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पूर्वोत्तर के एक अहम राज्य मणिपुर के लोग भी इन दिनों अपनी नई सरकार चुनने मे व्यस्त हैं।साठ सीटों वाली विधान सभा के लिये पहले चरण मे चार मार्च को वोट डाले जायेगें।भारत के इस पूर्वोत्तकर राज्य में जहां एक ओर सिरउई लिली, संगाई हिरण, लोकतक झील में तैरते द्वीप, दूर – दूर तक फैली हरियाली, उदारवादी जलवायु और परंपरा का सुंदर मिश्रण देखने का मिलता है।तो वहीं दूसरी ओर वह पीड़ा भी है जिसकी हमारे सरोकारों में जगह नहीं होती है। पूर्वोत्तर के इस खास प्रदेश मे दशकों से उग्रवाद,अलगाववाद, हिंसा और बगावत का ऐसा सिलसिला जारी है, जिस की घनघोर पीड़ा ने यहां के लोगों की तरक्की रोक दी है। अलगाव, जातीय वर्चस्व, अपराध और अराजकता के कारण ही मणिपुर को अशांत क्षेत्र घोषित किया गया है और वहां 1980 से लागू आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पावर्स एक्ट के तहत सुरक्षा बलों को अराजकता का मुंहतोड़ जवाब देने की खुली छूट है।दरअसल कश्मीर से कन्याकुमारी और कच्छ से असम तक फैले भारत की तो अक्सर मीडिया मे चर्चा होती है लेकिन असम से परे आबाद देश के छह राज्यों के लोगों की समस्यायें सुर्खियां नही बटोर पाती है। आर्थिक पिछड़ापन के कारण यहां जीवन बहुत मुश्किल है।यहां ये कहने मे हर्ज नही कि सरकारी उपेक्षा और कुछ गलत नीतियों के कारण मणिपुर का मामला कुछ अलग है।महीनों लंबी आर्थिक नाकेबंदी के बाद आम जीवन दूभर होने की वजह से यहां राजनीतिक दलों और वोटरों की प्राथमिकता सूची में चुनाव काफी नीचे है।इस नाकेबंदी की अपील राज्य में सात नए जिलों के गठन के विरोध में की गई थी।उसके बाद इस मुद्दे पर काफी हिंसा हो चुकी है।
वैसे भी पूर्वोत्तर राज्यों में असम को छोड़ कर बाकी किसी राज्य में होने वाले चुनावों को मीडिया में खास तवज्जो नहीं मिलती। इसकी खास वजह यह है कि उन राज्यों मे राजनीति फेरबदल का राष्ट्र की मुख्यधारा की राजनीति पर कोई असर नहीं होता।जानकारों का कहना है कि अबकी भी ऐसा ही हो रहा है।कहा जाता है कि मणिपुर में आर्थिक नाकेबंदी का मतलब है, रसोई गैस के एक सिलेंडर की कीमत तीन गुना बढ़ जाना और एक लीटर पेट्रोल के दाम 350 रुपये होना।यही नही मणिपुर में आर्थिक नाकेबंदी का मतलब है, आलू और प्याज के दाम आम लोगों की पहुंच से बहुत दूर हो जाना।खबरों के मुताबिक महीनों से मणिपुर के लोगों को ना तो ठीक से सब्ज़ियां मिल पा रही हैं, ना दवाइयां और ना ही खाने पीने का कोई सामान। ये बात अपने आप में हैरान भी करती है कि दिल्ली से मणिपुर की दूरी दो हजार किलोमीटर से कुछ अधिक है , फिर भी मणिपुर के लोगों की आवाज की गूंज दिल्ली मे शिद्दत से नही सुनायी पड़ती।मणिपुर राज्य सन् 1949 में भारत का हिस्सा बना था और 1972 में इसे पूर्ण राज्य का दर्जा मिला था। मणिपुर के पहाड़ी क्षेत्रों में नगा समुदाय और मैदानी भागों में मैतेयी समुदाय निवास करता है। मैतेयी समुदाय अधिक विकसित है, और राजनीतिक तौर पर दोनो के बीच तनाव का लंबा इतिहास रहा है। मणिपुर के पहाड़ी हिस्से में ज्यादातर नगा आबादी रहती है, जिसके प्रशासन के लिए स्वायत्त जिला परिषद् है। राज्य सरकार इस परिषद् की सहमति के बिना पहाड़ी क्षेत्र के लिए कोई कानून नहीं बना सकती है। घाटी में रहने वाली आबादी पहाड़ी आबादी की तुलना में अधिक