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उत्तर प्रदेश में भाजपा की लहर नहीं बल्कि सुनामी आने वाली है और उत्तर प्रदेश का चुनाव देश की राजनीति में बहुत बडा बदलाव लाने जा रहा है ये बात दो हफ्ते पहले भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमितशाह ने गोरखपुर मे कही थी।थी।उस समय इस कथन को बड़बोलापन कहा गया था लेकिन नतीजे आने के बाद अमितशाह सौ फीसदी सही साबित हुये हैं। भाजपा ने 2014 के लोकसभा चुनाव में 42.3 फ़ीसदी वोट हासिल कर यूपी मे 71 सीटें हासिल की थी।लगभग तीन साल बाद भी भाजपा ने देश के सबसे बड़े सूबे मे अपनी ये लोकप्रियता कायम रखी है।आंकड़ों के मुताबिक भाजपा को 43 फीसदी वोट मिलें हैं,सपा को केवल 29 प्रतिशत वोट ही मिलें हैं जबकि लोकसभा मे सपा 22 प्रतिशत वोट पायी थी।लोकसभा चुनाव मे बीएसपी का वोट प्रतिशत 19.6 फ़ीसदी था जबकि इस बार वह 20-21 फीसदी वोट पाने मे कामयाब हो गयी। सीधे शब्दों में कहें तो अगर तीनों दलों ने गठबंधन करके भाजपा के ख़िलाफ़ संयुक्त उम्मीदवार उतारे होते तो भी भाजपा आसानी से उत्तर प्रदेश मे सरकार बना लेती। उत्तर प्रदेश में भाजपा को सफलता मुख्य तौर पर ग्रामीण मतदाताओं में भाजपा लहर की वजह से मिली है. भाजपा पहले ग्रामीण मतदाताओं के मुक़ाबले शहरी मतदाताओं में ज़्यादा लोकप्रिय हुआ करती थी. इस चुनाव में भाजपा के समर्थकों में महत्वपूर्ण परिवर्तन नज़र आया है. पार्टी ग्रामीण वोटों को रिझाने में कामयाब रही है। इन चुनावों में ऊंची जाति के ब्राह्मण, राजपूत, वैश्य और कई अन्य ऊंची जातियों के वोटरों का आज तक का सबसे ज़्यादा ध्रुवीकरण देखने को मिला। इन सभी जातियों में से 75 फ़ीसदी से भी ज़्यादा ने भाजपा के पक्ष में मतदान किया।भाजपा उन सीटों पर भी अपना परचम फहराने मे कामयाब रही जहां मुसलमानों की तादात बहुत ज़्यादा है।ऐसा माना जा रहा है कि इस बार मुसलमानों ने भी भाजपा को वोट दिया है।शायद पहली बार भाजपा नेताओं ने भी इस बात को स्वीकार किया है कि उनको मुसलमानो का भी वोट मिला है। अजित सिंह के नेतृत्व वाला राष्ट्रीय लोकदल जाट मतदाताओं के बीच काफ़ी लोकप्रिय रहा था लेकिन वह जाट-वोट पाने में भी नाकाम रहे।नतीजे बता रहे हैं कि जाट वोट उल्लेखनीय संख्या में भाजपा गठबंधन की ओर चले गए।
नोटबंदी के तुरंत बाद हुए इन चुनावों में शुरू से अंत तक बीजेपी का ही प्रचार नजर आता रहा।अखबारों में विज्ञापन हो या सोशल मीडिया या फिर जमीनी प्रचार हर तरफ बीजेपी ही नजर आई।सबसे ज्यादा चर्चा हुई वाराणसी में मोदी के अंतिम दौर के प्रचार अभियान की।कहा जाता है कि अंत भला तो सब भला’ एग्जिट पोल उसी कहावत को सही साबित करते हुये नजर आये थे।एक्जिट पोल मे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए समर्थन के सुनामी पर सवार बीजेपी उत्तर प्रदेश के किले पर भगवा फहराती दिख रही थी और नतीजे के बाद ऐसा ही हुआ।काफी अर्से बाद एक्जिट नतीजे मे बदल गये।आजादी के बाद हुये पहले चुनाव के बाद उत्तर प्रदेश के चुनावी इतिहास में सबसे शानदार जीत बीजेपी ने हासिल की है।