Shahid Naqvi
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तलाक वह भी तीन बार, किसी भी शादीशुदा मुस्लिम महिला के लिए ये ऐसे शब्द हैं जो एक ही झटके में उसकी जिंदगी के मायने को बदलने की कुव्वत रखते हैं।आजकल इसके अलावा बहुविवाह, मुस्लिम पर्सनल ला, हिंदू कोड बिल और समान नागरिक संहिता ये वो शब्द हैं जो आपके कानों में जोरदार तरीके से गूंज रहे हैं।गौरतलब है कि ये शब्द पिछले ढ़ाई साल के दौरान कई बार राजनीतिक सत्ता के जरिये उछाले जा चुकें हैं।जम्मू कश्मीर मे चुनाव के समय इसमे धारा 370 का भी नाम था।फिर बिहार चुनाव के समय भी इनकी गूंज सुनायी पड़ी।अब जबकि उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव की दहलीज़ पर खड़ा है तो ये एजेंडा एक बार फिर विकास पर भारी पड़ता दिख रहा है।शायद इसी लिये अब सुप्रीम कोर्ट के पूछने पर केंद्र सरकार ने साफ कर दिया है कि वह तीन बार तलाक-तलाक की प्रथा का विरोध करती है और उसे जारी रखने देने के पक्ष में नहीं है।सरकार का दावा है कि उसका ये कदम देश में समानता और मुस्लिम महिलाओं को उनके संवैधानिक अधिकार दिलाने के लिए है। सरकार ये भी कह रही है कि ऐसी मांग खुद मुस्लिम समुदाय के भीतर से उठी है क्योंकि मुस्लिम महिलाएं लंबे समय से तीन तलाक के खिलाफ आवाज उठाती आ रही हैं।कुल मिलाकर केन्द्र सरकार इस समय तलाक के मुद्दे पर खुद को मुस्लिम महिलाओं के मसीहा के तौर पर पेश कर रही है।आजाद भारत के इतिहास में पहली बार केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में मुस्लिमों के तीन तलाक, ‘निकाह हलाला’ और बहुविवाह का यह कहते हुए विरोध किया है कि ये लैंगिक समानता और सेक्युलरिजम के खिलाफ है।दरअसल आजादी के 68 साल बाद भी देश मे यूनिफॉर्म सिविल कोड पर रजामंदी नहीं बन पाई है।लेकिन मोदी सरकार ने लॉ कमीशन को इस कोड को लागू करने के लिए सभी पहलुओं पर गौर करने को कहा है।ये भी पहली बार हो रहा है कि केंद्र की सरकार ने लॉ कमीशन को ऐसा करने को कहा है।बता दें कि देश में यह मामला पहली बार 1840 में उठा था।लेकिन इस मसले पर मोदी सरकार की तर्त्पता से उसकी नियत पर सवाल उठने लगे है।मुसलमानों के बड़े तबके के साथ-साथ देश की सेक्यूलर जमात को भी शक है कि इसके पीछे राजनीतिक मंशा नही है?मदरसा संचालकों,उलेमाओं और मुस्लिम बुद्धिजीवियों का साफ कहना है कि पिछले ढ़ाई साल मे केन्द्र सरकार ने मुस्लिम महिलाओं के उत्थान के लिये कागजी प्रयास तक नही किये।उनकी शिक्षा,स्वास्थ्य,रोजगार के बुनियादी हक पर ध्यान ना देने वाली सरकार सीधे तीन तलाक और निकाह की लड़ाई कैसे लड़ती दिख रही है।लेकिन ये भी एक बड़ा सवाल है कि क्या सच मे ये मामला इतना सीधा है जितना दिख रहा है?
