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विशाल आकार और जनसंख्या के कारण उत्तर प्रदेश अहम सियासी मैदान है। शायद इसी लिये कहा जाता है कि अगर उत्तर प्रदेश कोई अलग देश होता तो आबादी के मामले में यह दुनियां का पांचवां सबसे बड़ा देश होता। लेकिन साल 2014 मे भाजपा के पक्ष मे एक तरफा नतीजे देने वाले इस सूबे की सियासी तासीर को महज पौने तीन साल बाद समझना अब हर दल के लिये बेहद मुश्किल हो रहा है।देश के सर्वाधिक राजनीतिक रसूख वाले राज्य यूपी में सत्ता की कमान किसे मिलेगी इसका साफ साफ दावा करने से हर कोई बच रहा है।सूबे के सियासी मुस्तकबिल की रेखाएं कौन खींचेगा इसका अंदाजा नही लग रहा है। इस लिये कई दलों के लिये यूपी चुनाव में करो या मरो जैसी लड़ाई की स्थिति है।वहीं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और अखिलेश यादव की साख भी दांव पर लगी है।प्रदेश की राजनीति में 1990 के दशक से बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी का दबदबा रहा है।वहीं कांग्रेस और भाजपा इस काल में राज्य की राजनीति में हाशिए पर ही रहे।इस लिये भाजपा ने एक बार फिर से किसी को भी मुख्यमंत्री का चेहरा नहीं बनाया है।वह विधानसभा चुनाव को भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता के दम पर जीतना चाहती है।मोदी उत्तर प्रदेश में कई रैलियां कर रहे हैं और लोगों से प्रदेश में बीजेपी को सरकार बनाने का मौका देने की अपील कर रहे हैं।दरअसल यहां राजनीतिक दलों को मुद्दों के साथ जातीय समीकरणों की कदमताल जीत का स्वाहद चखाती है।ये बात प्रचलित है कि अगर जनता का नुमाइंदा बनना है तो जाति-समीकरणों की भूल-भुलैया से गुजरना पड़ेगा।यही वजह है कि नेताओं की जबान पर तो जन रहता है लेकिन जेहन में जात रहती है और जाति के संतूर को साधने की फिराक मे रहते हैं।राजनीतिक जानकार राज्य में अगड़ी जातियों को भाजपा, यादवों को सपा और दलितों को बसपा का मुख्य जनाधार मानते हैं। राज्य में करीब 22 प्रतिशत अगड़ी जातियां, करीब 21 प्रतिशत दलित, करीब 8 प्रतिशत यादव और करीब 19 प्रतिशत मुसलमान हैं। 2012 में सपा को करीब 29 प्रतिशत वोटों के साथ बहुमत मिला था। वहीं बसपा को 2007 में करीब 30 प्रतिशत वोटों के साथ बहुमत मिला था।यहां ये कहना उचित होगा कि किसी एक सामुदायिक गुट के वोटों के बदौलत कोई दल पार नहीं पा सकता है।54 प्रतिशत पिछड़ों को एकजुट करना सबकी चुनौती है।मुसलमानों के वोट पर भी सब अपना हिस्सा जता रहे हैं। भाजपा ने सबसे ज्यादा दांव पिछड़ी जातियों पर लगाया है। कुर्मी प्रदेश अध्यक्ष बनाया और सोनेलाल पटेल के अपना दल को साथ जोड़ कर उनकी बेटी अनुप्रिया पटेल को केंद्र में मंत्री बनवाया है। दलितों को रिझाने के लिए भाजपा ने सांसद विनोद सोनकर को पार्टी के एससी प्रकोष्ठ का राष्ट्रीय संयोजक नियुक्त किया है। सवर्ण को भाजपा अपना परंपरागत वोटर मानती है, लेकिन राजनीतिक हलके मे कहा जा रहा है कि नोटबंदी से मिली तकलीफों के चलते भाजपा का एक बड़ा वोट बैंक नाराज है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम पर लोकसभा चुनाव में 71 सीटें जीतने वाली भाजपा विधानसभा में अगर ठीकठाक प्रदर्शन नहीं कर पाई तो इसके लिए मोदी और उनके नोटबंदी के फैसले को जिम्मेदार ठहराया जाएगा।मोदी के लिए इस बार यूपी में विधानसभा चुनाव बेहद अहम हो गए हैं, क्योंकि नरेंद्र मोदी पर लोकसभा का नतीजा दोहराने की चुनौती है और इसके साथ ही नोटबंदी पर ये सबसे बड़ा जनमत होगा।जिसके बाद अगर जीत मिली तो 2019 लोकसभा चुनाव के लिए राह आसान होगी और अगर हार मिली तो पार्टी के भीतर से भी सवाल उठने लगेंगे।भाजपा को पीएम मोदी के चेहरे ,केन्द्र सरकार के तमाम सुधार कायर्क्रमों और जनसभाओं की कामयाबी से प्रदेश मे बड़ी उम्मीद है।