या यूं कहे कि भाजपा ने विस्मयकारी जीत हासिल की है। बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने उत्तर प्रदेश में जिस तरह टिकटों का बंटवारा किया था उस पर उन्हें स्थानीय नेताओं से आलोचना सुननी पड़ी थी। इस बार भाजपा ने तकरीबन 70 बाहरी उम्मीदवारों को टिकट दिया जो दूसरे दलों से पार्टी में आए, यहां यह गौर करने वाली बात यह है कि इन उम्मीदवारों को वहां से टिकट दिया गया है जहां भाजपा की जमीन काफी कमजोर रही है। शाह की ये रणनीति काम कर गयी और दूसरे दलों से भाजपा मे आये तमाम नेता चुनाव जीतने मे कामयाब हो गये।
दिल्ली और बिहार में बड़ी हार झेलने के बाद यूपी में शानदार जीत ये साबित करने के लिए काफी है कि क्यों अमित शाह को बीजेपी का नंबर वन चुनाव रणनीतिकार माना जाता है।मतगड़ना के शरूआती आंकड़ों के मुताबिक यूपी में बीजेपी की शानदार जीत के सबसे बड़े कारणों में से एक गैर यादव ओबीसी वोटों को चट्टान की तरह बीजेपी के साथ जोड़ना मान जा रहा है।जानकारों का कहना है कि गैर यादव ओबीसी मतदाताओं ने खुद को समाजवादी पार्टी के शासन में उपेक्षित महसूस किया। ऐसे में इन मतदाताओं का एकजुट होकर बीजेपी के पाले में जाना बीजेपी के शानदार प्रदर्शन के कारणों में से एक हो सकता है।एक अनुमान के मुताबिक बीजेपी 57 फीसदी कुर्मी वोट, 63 फीसदी लोध वोट और बाकी गैर यादव ओबीसी वोटों में से 60 फीसदी हासिल करने मे कामयाब हो गयी।इनमें से अधिकतर जातियों ने पिछले चुनावों में बड़ी संख्या में समाजवादी पार्टी का समर्थन किया था।यही वजह थी कि समाजवादी पार्टी ने 2012 विधानसभा चुनाव में अपने बूते बहुमत हासिल किया था।अमित शाह का एक ये भी जबरदस्त रस्ट्रोक रहा कि उन्होंने केशव प्रसाद मौर्य को यूपी में बीजेपी के प्रदेश प्रमुख के तौर पर प्रोजेक्ट किया। मौर्य की इस प्रोन्नति से पार्टी गैर यादव ओबीसी मतदाताओं को ये संदेश देने में सफल रही कि अगर बीजेपी यूपी में जीतती है तो उन्हें भी सत्ता में बड़े पैमाने पर भागीदारी मिलेगी। साथ ही बीजेपी इस छवि को तोड़ने में भी सफल रही कि वो सवर्णों या बनियों के प्रभुत्व वाली पार्टी है।यूपी की राजनीति को अच्छे से समझने वालों का कहना है कि पूर्वी उत्तर प्रदेश में राजभर समुदाय को लुभाने के लिए जी-तोड़ प्रयास और कुर्मियों के प्रभुत्व वाले अपना दल से गठबंधन करना बीजेपी के लिए बहुत फायदेमंद साबित हुआ।लोकसभा चुनाव मे भी अपना दल ने पूर्वी उत्तर प्रदेश में भाजपा के लिये जीत का रास्ता बनाया था।इससे अमितशाह ने सवर्णों और गैर यादव ओबीसी का जो इंद्रधनुषी गठजोड़ तैयार किया वो यूपी में बड़ी जीत का आधार बन गया।युवा वोटरों का 34 फीसदी हिस्सा बीजेपी के खाते में गया।
पांच साल पहले यूपी की जिस जनता ने अखिलेश को सत्ता के शिखर पर बिठाया था उसे इतनी जल्दी उतार क्यों दिया।बल्कि एक तरह से नकार दिया।आखिर वे क्या वजहें रहीं जिनकी वजह से यूपी में सत्ता की वापसी नहीं कर पाए अखिलेश।यही नही राहुल का साथ भी अखिलेश के काम क्यों नहीं आया ये बड़ा सवाल है। चुनाव प्रचार के दौरान सबसे ज्यादा चर्चा अखिलेश के पक्ष में बने सपा के कैंपेन ‘काम बोलता है’ की हुई।