तीन तलाक पर एआईएमपीएलबी और सुप्रीम कोर्ट की तकरार के बाद मुस्लिम समाज भी बंटता नजर आ रहा है।बड़ी संख्या में उलेमा और अल्पसंख्यक संगठन तीन तलाक के समर्थन में हैं तो दूसरी ओर महिलाओं और समाज के एक तबके की नजर में यह पक्षपातपूर्ण है।गौरतलब है कि सरकार ने 7 अक्टूबर को सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा देकर कहा है कि संविधान में तीन तलाक की कोई जगह नहीं है। मर्दों की एक से ज्यादा शादी की इजाजत संविधान नहीं देता और तीन तलाक और बहुविवाह इस्लाम का अनिवार्य हिस्सा नहीं है।संविधान के अनुसार देश में सभी नागरिकों के लिए एक समान क्रिमिनल लॉ है।लेकिन शादी, तलाक, मेनटेनेंस, उत्तराधिकार एवं गिफ्ट के बारे में मुस्लिम समुदाय अपने पर्सनल लॉ से संचालित है, जिसे 1937 के कानून से मान्यता मिली है।वहीं संविधान के अनुच्छेद-44 के तहत समान नागरिक संहिता बनाने के बारे में पिछले 30 वर्षों से विवाद है जिसे सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद लागू करने के लिए केंद्र सरकार ने विधि आयोग को निर्देश दिया है।अंग्रेजी शासन काल में सती-प्रथा तथा बाल-विवाह पर बंदिश के कानून का हिंदू कट्टरपंथियों द्वारा विरोध हुआ था।लेकिन आजादी के बाद बाबा साहब अंबेडकर जैसे प्रगतिशील लोगों के कारण हिंदू सिविल कानून भी कट्टरपंथियों के विरोध के बावजूद पारित हुआ।इसी लिये दलील दी जा रही है कि मुस्लिम महिलाओं के हक मे तीन तलाक क्यों समाप्त नही हो सकता है।जबकि सुप्रीम कोर्ट ने 2002 में लिली थॉमस मामले में कहा था कि समान नागरिक संहिता क्रमिक तरीके से ही होना चाहिए।कहा जा रहा है कि मुस्लिम पर्सनल लॉ को आधुनिक समाज में महिलाओं की समानता के अनुसार कानून बद्ध करके अदालतों में न्याय की व्यवस्था होने से इसकी शुरुआत हो सकती है।उधर मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड 2005 के मॉडल निकाहनामे का हवाला तो देता है लेकिन तीन तलाक के विरोध में सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा देने से साफ इंकार करता है।वहीं भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन को सुप्रीम कोर्ट में पक्षकार बनने के लिए 50,000 मुस्लिम महिला और प्रगतिशील पुरुषों के समर्थन का भी कोई असर नही होता।व्हॉट्सएप्प, ट्विटर, ई-मेल द्वारा आधुनिक तकनीक से दिए गए तीन तलाक को मानने वाले मुस्लिम संगठन विवाह की न्यूनतम आयु एवं पंजीकरण के आधुनिक कानून पर भी सहमत क्यों नहीं होते?जबकि सोती हुई या मायके मे रह रही पत्नी को पति द्वारा तीन बार तलाक बोलने से होने वाले तलाक को देश मे ही मुसलमानों के कुछ फिरकें भी स्वीकार नहीं करते और पाकिस्तान समेत 22 इस्लामिक मुल्क इसे बैन कर चुके हैं।इसी लिये सरकारी पक्ष के हिमायती सवाल उठा रहें हैं कि रूढ़िवादी मुस्लिम संगठन सुधरने को तैयार क्यों नहीं है?
पिछले साल अक्टूबर में उत्तराखंड के देहरादून की 35 साल की एक शायरा बानो की दुनिया उजड़ गई तो तीन तलाक को ले कर सारे देश मे नये सिरे से बहस शुरू हो गयी।हुआ यूं कि उनके पति इलाहाबाद में रहते हैं और वे उत्तराखंड में अपने माता-पिता के घर इलाज के लिए गई थीं। तब उन्हें पति का तलाकनामा मिला, जिसमें लिखा था कि वे उनसे तलाक ले रहे हैं।अपने पति से मिलने की उनकी कोशिश नाकाम रही थी।शायरा बानो को उनके शौहर ने एक पत्र के जरिए सूचित किया कि उसने उन्हें तलाक दे दिया है।