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युवा जोश और आधुनिक सोच के साथ अब तक चलने वाली यूपी की समाजवादी सरकार चुनावी बेला मे परिवारिक सदस्यों की मंत्री पद से बर्खास्तगी, चिट्ठियों, आरोप और प्रत्यारोप के मुकाम तक पहुंच गयी है।वहीं डेंगू की रोकथाम मे सरकारी प्रयास को नाकाफी मानते हाई कोर्ट की तल्ख टिप्पड़ी कि क्यूं ना उत्तर प्रदेश मे राष्ट्रपति शासन की सिफारिश कर दी जाये, ने अखिलेश सरकार की साख पर भी बट्टा लगा दिया।डेंगू नियंत्रण मे प्रशासनिक नाकामी कि सुनवायी करते हुये न्यायमूर्ती एपी शाही और न्यायमूर्ती डीके उपाध्याय की खंडपीठ ने डेंगू से हो रही मौतों को सरकारी लापरवाही माना।नाराज अदालत ने कहा कि ये दशा दिखाती है कि राज्य मे आपात स्थिति है।अदालत ने ये कह कर कि सरकारी अफसर कागजों की खनापूरी से ही काम चला रहें हैं,प्रदेश सरकार के कामकाज के तरीकों पर भी सवालिया निशान लगा दिया।पार्टी ही नही परिवार के अपनों की सीधी चुनौतीयों का सामना कर रहे मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के लिये ये हालात सन 2012 के हालातों से भी कठिन है जब वह सीएम की कुर्सी पर नही बैठे थे।परिवारिक सदस्यों के बीच विरासत के वहम को ले कर उपजे ताजा हालात मे पार्टी सुप्रिमों मुलायम सिंह के कड़े तेवर के कारण फिलहाल सपा दो फाड़ होने से तो बच गयी।लेकिन 24 अक्टूबर को प्रदेश की राजधानी लखनउू मे पार्टी मुख्यालय मे जो कुछ हुआ उसने सपा परिवार मे ऐसी दरार पैदा कर दी है जिसको भरना मुलायम सिंह जैसों के लिये भी आसान नही होगा।दरअसल समाजवादी पार्टी में जो हो रहा है, उसे सिर्फ एक घटना मानकर किरदारों के आने जाने की निगाह से नहीं देखा जा सकता।समाजवादी पार्टी में एक अजीब तरह का माहौल है।हांलाकि मुलायम के ये कहने के बाद की अखिलेश सरकार चलायें और शिवपाल पार्टी ,ये साफ हो गया कि वह भाई के साथ मजबूती से खड़े हैं।बैठक मे हंगामा होहल्ला और अराजक माहौल के बाद भी वह सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष के रूप मे कम ,पिता ,बड़े भाई और एहसान ना भूलने वाले दोस्त या मददगार के रूप मे ज़्यादा नजर आये।वैचारिक तौर पर भी वह भाई शिवपाल की ही भाषा बोलते दिखे और अमर सिंह के साथ –साथ कौमी एकता दल के अंसारी बंधुओं की भी हिमायत कर गये।जिससे साफ हो गया कि संगठन मे वह दखलनदाजी पसंद नही करेगें और हर राजनीतिक फैसलों मे उनकी मर्जी भी शामिल रहती है।यानी सत्ता की कुर्सी पर अखिलेश हैं लेकिन चाभी मुलायम सिंह के पास है। जाहिर है कि ये यह सत्ता की लड़ाई के साथ विचारों की भी लड़ाई भी है।शायद इसी लिये पिछले चार माह से चल आ रहा सपा का संकट 24 अक्टूबर को ताबड़तोड़ बैठक के बाद भी हल होने के बजाय सीधे सड़क पर उतर आया। परिवार में परदे के पीछे इतने महीनों से चल रहे घटनाक्रम के उजागर होने से सब हतप्रभ हैं।
