Menu
blogid : 17405 postid : 1286421

राजनीति के चौपड़ पर दलबदलते मोहरे

Shahid Naqvi
Shahid Naqvi
  • 135 Posts
  • 203 Comments

उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव जैसे-जैसे नजदीक आ रहे हैं, वैसे दल और
निष्ठा बदलने का खेल तेज हो गया है।मोहरों को अपने पाले में लाने के
जोड़-जतन मे सभी राजनीतिक दल मशगूल है।या यूं कहें कि इसके जरिये
राजनीतिक दलों के बीच शह-मात का खेल आधिकारिक रूप से चुनावी प्रक्रिया
में घुसने के पहले की उठापटक है। जिसमें उत्तर प्रदेश के राजनीतिक दल एक
दूसरे दल के नेताओं को तोड़ने-फोड़ने के काम में लग गए हैं।वैसे यह एक
तरह का मनोवैज्ञानिक दांव है जिसे राजनीतिक पार्टियां चुनावों से पहले
खूब आजमाती हैं।क्यों कि दूसरे दलों के नेताओं को अपने साथ जोड़ कर ये
दल जनता को ये संदेश देना चाहते है कि उनके पक्ष में लहर चल रही है इस
लिये अन्य दल के नेता उनकी ओर भाग रहे हैं।चुनाव के सीजन मे नेताओं का मन
विचलित हो जाना कोई बड़ी बात नही है।डूबते जहाजों को छोड़ कर उगते सूीज
को सलामी देना अब नेताओं की फितरत हो गयी है।क्यों कि भारतीय राजनीति में
आचरण की ईमाानदारी और वैचारिक प्रतिबद्धता का लोप हुए बहुत लंबा अरसा बीत
चुका है।इस लिये आधुनिक होती राजनीति और तेजी से बदलते उसके रंग मे
व्यक्तिगत या सामूहिक दल-बदल की खबरें अब किसी को भी चौंकाती या हैरान
नहीं करती हैं।पिछले एक महीने से उत्तर प्रदेश मे अवसरवाद और मूल्यहीनता
का खुला खेल चल रहा है जिसमें अनुशासित, कैडर बेस और वैचारिक होने का
तमगा लिये भाजपा सबसे आगे दिखाई दे रही है। विधानसभा चुनाव 2012 में
बाबूसिंह कुशवाहा को शामिल करने के बाद मचे बवाल, चुनाव में मिली करारी
शिकस्त और फिर दिल्ली मे चित होने के बाद भाजपा नेताओं ने दलबदलुओं को
गले न लगाने की कसमें खाई थीं।अब सत्ता की चाहत या कांग्रेस मुक्त भारत
केे अपने अभियान में एक बार फिर भाजपा उसे भूलती दिख रही है।गौरतलब है कि
अमित शाह के युग मे मन बदलने वाले नेताओं के लिये भाजपा ने अपने दरवाजे
सब के लिये आसानी से खोल दिये हैं। इसी का नतीजा है कि 2014 के लोकसभा
चुनाव केे पहले से दलबदलुओं का भाजपा का दामन थामने का सिलसिला जो चला,
वह उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव की चहल पहल के साथ और तेज हो गया
है।राजनीति मे बहुत गुणी मानी जाने वाली रीता बहुगुणा जोशी एक दिन पहले
तक राहुल गांधी की सिपाही रहती हैं। लेकिन अगले दिन वह बीजेपी अध्यक्ष
अमित शाह की शरण में चली जाती हैं जिनकी वह धुर विरोधी रहीं है।पिछले कई
वर्षों से रीता जोशी की राजनीति भाजपा की विचारधारा को कोसने के
इर्द-गिर्द ही घूमती रही है।दिग्विजय सिंह के बाद कांग्रेस की ओर से जो
चुनिंदा आवाजें भाजपा की राजनीति धारा के खिलाफ उठती थी, उनमें उनकी आवाज
सबसे बुलंद थीं।अब समय बदला तो वही अमित शाह गर्मजोशी से उनका स्वागत
करते दिखते हैं और खुद रीता जोशी कांग्रेस को कोसती नजर आती हैं।घड़ी भी
अपना एक चक्र पूरा करने मे तय समय लेती है, लेकिन नेताओं की विचार धारा
पल भर मे बदल जाती है।
हाल मे ही बसपा ने आगरा में एक बड़ी रैली