पिछले चुनाव में हार कर सत्ता से बाहर होने और लोकसभा चुनाव मे खाली हाथ रहने वाली बीएसपी और मायावती के लिए 2017 का ये चुनाव अस्तित्व की लड़ाई है?मायावती की कोशिश है कि इस बार सत्ता में उनकी वापसी हो, इसके अलावा भी कई ऐसी बातें हैं जो प्रदेश की चार बार मुख्यमंत्री रह चुकीं मायावती के लिए इस चुनाव को बेहद अहम बनाती हैं। मायावती के लिए भी इस चुनाव में बहुत कुछ दांव पर लगा है।राज्य में अपने खोए आधार को वापस पाना, छिटक चुके वोट बैंक को फिर से अपनी ओर खींचना,यानी इस बार का चुनाव मायावती के लिए इतना आसान नहीं है।पिछले 15 साल में बीएसपी के प्रदर्शन की बात करें तो 2002 में 98 सीटें जीते जिसके बाद साल 2007 में पार्टी ने शानदार प्रदर्शन करते हुए 206 सीटों के साथ सरकार बनाई और फिर 2012 में 80 सीटों के साथ बीएसपी के हाथ से सत्ता चली गई। लोकसभा चुनावों मे तो बसपा का प्रदेश मे खाता भी नही खुल सका था।यानि साफ है कि मायावती पर उनके वोटरों का विश्वास पिछले चुनाव में कम हुआ, ज़ाहिर है अगर इस बार भी ऐसा हुआ तो राज्य में पार्टी के अस्तित्व पर ही खतरा मंडराने लगेगा। मायावती के लिए ये चुनाव इसलिए भी अहम है क्योंकि इस बार उनके मुस्लिम-दलित समीकरण की अग्निपरीक्षा होने वाली है।वैसे उन्होंने इस बार वादा किया है कि वह सत्ता में आएंगी तो मूर्तियां नहीं बनवाएंगी।उन्होंने वादा किया है कि लोगों को ग़रीबी से निकालने पर काम करेंगी।ज़ाहिर सी बात है कि यह जीत मायावती के पिछले पांच सालों के राजनीतिक वनवास को ख़त्म करने के लिए महत्वपूर्ण है। राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि यदि वह इस बार चुनाव हार जाती हैं तो उनके लिए अप्रासंगिक होने का भारी जोखिम है।उनके लिए राजनीति में वापसी करना काफी कठिन होगा इसी लिये वह सोशल इंजीनियरिंग के जरिए एक बार फिर 2007 दोहराने की तैयारी में हैं।
मणिपुर को छोड़ कर चार राज्यों के चुनाव के नतीजे राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस की तकदीर तय करेंगें।जिसमे मे उत्तर प्रदेश बहुज महत्वपूर्ण है क्यों कि यहां पिछले छह विधानसभा चुनाव से कांग्रेस किसी चुनाव मे 50 सीट भी नहीं जीत सकी है।खास कर पिछले 15 साल कांग्रेस के लिए बहुत बुरे बीते हैं।जहां साल 2002 में कांग्रेस को 25 सीटें मिली, वहीं 2007 के चुनाव में पार्टी को 28 सीटों से संतोष करना पड़ा।वहीं 2012 में पार्टी सिर्फ 28 सीटों पर ही जीत पाई। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की राह बेहद मुश्किल भरी रही है, लेकिन इस बार राहुल गांधी की अगुवाई में कांग्रेस ने यूपी में बड़ा दांव खेला है और वो दांव है समाजवादी पार्टी से गठबंधन का दांव।इसलिए राहुल गांधी और कांग्रेस के लिए भी प्रदेश में प्रासंगिक बने रहने के लिए ये चुनाव बेहद अहम हो गये हैं।क्योंकि लोकसभा चुनाव में बीजेपी से हार का बदला लेने का मौका है और अगर जीते तो कांग्रेस पार्टी का हौसला बुलंद होगा।