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जवानी के दिनों में पहलवानी का शौक़ रखनेवाले मुलायम सिंह सक्रिय राजनीतिक में आने से पहले शिक्षक हुआ करते थे।यानी इटावा के एक स्कूल में एलटी ग्रेड टीचर सें इस मुकाम तक पहुंच जाने का मुलायम सिंह का राजनीतिक सफर वक्त की भट्टी मे तप कर निखर आने का है।समाजवादी राजनेता राम मनोहर लोहिया के विचारों से प्रभावित रहे मुलायम सिंह ने अपने राजनीतिक सफ़र में पिछड़ी जातियों और अल्पसंख्यकों के हित की अगुवाई कर अपनी पुख्ता राजनीतिक ज़मीन तैयार की जो अब तक उनको नफा दे रही है।राजनीतिक रूप से बेहद महत्वपूर्ण उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह ने 1967 में सोशलिस्ट पार्टी के टिकट पर सबसे कम उम्र में विधायक बनकर दमदार तरीके से अपने राजनीतिक करियर का आग़ाज़ किया था।उसके बाद उनके राजनीतिक सफर में उतार-चढ़ाव तो आए लेकिन राजनेता के रूप में उनका क़द लगातार बढ़ता गया।पांच नवम्बर को लखनऊ मे सपा के रजत जयंती समारोह मे जुटे देश भर के समाजवादी विचारधारा के नेताओं ने एक बार फिर भाजपा और पीएम मोदी के बढ़ते कद से मुकाबले की कमान मुलायम को देने की वकालत की है।दरअसल मुलायम सिंह ने समाजवादी पार्टी को उसकी स्थापना के बाद से ही यूपी की सबसे अहम पार्टियों में शुमार करा दिया।ये मुलायम का ही करिश्मा है कि समाजवादी पार्टी ने 25 साल में चार बार मुख्यमंत्री दिए।मुलायम सिंह यादव भारतीय राजनीति के दिग्गज चेहरों में से एक हैं।उनकी इन्हीं खासियत की वजह से समाजवादी पार्टी के साइकिल के पहियों को घूमते हुए 25 साल पूरे हो गये हैं।जिस वर्ष डॉ राम मनोहर लोहिया की मृत्यु हुई थी, उसी वर्ष मुलायम सिंह जसवंत नगर से विधायक चुने गये थे।वे उस मध्यवर्ती जाति से आते थे, जिसके तब के नेता चौधरी रामसेवक यादव,रामगोपाल यादव (प्रो राम गोपाल यादव नहीं) और हरमोहन सिंह यादव का समाजवादियों के बीच डंका बजता था।मगर ये सब नेता कालांतर में खत्म हो गये और जिस नेता ने लोहिया जी के बाद उनकी राजनीतिक पूंजी संभाली, उसमें मुलायम सिंह अव्वल हो गये। 1977 की जनता पार्टी के वक्त जब वे उत्तर प्रदेश की राम नरेश यादव सरकार के समय सहकारिता राज्यमंत्री बनाये गये, तब भी उनकी कोई पूछ नहीं थी।वह 1980 में वे बाबू बनारसी दास सरकार में भी रहे।लेकिन इस बीच उन्होंने चौधरी चरण सिंह से अपनी नजदीकी बना ली और 1982 में चौधरी साहब ने उन्हें लोकदल का प्रदेश अध्यक्ष बना दिया,कहा जाता है कि यह मुलायम सिंह के राजनीतिक जीवन का टर्निंग प्वाइंट था।