एक ही दिन में सपा सरकार के चार मंत्री बर्खास्त हुए जिनमें अखिलेश के चाचा और सपा के प्रदेश अध्यक्ष शिवपाल यादव शामिल हैं, और पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव राम गोपाल यादव को पार्टी से निष्कासित किया गया।हाल के घटनाक्रम के बाद यह विश्वास करना कठिन है कि देश के सबसे बड़े राजनीतिक परिवार ने जिस मजबूती से पार्टी, सरकार और प्रशासन पर पकड़ बने हुआ थ। उसके सदस्यों के खामोश चेहरों के पीछे षड्यंत्र और न जाने क्या क्या चल रहा था। 4 अक्टूबर 1992 में जन्मी समाजवादी पार्टी इस समय पारिवारिक विघटन और अंर्तकलह से जिस सियासी मोड़ पर खड़ी है उसकी कल्पना मुलायम सहित किसी संथापक सदस्य ने ना की होगी।मुलायम के टीपू को बतौर मुख्यमंत्री अपने काम और विकास पर पूरा भरोसा है, उप्र की जनता का सामना वे इसी आधार पर करना चाह रहे हैं।लेंकिन खंटी समाजवादी मुलायम सिंह अपने चुनावी अंकगणित एवं बाहुबल पर यकीन रखते हैं।वे जानते हैं इस देश में चुनाव कैसे जीते जाते हैं केवल काम और विकास के आधार पर चुनाव जीतना उनकी जीत की परिभाषा से परे है।वह भी तब जब विपक्षी दल खुद विकास के मुद्दे से कोसों दूर हैं।इसी लिये वह शिवपाल के जातीय गणित ,संगठनात्मक क्षमता,अमर सिंह के संपर्कों और जोड़-जतन पर ज़्यादा भरोसा कर रहें हैं।अखिलेश 2017 के विधान सभा चुनावों को अपने कार्यकाल का इम्तिहान मानतें हैं इस लिये टिकट बाँटने का अधिकार भी अपने पास रखना चाहतें हैं।सीएम रहने के दौरान उन्होने जनता की नब्ज़ भी टटोली है जिससे एहसास है कि प्रदेश की जनता को अखिलेश यादव में मुलायम सिंह यादव दिखते हैं ना कि शिवपाल सिंह यादव में।सन 2012 में मुलायम सिंह यादव ने अपनी राजनीतिक विरासत अखिलेश यादव को सौंप दी थी।इस लिये आम धारणा भी यही है कि मुलायम सिंह यादव के राजनीतिक विरासत के वारिस अखिलेश यादव ही हैं।इस कारण ऐसा मुमकिन नहीं है कि जब मुलायम चाहेंगे तो उसे वापस ले लेंगे.इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि इन चार सालों में अखिलेश ने उप्र में विकास के काम किये हैं।पढ़े लिखे और उदारवादी सोच के अखिलेश प्रदेश के मूलभूत ढाँचे को सुधारने में चार साल से लगें हैं। युद्ध स्तर पर काम करके मेट्रो बनवा रहे हैं,एक्सप्रेस हाईवे बनवा रहें है और नौौजवानों को लैपटॉप दे कर आगे बढ़ने का संदेश दे रहें है,तो ऐसे मे उन्हें बरसों पुराना मजहबी और जातीय जोड़तोड़ का गणित कैसे समझ मे आसकता सकता है।विदेश मे पढ़े-बढ़े अखिलेश ये भी सोचते होगें कि वह 2017 में सत्ता में रहे या ना रहे लेकिन उनके सामने अभी 2022, 2027, और 2032 की असली भी लड़ाई है।
वैसे देखा जाये तो इस साल स्वतंंत्रा दिवस के मौके पर पार्टी मुख्यालय में मीडिया की मौजूदगी में मुलायम सिंह यादव के खरे खरे बोल ने जाहिर कर दिया था कि उनके परिवार में राजनीतिक वर्चस्व की लड़ाई का हल घर की चहारदीवारी में नहीं निकल पा रहा है।तब उन्होंने अपने छोटे भाई शिवपाल सिंह यादव के खिलाफ साजिश पर नाराजगी जाहिर करते हुए चेतावनी दी थी कि शिवपाल इस्तीफा देंगे तो पार्टी टूट जायेगी और आधे लोग उनके साथ चले जाएंगे।वह अक्सर बैठकों मे और सार्वजनिक मंचों से भी मुख्यमंत्री के कामकाज पर भी सवाल उठाते रहें हैं।उन्हेंनें एक बार तो ये कह कर चौका दिया था कि उन्हें बताया गया है कि पार्टी के लोग उनसे मिलते हैं तो अखिलेश को ख़राब लगता है।वह यह याद दिलाना नहीं भूले थे कि टिकट-सिम्बल उन्ही को बांटना है।वैसे यह सभी पार्टियों में होता है और यही समाजवादी पार्टी में भी हो रहा है।लेकिन सच ये है कि सपा मे जो हो रहा है क्या वह किसी गैर परिवार केन्द्रित पार्टी मे हो सकता था ,शायद नही।क्या कोई नेता अपने अध्यक्ष को पत्र लिख कर किसी को सीएम बनाने की मांग कर सकता था।राष्ट्रीय अध्यक्ष को चुनौती मिल सकती थी।