तब राहुल गांधी तीन बड़े राज्यों गुजरात, मध्य प्रदेश और राजस्थान में बीजेपी को चुनौती देने की स्थिति में आ जाएंगे। इन तीनों राज्यों में कांग्रेस का सामना सीधे बीजेपी से होगा।2019 के लोकसभा चुनाव से पहले इन बड़े राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं।लेकिन अगर हार मिली तो पार्टी के भीतर राहुल को चुनौती मिलेगी।यही नही 2019 चुनाव से पहले उन्हें पार्टी अध्यक्ष बनने का रास्ता फंस सकता है।कांग्रेस को धनाभाव का भी सामना कर पड़ सकता है।क्यों कि सत्ता से दूर रहने से चुनावों में आर्थिक सहायता नही मिलती है।
समाजवादी पार्टी का नेतृत्व 41 साल के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव कर रहे हैं।2012 के विधानसभा चुनाव में भी अखिलेश ने अहम भूमिका अदा की थी।उन्हें उम्मीद है कि 11 मार्च को जब वोटों की गिनती होगी तो नतीजे उनके पक्ष में ही आएंगे। हालांकि चुनाव से पहले उन्हें पार्टी की कमान अपने हाथ में लेने के लिए पिता मुलायम सिंह की नाराज़गी झेलनी पड़ी। कुनबे में चली वर्चस्व की लड़ाई के चलते हुए नुकसान की भरपाई के लिए ही शायद उन्होने कांग्रेस के साथ गठबंधन कर लिया।दोनों पार्टियां संयुक्त रूप से रैलियां कर रही हैं। यह गठबंधन सुशासन, विकास और युवाओं को स्मार्टफ़ोन देने का वादा कर रहा है।गौरतलब है कि साल 2012 में विधानसभा की कुल 403 सीटों में समाजवादी पार्टी को 224 पर जीत हासिल हुई थी।इस लिये सीटों की ये संख्या अखिलेश यादव को खुश करने के लिए ये सिर्फ आंकड़े भर नहीं हैं, बल्कि ये इस बार के विधानसभा चुनाव की चुनौतियां भी हैं।लोकसभा चुनाव में मिली करारी हार और समाजवादी पार्टी की पारिवारिक कलह के बाद ये चुनौतियां और मुश्किल हो चुकी हैं। इसीलिए अखिलेश के लिए ये चुनाव बेहद अहम हैं।साल 2017 के चुनाव में जीत अखिलेश यादव को समाजवादी पार्टी के निर्विवाद नेता के तौर पर स्थापित कर देगी। राष्ट्रीय स्तर पर भी उनका कद काफी बढ़ जाएगा।लेकिन अगर हार मिली तो पार्टी और परिवार का विवाद और ज्यादा मुखर होकर सामने आ जाएगा।तब शायद पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष के पद को भी कुनबे से सीधी चुनौती मिले।सपा को उम्मीद है कि बहुत बार देश के मतदाताओं ने केन्द्र और राज्य के जनादेश को अलग-अलग पैमानों पर परखा है तो फिर इस बार भी उत्तर प्रदेश में ऐसा हो सकता है।वह इसे मजबूती देने के लिये बिहार की नजीर पेश कर रही है। रालोद मे चौधरी अजीत सिेह से ज़्यादा जयन्त चौधरी के सियासी भविष्य के लिये इस चुनाव के खास मायने हैं।अगर विधायकों की संख्या बहुत कम रहेगी तो फिर राष्ट्रीय लोक दल के साथ जयन्त की आगे की सियासत बिगाड़ भी सकती है।बहरहाल राजनीतिक जानकारों का मानना है कि किसी एक सामुदायिक गुट के वोटों के बदौलत किसी पार्टी की नाव पार नहीं होगी।उनके मुताबिक राज्य में करीब 22 प्रतिशत अगड़ी जातियां, करीब 21 प्रतिशत दलित, करीब 8 प्रतिशत यादव और करीब 19 प्रतिशत मुसलमानों के रूख से सत्ता और सरकार का गणित तय होता है।इस लिये माना जा रहा है कि इस बार उत्तर प्रदेश को साधना राजनीतिक दलों के लिये बड़ी चुनौती है।लेकिन विकास की बहार देखने के लिये मददाताओं के लिये सबसे बेहतर तो यही होता है कि हर आदमी नागरिक की तरह वोट डालता।बहरहाल एक उम्मीद की लौ जलाने की जिम्मेदारी अब जनता पर है।
** शाहिद नकवी **
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