आज से ठीक 25 साल पहले समाजवादी जनता पार्टी से अलग होकर सपा वजूद मे आयी थी।ये वह वक्त था जब मुलायम सिंह को सियासत में उनके विरोधी उन्हें अलग-थलग करने की कोशिश कर रहे थे।उन्होंने 4 नवंबर 1992 को लखनऊ में समाजवादी पार्टी की नींव रखी।उस वक्त उनके साथ मधुकर दिघे, बेनी प्रसाद वर्मा, जनेश्वर मिश्र, आजम खां, मोहन सिंह जैसे खांटी समाजवादी साथी जरूर रहे।मगर देखा जाये तो साल 2012 तक सपा का मतलब केवल मुलायम सिंह यादव ही था।ये मामूली बात नही है कि यूपी जैसे राज्य में मात्र 11 महीने में सरकार बना लेना ,वह भी उस दौर मे जब सारे देश मे कांग्रेस का प्रभुत्व था और क्षेत्रीय दल अपने पैरों पर खड़ा होना सीख रहे थे।लेकिन यह सब मुलायम सिंह यादव ने अपनी पार्टी सपा के जरिए करके दिखाया है।यही नही इन 25 सालों में केंद्र की राजनीति के केंद्र में भी वह लगातार बने रहे।जब भी देश मे तीसरे मोर्चे की कवायद होती है तो उसमे अहम भूमिका भी मुलायम की होती है।किसी नई पार्टी के लिए यह छोटी उपलब्धि नहीं है।अपने जीवन के 25 बरस पूरा करने के पहले सपा को तमाम झंझावतों का भी सामना करना पड़ा।समाजवाद की राह से भटकने का आरोप भी उन नेताओं ने लगाया जो सपा से बाहर हो गए थे।अयोध्या में गोली कांड से सपा को एक बड़े वर्ग का निशाना बनना पड़ा तो गेस्ट हाउस कांड के चलते सपा-बसपा के रिश्ते ऐसे खराब हुए कि आज तक न सुधरे।मुलायम ने गांवों में साइकिल से घूमकर और तमाम तरह के गठबंधन के प्रयोग कर पार्टी को ऊंचाइयों तक पहुंचाया।1989 से 1992 तक चले राजनीतिक झंझावातों से मुलायम उलझन में थे।मंडल और मंदिर मामलों में उन्होंने सख्त रुख़ अपनाया था।पहले वो वीपी सिंह की जनता दल से नाता तोड़ कर चंद्रशेखर की सजपा में शामिल हुए और कांग्रेस का समर्थन ले उत्तर प्रदेश में सरकार बनाई।लेकिन सजपा मे उनका कार्यकाल लम्बा नही चल सका।चंद्रशेखर से मतभेदों का पहला संकेत तब मिला जब तत्कालीन संचार मंत्री जनेश्वर मिश्र ने चंद्रशेखर के मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया।जनेश्वर छोटे लोहिया के नाम से जाने जाते थे और मुलायम से नज़दीकियों के लिए भी।मुलायम इस बात से भी बेचैन थे कि राजीव गांधी बार-बार कहते थे कि चंद्रशेखर पुराने कांग्रेसी हैं, वे कभी भी कांग्रेस में शामिल हो जाएंगे।इसी उलझन मे वे दारुलशफा स्थित अपने मित्र भगवती सिंह के विधायक आवास पर जाकर साथियों के साथ लंबी बैठकें करते और भविष्य की रूपरेखा तैयार करते।साथियों ने डराया अकेले पार्टी बनाना आसान नहीं है। बन भी गई तो चलाना आसान नहीं होगा।लेकिन मुलायम का कहना था, भीड़ हम उन्हें जुटाकर देते हैं और पैसा भी, फिर वे यानी देवीलाल, चंद्रशेखर, वीपी सिंह आदि हमें बताते हैं कि क्या करना है, क्या बोलना है।इस लिये हम अपना रास्ता खुद बनाएंगे।