दो बड़े नेताओं के समर्थको के बीच सड़क पर हाथापायी के बाद भी क्या कार्यवाही नही होती।क्या सपा की बुनियाद से जुड़े नेताओं का हक नही है कि वह प्रदेश अध्यक्ष या दूसरे बड़े पद पर आसीन हो सकें।परिवार के बाहर के लोगों पर सर उठाने पर कार्यवाही हो सकती है तो परिवारिक पहलवानों पर बगावती तेवर और सीधे अखाड़े मे आने की चुनौती देने पर कार्यवाही क्यों नही?क्या यही लोकतंत्र है?क्या आप अपने संघर्षों का फल जनता से अपनी हर पीढ़ी के लिये चाहेगें,शायद जनता ऐसा नही सोचती है।दरअसल मुलायम के लिए नेताजी का शब्द बेहद मायने रखता है और वो नहीं चाहते कि कोई उनसे ये रुतबा छीन ले चाहे फिर वो अपना बेटा ही क्यों न हो।दबी जुबाान कहा जा रहा है कि विवाद की जड़ यही है। कुनबे की पहेली ने उन्हें उलझा कर रख दिया है।सख्त होते हैं तो बेटा जाता है हाथ से और पार्टी में दो फाड़ का डर अलग।अगर चुप रहते हैं तो शुरू से कदम से कदम मिला कर चलने वाला भाई छूटता है।
मुलायम अनजाने में एक नहीं कई गलतियां कर गए। पहली उन्होंने अखिलेश को सत्ता तो सौंपी, लेकिन सरकार में उनका और सपा के सीनियर नेताओं का दखल बना रहा। सपा सरकार पर कई बार आरोप लगा कि यहां एक नहीं बल्कि 2-3 सीएम हैं। अखिलेश कोई फैसला करते उसे मुलायम वीटो कर देते। बेटे ने हर बार ये बात हंसकर टाल भले ही दी, लेकिन उसके मन में सिर्फ नाम भर का सीएम होने की टीस हमेशा बनी रही। सपा कुनबे के एक धड़े ने टीपू यानी अखिलेश के इस असंतोष को हवा देना शुरू कर दिया। बुरी तरह दबाव में आए टीपू ने आखिरकार बगावत का ऐलान कर दिया। ऐसा लगने लगा है कि टीपू को कठपुतली बनना स्वीकार नहीं है, वो राहुल गांधी या मनमोहन की तरह भी नही बनना चाहते हैं।मौके मिलने के बाद भी राहुल गांधी अपनी राजनीतिक आजादी हासिल नही कर सके।सपा मे जो कुछ हुआ या हो रहा है वह आने वाले सालों मे उन दलों मे भी हो सकता है जिनमे आज भी आंतरिक लोकतंत्र नही है और फैसले पार्टी सुप्रिमों लेते हैं।शासद इसी लिये अखीलेश गुजरात के सीएम रहे नरेन्द्र मोदी बन कर या उनकी तर्ज पर आने वाले राजनीतिक अवसरों को किसी के हवाले नहीं करना चाहते। हक़ीक़त तो यह है कि सपा मे अखिलेश के अलावा कोई चेहरा बचा नहीं है।इसी लिये दो ही बात है कि किसके चेहरे पर उत्तर प्रदेश का चुनाव लड़ा जाएगा और कौन टिकट बांटेगा।कुछ दिनों में यह दोनों ही चीजें फाइनल हो जाएंगी और मेरा विचार है कि यह चेहरा अखिलेश का ही होगा।क्यों कि मुलायम की स्थिति तो भीष्म पितामह की तरह है। दूसरी ओर पार्टी के जमीनी कार्यकर्ताओं का संकट दोहरा है।चुनाव की दस्तक तेज है और विपक्षी कोई मौका छोड़ नहीं रहे।उधर घर की लड़ाई विपक्षियो को और ईंधन मुहैय्या कर रही है।स्थानीय स्तर पर कार्यकर्ताओं की शिकायत है कि अपनी ही सरकार में कहीं सुनवाई नहीं।इसके लिए वे अपने विधायकों को निशाने पर ले रहे हैं।उधर विधायक आफ दा रिकार्ड कहते हैं कि महत्वपूर्ण पदों पर तैनात अधिकारी उनकी भी अनदेखी करते हैं।मुलायम सिंह परिवार की आपसी लड़ाई के चलते विधायकों के लिए एक और परेशानी बढ़ी है।अभी तक वे परिवार के सभी महत्वपूर्ण सदस्यों के यहाँ सामान्यतः हाजिरी लगा देते थे।अब नए पारिवारिक समीकरणों में बिना ठप्पा लगे सबको साधने का जतन करना है। कुल मिलाकर समाजवादी पार्टी एक बेहद कठिन दौर से गुजर रही है।
-** शाहिद नकवी **
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