है। नगा जनजाति ईसाई धर्म को मानती है, तो घाटी में रहने वाले अधिकांश लोग हिंदू धर्म के अनुयायी हैं। पहाड़ों पर रहने वाली नगा और अन्य जनजातियों को लगता है कि सरकार उनकी जमीन पर कब्जा न कर ले या ऐसा कोई कानून न ले आए, जिससे उनकी स्वायत्तता या जीवन शैली पर संकट आ जाए। इसी आशंका के चलते उपजा अविश्वास कई बार हिंसा का रूप ले चुका है। राज्य के दो-तिहाई हिस्से में फैले होने के बावजूद पर्वतीय क्षेत्र में विधानसभा की महज 20 सीटें हैं।बाकी 40 सीटें मणिपुर घाटी में हैं और यही सीटें राज्य में हर बार सरकार की तस्वीर बनाती हैं।घाटी में मैतेयी वोटर बहुमत में हैं और पर्वतीय इलाकों में नगा तबके की बहुलता है।
जहां तक मुद्दों की बात है राज्य में बीते चार दशकों से हर चुनाव में सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम को खत्म करना ही सबसे बड़ा मुद्दा रहा है।इसके अलावा अबकी नए जिलों का गठन, इनर लाइन परमिट और आर्थिक नाकेबंदी भी एक प्रमुख मुद्दा है।दरअसल बीते पांच-छह वर्षों से मणिपुर आर्थिक नाकेबंदी का पर्याय बन चुका है।यह मुद्दा यहां बेहद संवेदनशील भी है।मणिपुर के बारे मे कहा जाता है कि किसी भी पार्टी के लिए राज्य के नगा व मैतेयी वोटरों को एक साथ साधना टेढ़ी खीर है।राज्य मे बरसों से बिजली-पानी की समस्याएं भी गंभीर बनी हुयी है। मणिपुर के लोगों को 68 साल बाद भी पीने का साफ पानी नसीब नही है और करीब 80 प्रतिशत लोग तालाब का पानी पीने को मजबूर हैं।इसी लिये प्राईवेट कम्पनियों का बोतलबंद पानी का कारोबार यहां खूब फलफूल रहा है।गांवों में बिजली दो से चार घंटे ही मिल पाती है। शिक्षा के क्षेत्र में भी हाल बेहाल है,प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा तक मे हालात कमोबेश एक जैसे हैं।बाकी का काम अशांत माहौल कर देता है जिसके चलते प्रदेश में अक्सर बंद की स्थिति रहती है , इसी वजह से साल में छह महीने ही स्कूल, कॉलेज खुल पाते हैं।बच्चे शिक्षा से वंचित होने के कारण प्रतियोगी परीक्षाओं में पिछड़ रहे हैं।पहाड़ बनाम घाटी के मुद्दे पर हमेशा टकराव की स्थिति बनी रहती है। इस टकराव को राजनीतिक पार्टियां अपने निहित स्वार्थ के लिए और भी खाद-पानी देती रहती हैं। इसका समाधान तभी संभव है, जब प्रदेश में राजनीतिक और सामाजिक शांति कायम हो।इसके लिए हर राजनीतिक पार्टियों में राजनीतिक इच्छाशक्ति की जरूरत है। अपने हित छोड़कर काम करने पर ही इन समस्याओं का समाधान होगा।राज्य में बीते 15 वर्षों से कांग्रेस की सरकार है और ओकराम ईबोबी सिंह मुख्यमंत्री की कुर्सी पर काबिज हैं।
असम में चुनाव जीत कर और अरुणाचल प्रदेश में पूरी सरकार के पाला बदलने की वजह से बीजेपी इलाके के इन दोनों राज्यों में सत्ता पर काबिज है।पूर्वोत्तर में पांव पसारने की रणनीति के तहत अब उसकी निगाहें मणिपुर पर हैं।बीजेपी ने भी इस बारे में अपना इरादा साफ कर दिया है।बीजेपी का कहना है कि उसका एक मात्र एजेंडा मणिपुर को कांग्रेस मुक्त बनाना है। असम में सरकार बनाने और मणिपुर में दो उपचुनाव जीतने के बाद उसके हौसले बुलंद हैं।प्रधानमंत्री मोदी सहित पार्टी के कई बड़े नेताओं की राज्य मे सभा और रैलियों से साफ है कि वह मणिपुर मे भी अपनी बहुमत वाली सरकार चाहती है।राज्य मे भाजपा की कमान असम की जीत के आर्किटेक्ट रहे हिमंत बिस्वा सरमा के हाथों मे हैं।