लेकिन नताजों के आंकड़े बता रहे हैं कि अखिलेश का काम सोशल मीडिया पर तो बोला लेकिन ईवीएम तक नहीं पहुंच पाया। अखिलेश विकास के क्षेत्र में अपने कार्यों को वोटों में तब्दील करने में सफल नहीं हो पाए। युवाओं को लुभाने में एसपी-कांग्रेस गठबंधन ने कोई कसर नहीं छोड़ी लेकिन सभी आयु-वर्गों में वो बीजेपी से पिछड़ता नजर आये।कहा जा रहा है कि गठबंधन 31 फीसदी युवा वोटरों का समर्थन हासिल करने मे ही कामयाब हो सका। बीएसपी को इस चुनाव में सबसे करारा झटका लगा है।ये स्थिति तब है जब पार्टी ने सबसे पहले टिकटों का बंटवारा किया था।मायावती अपनी पार्टी बीएसपी की गाड़ी पर अन्य समुदायों के वोटरों को चढ़ाने में पूरी तरह नाकाम हो गयी।मायावती सिर्फ जाटव समुदाय में ही अपनी मजबूत पैठ बरकरार रखने में कुछ हद तक सफल होती दिखी।गैर जाटवों पर बीएसपी की पकड़ तेजी से फिसल गयी।इस बार मुसलमानो पर लगाया गया उनका दांव पूरी तरह से नाकाम रहा।शायद इसी लिये नतीजों के बाद मायावती ने ईवीएम मे गड़बड़ी का सीधा आरोप लगाया है।साल 2007 में सत्ता वापसी के लिए मायावती ने जिस सोशल इंजीनियरिंग का दांव खेला था।इस बार चुनावी मैदान में उतरने से पहले बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने भी वही गुणा-भाग किया और कामयाब हो गये।जबकि माया का मुस्लिम –दलित गठजोड़ बेअसर रहा।अब लगातार दो चुनावों में सत्ता से बाहर रहने से मायावती को अपने वोट बैंक को साथ जोड़े रखना टेढ़ी खीर साबित हो सकता है।यूपी मे नोटबंदी का असर भी नही दिखा।क्यों कि आंकड़े गवाह हैं कि भाजपा को बनिया, कायस्थ, ब्राह्मण और ठाकुर मतदाताओं का उतना ही समर्थन मिला जितना नोटबंदी बम फूटने से पहले मिलता था। ऐसा लगता है कि नोटबंदी का जो नकारात्मक असर था भी उसे यूपी में समाजवादी पार्टी के शासन में कानून और व्यवस्था की बदहाली को लेकर नकारात्मक अवधारणा ने कहीं पीछे छोड़ दिया।1985 के बाद ये पहली बार है जब देश में राजनीतिक दृष्टि से सबसे अहम राज्य में कोई पार्टी 300 सीटों के आंकड़े को पार कर पायी।1985 में उत्तर प्रदेश में, जब उत्तराखंड से अलग नहीं हुआ था, एनडी तिवारी के नेतृत्व में कांग्रेस ने 425 सदस्यीय विधानसभा में 269 सीट जीतने में कामयाबी पाई थी। नवंबर 2000 में उत्तराखंड के यूपी से अलग होने के बाद कोई भी पार्टी प्रदेश में अधिकतम 224 के आंकड़े को ही छू पाई। 2012 विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी ने 224 सीट जीतने में ही कामयाबी पाई थी।अब लगभग तय है कि ये शानदार जीत मोदी के नेतृत्व में बीजेपी को 2019 के लोकसभा चुनाव में भी धार देती नजर आएगी।इसके अलावा गुजरात के साथ दूसरे राज्यों के विधान सभा चुनाव मे भी कामयाबी की इबारत लिखेगी। बीजेपी के लिए उत्तराखंड से भी अच्छी खबर आयी है, यहां 70 सदस्यीय विधानसभा में पूर्ण बहुमत मिल गया। मणिपुर म्े भी भाजपा की सफलता के बड़े मायने है। कांग्रेस के लिए पंजाब मे बेहद सुकून भरा नतीजा रहा।ये तय है कि अब कांगेस के भीतर से राहुल गांधी के खिलाफ आवाज उठेगी।सपा मे भी आने वाले दिनों मे अखिलेश यादव को चुनौती मिल सकती है।
*** शाहिद नकवी ***
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