यह पत्र 10 अक्टूबर, 2015 को लिखा गया था,उन्हें उनके पति ने फोन पर बताया कि कुछ जरूरी कागज भेज रहा हूं। मगर जब शायरा ने इन कागजात को खोलकर देखा तो यह तलाकनामा था।इस पत्र में कई बातों के अलावा यह साफ-साफ लिखा था, शरीयत की रोशनी में यह कहते हुए कि मैं तुम्हें तलाक देता हूं, तुम्हें तलाक देता हूं, तुम्हें तलाक देता हूं, इस तरह तीन तलाक कहते हुए मैं आपको अपनी जौजियत (पत्नि की हैसियत) से खारिज करता हूं।इन सबसे निराश शायरा बानो ने फरवरी में सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की। सुप्रीम कोर्ट में 23 फरवरी 2016 को दायर याचिका में शायरा ने गुहार लगाई है कि ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के तहत दिए जाने वाले तलाक-ए-बिद्दत यानी तिहरे तलाक, हलाला और बहुविवाह को गैर-कानूनी और असंवैधानिक घोषित किया जाए।कुछ ऐसा ही किस्सा 28 साल की रहमान आफरीन के साथ हुआ।आफरीन उत्तराखंड के काशीपुर की रहने वाली हैं।शायरा बानो के बाद आफरीन देश की दूसरी मुस्लिम महिला हैं जो इस तरह तीन तलाक के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट पहुंची हैं।शायरा बानो और आफरीन का यह किस्सा केवल उनका नहीं बल्कि न जाने कितनी और उन मुस्लिम औरतों का दर्द बयां करता है जो तिहरे तलाक या हलाला का सामना कर चुकी हैं।तमिलनाडु के त्रिची की रहने वाली मरियम और उत्तर प्रदेश के सिध्दार्थनगर की तस्नीम को उनके शौहर ने वॉट्सऐप के जरिए तलाक देकर सड़क पर ला दिया।भारतीय मुसलिम महिला आंदोलन ने 4710 महिलाओं पर किए एक सर्वे में पाया कि इनमें 525 औरतें तलाकशुदा थीं। इनमें से 346 औरतों को सिर्फ बोल कर ही तलाक दे दिया गया था। 40 महिलाओं को चिट्ठी और तीन को ईमेल के के जरिए तलाक दिया गया था। गौरतलब है कि भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में बहुविवाह को एक कुरीति माना गया है।हालांकि यहां यह सिर्फ मुसलमानों के लिए कानूनन जायज है।दुर्भाग्य से इक्कीसवीं सदी में भी ऐसी प्रथा को कानूनी मान्यता मिली हुई है जिससे मुस्लिम महिलाओं को सामाजिक, आर्थिक, नैतिक, शारीरिक और भावनात्मक खतरा होता है।हमारे पड़ोसी देश श्रीलंका में तकरीबन 10 फीसदी मुस्लिम आबादी है,वहां का कानून तुरंत तलाक वाले किसी नियम को मान्यता नहीं देता।मिस्र पहला देश था जिसने सन 1929 में कानून के जरिए घोषणा की कि तलाक को तीन बार कहने पर भी उसे एक ही माना जाएगा और इसे वापस लिया जा सकता है।वहीं 1935 में सूडान ने भी कुछ और प्रावधानों के साथ यह कानून अपना लिया।आज ज्यादातर मुस्लिम देश ईराक से लेकर संयुक्त अरब अमीरात, जॉर्डन, कतर और इंडोनेशिया तक ने तीन तलाक के मुद्दे पर इस विचार को स्वीकार कर लिया है।इस्लाम में तलाक देने के तीन तरीके तलाक-ए-हसन, तलाक-ए-अहसन और तलाक-ए-बिद्अत चलन मे हैं।दरअसल एक साथ तलाक, तलाक, तलाक का मामला तलाक-ए-बिद्अत की पैदावार है।मुसलमानों के बीच तलाक-ए-बिद्अत का ये झगड़ा 1400 साल पुराना है, जबकि भारत में मुस्लिम पर्सनल लॅा के झगड़े की नींव 1765 में पड़ी।तलाक-ए-हसन और तलाक-ए-अहसन यानी तलाक देने के सही तरीके पर सब एक राय है,तकरार तलाक-ए-बिद्अत पर है ? इस्लाम में शादी जन्म-जन्मांतर का बंधन नहीं होता है, बल्कि एक अहदो पैमान यानि पक्का समझौता होता है, जो एक मर्द और एक औरत की आपसी रज़ामंदी के बाद करार पाता है।इस्लाम ने पति-पत्नी को इस कॉन्ट्रैक्ट को निभाने के लिए सैकड़ों हिदायतें दी हैं और इसे तोड़ने से मना किया है।इस्लामी शरीअत में इसकी भरपूर कोशिश की गई है कि औरत और मर्द जब एक बार रिश्त-ए-निकाह में जुड़ गए हैं तो एक खानदान बनाएं और आखिरी वक़्त तक इसको कायम रखने की पूरी कोशिश करें।कुरआन ने निकाह को मजबूत समझौता करार दिया है।
इस्लामी जानकार कहते हैं कि तलाक-ए-बिद्दत या एक साथ तीन बार तलाक कहकर तलाक देने की प्रक्रिया यह सुनिश्चित करने के लिए शुरू की गई थी कि जहां जोड़े के बीच कभी न सुधरने की हद तक संबंध खराब हो चुके हैं,वहां तुरंत तलाक हो जाए। इस्लाम में प्रचलित विचारधारायें हनफी, मलिकी, हंबली और शाफेई इस प्रक्रिया पर सहमति जताती हैं।लेकिन ज़िंदगी के सफर में उतार चढाव आते रहते हैं, और कभी कभी ऐसे भी हालात बन जाते हैं कि निबाह के तमाम रास्ते बंद हो जाते हैं तो ऐसी स्थिति में इस्लाम ने शादी को तोड़ने करने की इजाजत दी है। लेकिन सख्त ताकीद के साथ कि जब साथ-साथ रहने की बिल्कुल कोई सूरत बाकी नहीं हो तभी शादी तोड़ी जाए। इसलिए इस्लाम में जायज़ कामों में तलाक को सबसे बुरा काम कहा गया है।तीन तलाक के प्रावधान सरकार बदले या अदालत इसके लिये भी मुस्लिम महिलाओं का एक तबका तैयार नही दिखता है। एआईएमपीएलबी से जुड़ी अस्मा जेहरा और साफिया नसीम जैसी महिलाओं का मानना है कि बड़े पैमाने पर महिलाएं कुरान में उल्लिखित नियम और कानून का पालन करने की पक्षधर हैं। निकाह में सबसे पहले वधू की रजामंदी स्वीकार की जाती है। इसी तरह पुरुष तीन बार तलाक बोलकर अपने वैवाहिक संबंध समाप्त कर सकता है।महिलाओं को भी इस तरह का अधिकार दिया गया है।वे खुला या फसख-ए-निकाह बोलकर शादीशुदा जिंदगी से किनारा कर सकती हैं।वह ये भी कहती है कि मुस्लिम महिलाएं शरीयत कानून में किसी भी तरह की दखलंदाजी को कतई बर्दाश्त नहीं करेंगी।दरअसल सरकार को ऑल इंडिया मुस्लिम वीमेंस पर्सनल लॉ बोर्ड की अध्यक्ष शाइस्ता अंबर जैसों का भी साथ मिलता नही दिख रहा है।लेकिन पूर्व सांसद सुहासिनी अली,सामाजिक कार्यकर्ता शबनम हाशमी,शगुफ्ता नकवी,डा.तबस्सुम और बीएमएमए की सह-संस्थापक नूरजहां सफिया नियाज़ जैसी महिलाओं का मानना है कि जुबानी तलाक एक गलत प्रथा है और महिलाओं के सम्मान के लिए इसे खत्म करना जरूरी है।एक दिक्कत ये भी है कि देश मे मुस्लिमों को प्रतिनिधित्व देने वाली सर्वमान्य संस्था का भी अभाव है जिसे वास्तव में बहुसंख्यक मुसलमानों का आदर व समर्थन प्राप्त हो।जहां तक मेरा ख्याल है कि स्त्रियों को शिक्षा, उनको समान अवसर तथा पुरुषों की समकक्षता से धर्म की हानि नहीं, बल्कि उन्नयन होगा, जो पंथ दीवाल पर लिखी इबारत को नहीं पढ़ पाता उसकी प्रगति अवरुद्ध हो जाती है।30 साल पहले शाहबानो मामले में कट्टरपंथी विजयी हुए थे पर शायरा बानो के हक की लड़ाई में प्रगतिशील तबके को आगे आना ही होगा। वरना चुनावी राजनीति में मुस्लिम समुदाय वोट बैंक के तौर पर तथा महिलाएं इसके बीच पिसने लिए अभिशप्त रहेंगीं।गौरतलब है कि भारत में कई तरह के पर्सनल कोड हैं,यहां कई तरह के रीति-रिवाज हैं, जिनसे लोगों की भावनाएं जुड़ी हैं जिसमे बदलाव मे अभी वक्त लगेगा।इस लिये पहले जरूरी है कि समान संहिता बनाने की बजाए अपने-अपने सम्प्रदाय तथा धर्म में कुरीतियों, अन्याय तथा विभेदकारी कानूनों को समाप्त करने की पहल होनी चाहिए तथा स्त्रियों को उनका उचित हिस्सा दिलाने का प्रयास किया जाना चाहिए ।
** शाहिद नकवी **

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