यहां देखने मे भले मुख्य मुकाबला कांग्रेस और बीजेपी के बीच हो,लेकिन अबकी विधानसभा चुनावों में क्षेत्रीय दलों की भूमिका भी निर्णायक रहने की उम्मीद है। दो बार राज्य में सरकार का गठन करने वाली मणिपुर पीपुल्स पार्टी एमपीपी को बीते विधानसभा चुनावों में एक भी सीट नहीं मिली थी।लेकिन इस बार वह मजबूती से चुनाव लड़ रही है।इस बार कांग्रेस नेता और प्रदेश के मुख्यमंत्री ओकराम इबोबी सिंह की सरकार में मंत्री रहे बिजोय कोइजम ने भी पार्टी बनाई है। नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट का पंजीकरण बीते साल अक्टूबर में हुआ और इस चुनाव में 13 प्रत्याशी मैदान में हैं। इनके अलावा इन चुनावों में जिस क्षेत्रीय पार्टी पर सबकी निगाहें टिकी हैं वह है मानवाधिकार कार्यकर्ता इरोम शर्मिला की पीपुल्स रिसर्जेंस एंड जस्टिस पार्टी यानी प्रजा।यह देखना दिलचस्प होगा कि आम लोग इस पार्टी को कितना समर्थन देते हैं। अपनी नई नवेली पार्टी प्रजा के साथ चुनाव मैदान में कूद रही इरोम शर्मिला का बस एक ही मकसद है मणिपुर से एएफएसपीए हटाना।इसी काम के लिए उन्होंने 16 साल तक अनशन किया और फिर खुद ही पैंतरा बदलते हुए आंदोलन छोड़ कर राजनीति के रास्ते मंजिल हासिल करने का इरादा बनाया।अब वो सीधे सीधे 15 साल से मणिपुर के मुख्यमंत्री ओकराम इबोबी सिंह के किले को भेदने की कोशिश मे हैं।जब से इरोम ने आंदोलन छोड़ कर राजनीति का रास्ता अख्तियार करने की बात की है तब से उनका अपना मैती समुदाय उनसे खफा हो गया।मैती समुदाय राज्य की राजनीति मे र्निणयक भूमिका रखता है।मुख्यमंत्री इबोबी सिंह भी इसी समुदाय से आते हैं।
राज्य की कांग्रेस सरकार ने चुनाव के ऐन पहले सात नये जिले बनाकर ऐसी राजनीतिक चाल चली जिसकी काट बीजेपी नेताओं को समझ में नहीं आ रही है।इन सबके बावजूद राज्य में उग्रवाद, मुठभेड़, बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार और पहाड़ी और घाटी के लोगों के बीच टकराव ऐसे मसले हैं जिन्हें उछाल कर बीजेपी कांग्रेस शासन को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश कर रही है।चुनाव के समय राजनीतिक दल अपना-अपना हिसाब लगा कर हित साध रहे हैं लेकिन जनता के मुद्दे और उसकी परेशानी का ख्याल किसी को नही है। यदि केंद्र और राज्य सरकारें वाकई मणिपुर का विकास चाहती हैं, तो उन्हें मिलकर काम करना होगा।आयरन लेडी इरोम शर्मिला को भी मणिपुर में तेजी के साथ फैल रही हिंसा को रोकने की दिशा में सकारात्मक पहल करने की आवश्यकता है।आखिर मणिपुर के उस सभ्य, शांत चेहरे को क्यों नही देखने की कोशिश की जाती है, जो उग्रवादी हलचलों के बीच उम्मीद बन कर कौंधता है।मणिपुर की 70 फीसदी आबादी मैतेई लोगों की है।कहा जाता है कि वे स्वभाव से नरम रहे हैं। सोलहवीं सदी में चैतन्य महाप्रभुकी वैष्णव धारा ने इन्हें अपने रंग मेंरंगा था। वहीं से वह मणिपुरी डांसआया है, जो आज हमारी सांकृतिक धरोहर का शानदार हिस्सा है।इस लिये मणिपुर की प्राकृतिक ,सांस्कृतिक संपन्नता और खूबसूरती बचाने के लिये मजबूत इच्क्षा शक्ति की जरूरत है। जिसका मकसद केवल सरकार चलाना ना हो बल्कि मणिपुरी लोगों की तकदार और ततबीर बदलना भी वरना टकराव की पीड़ा से छटपटाता राज्य आर्थिक रूप से बिखर भी सकता है।
** शाहिद नकवी **
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