का आयोजन किया था जिसके कर्ताधर्ता बसपा के बड़े ब्राहमण नेता ब्रजेश पाठक
थे।रैली मे मायावती और ब्रजेश पाठक सहित सभी ने पीएम मोदी व केंद्र की
भाजपा सरकार की नीतियों पर जमकर प्रहार भी किये थे।लेकिन रैली के चैबीस
घंटे भी नहीं गुजरे थे कि पता नहीं चौबीस घंटे के अंदर ऐसा क्या हो गया
कि ब्रजेश पाठक बसपा का दामन छोड़कर बिना किसी संकोच के भाजपाई बन
गये।तस्वीर का दूसरा रूख देखिये कि उन्नाव की राजनीति करने वाले पाठक को
लोकसभा चुनावों में भाजपा के उन्नाव के सांसद साक्षी महाराज अपराधिक छवि
वाला बताते थे।क्षेत्र मे उनके अपराधों की लम्बी फेहरिस्त लेकर घूमा करते
थे।आज वहीं पाठक उसी क्षेत्र मे भाजपाई विचारधारा के सिपाही हो गये
हैं।बात चली आगरा की तो भाजपा से समाजवादी पार्टी मे शामिल हुयीं
कुंजलिका शर्मा का जिक्र भी जरूरी हे।चोला बदल कर सपायी बनी कुंजलिका पर
आगरा में एक विहिप कार्यकर्ता की हत्या के विरोध में आयोजित शोकसभा में
भड़काऊ भाषण देने का आरोप लगा था।कवि गोपाल दास नीरज की बेटी कुंजलिका
शर्मा आगरा में विश्व हिन्दू परिषद में अहम पद पर थीं।वहीं सपा से आगरा
ग्रामीण विधानसभा सीट से उम्मीदवार घोषित की गई हेमलता दिवाकर ने टिकट
मिलने के बाद भी भाजपा का दामन थामने मे देर नही लगायी।ऐसा ही एक वाक्या
मध्य प्रदेश मे बीते लोकसभा चुनावों मे कांग्रेस के साथ भी हुआ था जब
सिम्ल मिलने के बाद एक प्रत्याशी ने पाला बदला था।
नेता कैसे पल भर मे रंग बदलते हैं
इसकी एक और ताजा मिसाल बसपा के ही स्वामी प्रसाद मौर्य भी हैं।शादी ब्याह
में गौरी-गणेश की पूजा न करने की वकालत करने और बराबर अपने भाषणों मे
पीएम मोदी के लिये अपशब्दों का प्रयोग करने वाले स्वामी प्रसाद को भी कमल
का सिपाही बनने मे परेशानी नही हुयी।कौमी एकता दल का सपा मे पहले और
दोबारा विलय खासा हंगामेदार रहा है।अभी तक पार्टी मे इस मुद्दे पर
अंदरखाने हलचल शान्त नही हुयी है।बसपा छोड़ कर भाजपा और सपा मे जाने वाले
नेताओं की लम्बी फेहरिस्त है।कांग्रेस और दूसरे दलों का भी यही हाल
है।चुनावी सीजन मे दल बदलने वाले कुछ नेता ऐसे भी हैं जो पहले पुराने दल
या अपने क्षेत्र में हाशिए पर हो गए थे लेकिन अब उन्होंने दोबारा अपने
पुराने दल अच्छे लगने लगें हैं।राजस्थन, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश,
छततीसगढ़ और बिहार जैसे राज्यों मे साल 2014 के बाद से भाजपा मे बड़े
नाम, बड़े पद और बड़ी पहचान वाले कई नेता शमिल हुये हैं।जिनमे कांग्रेसी
संकृति ,वामपंथी विचार धारा और समाजवादी आंदोलन से जुड़े नेता शमिल
हैं।ये जरूरी नही है कि दलबदल करने वाले नेता दूसरे दलों मे भी उतने ही
प्रभावशाली और ताकतवर हों जितने वह अपने पुराने दलों मे थे।इसमे एक दिन
के मुख्यमंत्री के रूप में पहचाने जाने वाले जगदंबिका पाल और बिहार में
लालू प्रसाद यादव की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल के पुराने सिपाही रह चुके
रामकृपाल यादव का नाम लिया जा सकता है। जिस भाजपा को कोसकोस कर इन नेताओं
ने अपनी राजनीति को आगे बढ़ाया, आज उसी भाजपा की शान में कसीदे पढ़ते