आख़िर सितंबर 1992 में मुलायम ने सजपा से नाता तोड़ ही दिया।चार अक्टूबर को लखनऊ में उन्होंने समाजवादी पार्टी बनाने की घोषणा कर दी।चार और पांच नवंबर को बेगम हजरत महल पार्क में उन्होंने पार्टी का पहला राष्ट्रीय अधिवेशन आयोजित किया। मुलायम सपा के अध्यक्ष, जनेश्वर मिश्र उपाध्यक्ष, कपिल देव सिंह और मोहम्मद आज़म खान पार्टी के महामंत्री बने जबकि मोहन सिंह को प्रवक्ता नियुक्त किया गया।लेकिन पार्टी बनने के ठीक एक महीने बाद देश की सबसे बडी राजनीतिक घटना घट गई ,कारसेवकों ने बाबरी मस्जिद गिरा दी।पूरा देश भाजपा-मय हो गया।इसी बीच उनके गृह जिले इटावा में लोकसभा का उपचुनाव हुआ तो बहुजन समाज पार्टी अध्यक्ष कांशीराम से भी उनकी नजदीकी बढ़ी।वहीं से दोनों को लगा कि कांग्रेस और भाजपा का मुक़ाबला करने के लिए पिछड़ों और दलितों के साथ आना पड़ेगा।यहीं से सपा-बसपा गठबंधन की नींव पड़ी।बसपा इससे पहले यूपी में आठ से दस सीटें जीतती थी लेकिन 1993 में सपा के साथ गठबंधन करने से बसपा ने 67 सीटों पर विजय प्राप्त की।कांशीराम ने पार्टी उपाध्यक्ष मायावती को उत्तर प्रदेश की प्रभारी क्या बनाया, वे पूरा शासन ही परोक्ष रूप से चलाने लगीं।वह मुलायम पर हुक्म चलाती लेकिन मुलायम को यह क़तई स्वीकार नहीं था।इसी के बाद मायावती ने समर्थन वापस ले लिया तो कहा जाता है कि दो जून, 1995 को स्टेट गेस्ट हाउस कांड भी इसी के चलते हुआ था।बहरहाल इस बीच मुलायम सांसद हो गए।केंद्र में रक्षामंत्री बन गए और अगर लालू यादव ने विरोध न किया होता तो बहुत संभव है कि देवगौड़ा की सरकार गिरने के बाद इंद्र कुमार गुजराल की जगह मुलायम ही प्रधानमंत्री होते।
दरअसल मुलायम सिंह को राष्ट्रीय स्तर पर बड़ी पहचान अयोध्या मुद्दे से मिली थी।कहा जाता है कि 1990 में मुख्यमंत्री रहते हुए उन्होंने विवादास्पद बाबरी मस्जिद को बचाने के लिए कारसेवकों पर गोली चलाने का आदेश दे दिया था।1992 में बाबरी मस्जिद टूटने के बाद उत्तर प्रदेश की राजनीति सांप्रदायिक आधार पर बंट गई और मुलायम सिंह को राज्य के मुस्लिमों का समर्थन हासिल हुआ।अल्पसंख्यकों के प्रति उनके रुझान को देखते हुए कहीं-कहीं उन पर “मौलाना मुलायम” का ठप्पा भी लगा।
इसी दौरान मुलायम को अमर सिंह का साथ मिला।अब पैसा, कॉरपोरेट और ग्लैमर भी सपा का हिस्सा बन गया।इसी तरह से 2003 में सपा की यूपी में एक बार फिर सरकार बनी जबकि उसका न तो बहुमत था न ही किसी पार्टी का समर्थन।मुलायम ने बसपा को एक बार फिर तोड़ दिया,और रही सही कसर बीजेपी के साथ डील से पूरी हो गई।प्रमोद महाजन के साथ अमर सिंह के समझौते के तहत बीजेपी ने विश्वास प्रस्ताव पर वाक आउट किया।महाजन को लगा था कि मुलायम के अल्पसंख्यकवाद से बहुसंख्यक बीजेपी के साथ आ जाएंगे लेकिन 2006 में महाजन की हत्या के बाद यूपी में बीजेपी की हालत बहुत ख़राब हो गई।यूपी मे जब 2007 का चुनाव आया तो सपा के ख़िलाफ़ जबरदस्त लहर थी।लेकिन उसका लाभ बीजेपी की जगह बसपा को मिला और मायावती एक बार फिर मुख्यमंत्री बनीं।
इस बीच अमर सिंह के सपा में बढ़ते प्रभुत्व के खिलाफ राम गोपाल यादव से लेकर अखिलेश तक सभी खड़े हो गए।मुलायम को न चाहते हुए भी अमर को पार्टी ने निकालना पड़ा।जब सन 2012 का चुनावी मौसम आया तो अखिलेश को समाजवादी युवजन सभा का अध्यक्ष बनाकर विधानसभा चुनाव उनके नेतृत्व में लड़ा और मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को आगे कर सपा ने अपने बूते पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई।चाचा शिवपाल की आपत्तियों को ख़ारिज कर अखिलेश मुख्यमंत्री बने।लेकिन आधे अधूरे,उनके पिता,चाचा और दूसरे वरिष्ठ नेता प्रशासन में दख़ल देते रहे।लेकिन अखिलेश चुपचाप काम करते रहे और कन्या विद्याधन योजना से लेकर लैपटॉप बांटने तक की कई स्कीमें और एक्सप्रेसवे से लेकर मेट्रो तक विकास की योजनाएँ भी लाये। फिर छह महीने पहले अमर सिंह की पार्टी में वापसी हुई।लेकिन इस दौरान पार्टी में नई और पुरानी सोच का फर्क भी दिखता रहा है।यह जनरेशन गैप भी समाजवादी पार्टी के लिए मौजूदा संकट की वजह है।प्रतीकों की सियासत भी मुलासम की सपा ने की है।राजनीतिक विशलेषक मानते हैं कि सपा ने समाजवाद के नारे को आगे बढ़ाते हुए समाजवादी चिंतकों राम मनोहर लोहिया, जेपी, आचार्य नरेंद्र देव से खुद को जोड़ा और प्रतीकों की राजनीति को उसने भी आगे बढ़ाया।अगर देखा जासे तो समाजवादी नाम वाली जितनी भी पार्टी देश में रहीं उनको कभी इतनी कामयाबी नहीं मिली जितनी सपा को अब तक मिली है।चाहे वह प्रजा सोशलिस्ट पार्टी हो, सोशलिस्ट पार्टी या चंद्रशेखर की सजपा। एक ऐसा दौर भी आया जब सपा से बेनी प्रसाद वर्मा, आजम खां व अमर सिंह को बाहर जाना पड़ा था। बाद में इन तीनों की अलग अलग वक्त में पार्टी में वापसी हुई।ऐसा कौन सोच सकता थ कि संघर्षों पर चल कर आगे बढ़ने वाली उसी सपा मे अपनी रजत जयंती मनाने के एक पखवाड़े पहले हालात कुछ यूं बनेंगे कि पार्टी के थिंक टैंक माने जाने वाले व मुलायम के चचेरे भाई राम गोपाल पार्टी से बाहर होंगे।चाचा को उन्हीं का भतीजा अपने मंत्री मंडल से बर्खास्त कर देगा।यह भी किसी ने नहीं सोचा होगा कि मुलायम परिवार की तल्खी सार्वजनिक मंच पर इस तरह दिखेगी कि भाई व बेटा आमने सामने होंगे। और उसके बाद जो कुछ भी हुआ, वह समाजवादी पार्टी के इतिहास में एक काले अध्याय के रूप में याद रखा जाएगा।बहरहाल करीब दो दशक से राष्ट्रीय राजनीति में सक्रिय और देवेगौड़ा मंत्रिमंडल में रक्षा मंत्री रह चुके मुलायम सिंह 2019 में होने वाले लोकसभा चुनाव में भी अजीत सिंह,शरद यादव और लालू यादव के आव्हान के बाद जरूर अपने लिए एक बड़ी भूमिका देखते हैं।
** शाहिद नकवी **
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