हैं।एक बात और भाजपा मे इनकी एंट्री तो हो गई पर न पुराना रूतबा बचा और न
ही पार्टी में कोई रोआब।यहीं नही दल बदलने वाले नेता जिस नये दल मे जाते
हैं तो वहां उनके पुराने इतिहास और आचरण पर पर्दा डाल कर उन्हें पाकसाफ
भी माना जाने लगता है।वैसे पाला बदलकर दूसरे दल का दामन थामने का चलन
भारतीय राजनीति में नया नहीं है और कई ऐसे नेता है जिन्होंने दल बदलकर कर
न सिर्फ चुनावी वैतरणी पार की बल्कि सता सुख भी भोगा। ऐसे नामो की सूची
लंबी है जिन्होंने समय समय पर पाला बदला। गठबंधन के दौर में व्यक्तिगत
स्तर से लेकर पार्टी स्तर तक यह नजारा खूब देखने को मिलता है। कई
क्षेत्रीय पार्टी तो सत्ता सुख से इतर रह ही नहीं सकती उनके लिये
राजनीतिक आस्था और प्रतिबद्धता के कोई मायने नही है।
अगर देखा जाये तो दूसरी पार्टी का
दामन थामने का सिलसिला दूसरे आम चुनाव से ही शुरु होने लगा था।सन 57 के
चुनाव मे एक दर्जन से अधिक ऐसे नेता जनता की मुहर से लोकसभा में पहुंचे
जो पिछली दफा किसी दूसरे चुनाव चिह्नन पर जीते थे। दल बदल 1977 और 1989
के दौर मे सबसे ज्यादा साफ दिखता है। जरा याद करिये 1977 में जहां पूर्व
कांग्रेसी मोरारजी देसाई केन्द्र में पहले गैर कांग्रेासी सरकार के
मुखिया बने वहीं बाद में विशवनाथ प्रताप सिंह, चन्द्रशोखर और देवगौड़ा ने
इस परम्परा को आगे बढ़ाया। भारतीय जनता पार्टी के पूर्व संस्करण भारतीय
जनसंघ के संस्थापक डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी भी लंबे समय तक कांग्रेस से
जुड़े रहे। इसके विपरीत कुछ नेताओं ने देश में हमेशा एक धारा की राजनीति
की जिनमें पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और भाजपा नेता लालकृ’णा
आडवाणी का नाम बड़े आदर के साथ लिया जा सकता हैं।वैसे लोकतंत्र मे हर
व्यक्ति की अपनी सोच होती है और वह उसे कभी भी बदलने का हक भी रखता
है।लेकिन दल-बदल की समस्या के कुछ ऐसे पहलू भी हैं, जिन्हें कतई नजरअंदाज
नहीं किया जा सकता है।दरअसल सियासत ख्वाबों के पीछे भागने की अदभुत दौड़
है इसी लिये आस्था बदलने का यह खेल सिर्फ व्यक्तिगत स्तर तक ही सीमित नही
है।बल्कि राजनीतिक दल भी इस खेल में लगातार शामिल होते रहे हैं।खासकर
जबसे गठबंधन सरकार का दौड़ चला है तो छोटे और क्षेत्रीय दलों की चांदी हो
गई हैं।आज के दौर मे राजनीति में सक्रिय लोगों के लिए अपनी पार्टी की
विचारधारा या राजनीतिक मूल्यों के प्रति निष्ठा अब मजाक की चीज बनकर रह
गई है।तात्कालिक राजनीतिक लाभ ही सबसे बड़ा राजनीतिक मूल्य हो गया
है।पहले बिहार फिर उत्तराखण्ड और पूर्वोत्तर राज्यों मे दलबदल का जो खेल
हमने हाल मे देखा है वह जन के हक मे कतई नही कहा जा सकता है।उत्तर प्रदेश
जैसे राज्यों मे आज कल दलबदल राजनीति मे मजहबी और जातिगत तड़का लगाने के
लिये भी होता है।दलबदलुओं का स्वागत टिकटों के तोहफे के साथ होने से ऐसे
आसार हैं कि आने वाले महीनों में दल-बदल की तस्वीर उत्तर प्रदेश में और
रंगीन होगी।ऐसे मे यहां ये कहना मुश्किल है कि जनतंत्र खुद को छल रहा है
या फिर राजनीतिक दल उसें छल रहे हैं।
** शाहिद नकवी **

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh