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तीन तलाक का मुद्दा इन दिनों सुप्रीम कोर्ट की चौखट पर है। इस मामले मे सुप्रीम कोर्ट में पांच जजों की संविधान पीठ मुस्लिमों में होने वाले तलाक की याचिकाओं पर सुनवाई पूरी कर चुकी है।अब लोग अपने अपने तरीके से फैसले का इंतजार कर रहे हैं।याचीकाकर्ता और पीड़ितों को इंसाफ की चाहत है तो मुसलिम पर्सनला बोर्ड को फैसला अपने हक मे आने की उम्मीद है।वहीं केन्द्र सरकार इस दिशा मे बड़ा फैसला लेने के लिये पहले ही ऐलान कर चुकी है।यानी इस दिशा मे वह कानूनों मे बदलाव की हद तक जाने को तैयार दिखती है।गौरतलब है कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अप्रैल के अंतिम सप्ताह में ही अपने एक फैसले में तीन तलाक की प्रथा को एकतरफा और कानून की दृष्टि से खराब बताया था।आजादी के बाद पहली बार कोई केन्द्र सरकार मुसलमानों के इस अहम मसले मे गहरी दिलचस्पी ले रही हे।इस लिये इस मामले में सुनवाई और भी महत्वपूर्ण हो गयी है। दिलचस्प बात यह है कि भारत मे तीन तलाक पर बहस उस समय हो रही है जब दुनियां के दो दर्जन से अधिक मुस्लिम देश बहुत पहले ही नये कानूनों के साथ इस पर रोक लगा चुके हैं या बड़े बदलाव कर चुकें हैं।पवित्र कुरान मे भी एक बैठक मे तीन तलाक का जिक्र नही है।यही नही पड़ोसी मुस्लिम देशों पाकिस्तान और बांग्लादेश में भी मुस्लिम समाज मे तीन तलाक़ जैसी किसी चीज़ का चलन नहीं है।दुनिया की दूसरी सबसे ज्यादा मुस्लिम आबादी वाले देश पाकिस्तान में तीन बार तलाक बोलकर पत्नी से छुटकारा नहीं पाया जा सकता। सुन्नी बहुल इस देश में भी तलाक चाहने वाले व्यक्ति को पहले अपनी पत्नी के खिलाफ यूनियन बोर्ड के चेयरमैन को नोटिस देना होता है। इस मामले में पत्नी को भी जवाब देने का पूरा मौका दिया जाता है।
कहा जाता है कि पाकिस्तान में 1955 में महिलाओं के आंदोलन के बाद यह व्यवस्था शुरू की गई।पाकिस्तानी लेखकों के हवाले से कहा जाता है कि उस समय प्रधानमंत्री मोहम्मद अली बोगरा ने अपनी सेक्रेटरी के प्रेम में पड़कर पत्नी को तलाक दे दिया था, जिसका महिला संगठन ने काफी विरोध किया था। पाकिस्तान मे तलाक़ की पहली घोषणा के बाद पुरुष को यूनियन बोर्ड के चेयरमैन को और अपनी पत्नी को तलाक़ की लिखित नोटिस देनी होगी।इसके बाद पति-पत्नी के बीच मध्यस्थता कर मामले को समझने और सुलझाने की कोशिश की जायेगी और तलाक़ की पहली घोषणा के 90 दिन बीतने के बाद ही तलाक़ अमल में आ सकता है।इसका उल्लंघन करनेवाले को एक साल तक की जेल और जुर्माना या दोनों हो सकता है।बांग्लादेश ने भी तलाक पर पाकिस्तान में बना नया कानून अपने यहां लागू कर तीन तलाक पर प्रतिबंध लगा दिया।जहां तक बहुविवाह का मामला है तो, पाकिस्तान और बांग्लादेश दोनों ही जगहों पर बहुविवाह की मंज़ूरी तो है। लेकिन कोई भी मनमाने ढंग से एक से अधिक शादी नहीं कर सकता।वहाँ दूसरे विवाह या बहुविवाह के इच्छुक व्यक्ति को यूनियन बोर्ड के चेयरमैन यानी आर्बिट्रेशन काउंसिल को आवेदन करना होता है, जिसके बाद काउंसिल उस व्यक्ति की वर्तमान पत्नी या पत्नियों को नोटिस दे कर उनकी राय जानती है और यह सुनिश्चित करने के बाद ही दूसरे विवाह की अनुमति देती है कि वह विवाह वाक़ई उस पुरूष के जीवन के लिये ज़रूरी है।
कभी तालिबान प्रभाव मे रहने वाले मुस्लिम देश अफगानिस्तान में तलाक के लिए कानूनन रजिस्ट्रेशन जरूरी है।यहां 1977 में नागरिक कानून लागू किया गया था। इसके बाद से तीन तलाक की प्रथा समाप्त हो गई। भारत के ही एक अन्य पड़ोसी देश श्रीलंका में तीन तलाक वाले नियम को मान्यता नहीं है।वैसे तो श्रीलंका मुस्लिम देश नहीं है, लेकिन यहां मुसलमानो को कानून के मुताबिक तलाक देने से पहले काजी को सूचना देनी होती है।इसके बाद 30 दिन में काजी पति-पत्नी में समझौते की कोशिश करता है।बात समझौते से ना बनने पर ही काजी और दो चश्मदीदों के सामने तलाक हो सकता है।इस्लामी जगत मे मिस्र ने तो सबसे पहले 1929 में ही तीन तलाक पर प्रतिबंध लगा दिया था। यहां रहने वाले ज्यादातर सुन्नी मुसलमान हैं।यहां कानून के अनुसार तीन बार तलाक कहने पर भी उसे एक ही माना जाएगा। तुर्की ने 1926 में स्विस नागरिक संहिता अपनाकर तीन तलाक की परंपरा को त्याग दिया। इस संहिता के लागू होते ही यहां शादी और तलाक से जुड़ा इस्लामी कानून अपने आप हाशिये पर चला गया।एक जानकारी के मुताबिक कहा जाता है कि 1990 के दशक में इसमें इसमें जरूर कुछ संशोधन हुए, लेकिन जबरदस्ती की धार्मिक छाप से तुर्की के लोग तब भी बचे रहे।बाद मे तो साइप्रस में भी तुर्की के कानून को मान्य किया गया है।यानी साइप्रस मे भी तीन तलाक को मान्यता नहीं मिली है। मलेशिया में कोर्ट के बाहर तलाक मान्य नहीं है। पुरुषों की तरह महिलाएं भी यहां तलाक के लिए आवेदन दे सकती हैं।
दुनियां के दूसरे इस्लामी कानूनों को मानने वाले देशों मे शादी और तलाक के कानूनों की पड़ताल करने पर पता चलता है कि लीबिया जैसे देशों में महिला और पुरुष दोनों को ही तलाक लेने की अनुमति है, लेकिन यहां भी कोर्ट की अनुमति से ही तलाक लिया जा सकता है।अफ्रीकी देश सूडान में इस्लाम को मानने वालों की जनसंख्या बहुत अधिक है।कहा जाता है कि यहां सूफी और सलाफी मुसलमान ज्यादा हैं, लेकिन यहां भी तीन तलाक को मान्यता नहीं है। 1935 से ही यहां तीन तलाक पर प्रतिबंध है। अल्जीरिया में भी अदालत में ही तलाक दिया जा सकता है। यहां जोड़े को फिर से मिलने के लिए 90 दिन का समय रखा गया है।कड़े इस्लामी कानूनों के लिये जाना जाने वाले ईरान में 1986 में बने 12 धाराओं वाले तलाक कानून के अनुसार ही तलाक लिया जा सकता है।हांलाकि मात्र 6 साल बाद ही सन 1992 में इस कानून में कुछ संशोधन किए गए इसके बाद कोर्ट की अनुमति से ही तलाक लिया सकता है।कट्टइरपंथी समझे जाने वाले ईरान में भी महिलाओं को भी तलाक देने का अधिकार है।इराक में भी कोर्ट की अनुमति से ही तलाक लिया जा सकता है।जानकारी के मुताबिक सीरिया में करीब 74 प्रतिशत आबादी सुन्नी मुसलमानों की है।यहां 1953 से तीन तलाक पर प्रतिबंध है।यहां के कानून के मुताबिक कोर्ट से तलाक लिया जा सकता है।बताया जाता है कि यहां तलाक के बाद महिला को गुजारा भत्ता देना होता है।मोरक्को में 1957-58 से ही मोरक्कन कोड ऑफ पर्सनल स्टेटस लागू है। इसी के तहत तलाक लिया जा सकता है। मोरक्को में तो तलाक का पंजीयन कराना भी जरूरी है।वहीं ट्यूनीशिया में 1956 में बने कानून के मुताबिक वहां अदालत के बाहर तलाक को मान्यता नहीं है।यहां पहले तलाक की वजहों की पड़ताल होती है और यदि दंपति के बीच सुलह की कोई गुंजाइश न दिखे तभी तलाक को मान्यता मिलती है।यहां तक की इस्लाम को मानने वाला देश संयुक्त अरब अमीरात मे भी सम्बन्ध-विच्छेद करने के लिये तीन तलाक जैसी कोई सूरत नही है।यानी कानून यहां भी तीन तलाक पर रोक है।वैसे जॉर्डन, कतर, अल्जीरिया,मलयेशिया, बहरीन और कुवैत में भी भारत मे शादी समाप्त करने के लिये सबसे ज़्यादा चलन मे लाया जाने वाला तरीका, तीन तलाक पर प्रतिबंध है।
इस्लामी कानूनों के जानकारों के मुताबिक पवित्र कुरान में तलाक को न करने लायक काम का दर्जा दिया गया है। फिर भी भारत जैसे लोंकतांत्रिक देश मे तलाकुल बिद्द यानी एक बार मे तीन तलाक कह कर विवाह का सम्बन्ध-विच्छेद किया जा रहा है।जानकारों का कहना है कि इस्लामी कानूनों के मुताबिक किसी जोड़े में तलाक की नौबत आने से पहले हर किसी की यह कोशिश होनी चाहिए कि जो रिश्ते की डोर एक बार बन्ध गई है उसे मुमकिन हद तक टूटने से बचाया जाए। जब किसी पति-पत्नी का झगड़ा बढ़ता दिखाई दे तो अल्लाह ने कुरआन में उनके करीबी रिश्तेदारों और उनका भला चाहने वालों को यह हिदायत दी है कि वो आगे बढ़ें और मामले को सुधारने की कोशिश करें ।सुलह की कोशिशें नाकाम होने के बाद भी तलाक की प्रक्रिया तीन महीने मे पूरी करने के तरीके पर अमल करने को कहा गया है।आज से 32 साल पहले मध्यप्रदेश की शाह बानो मुसलिम महिलाओं के साथ तीन तलाक के नाम पर होनेवाले अन्याय की आवाज बनीं थी।हालांकि, उनके जरिये सुप्रीम कोर्ट से मुसलिम महिलाओं को मिली राहत पर तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने ग्रहण लगा दिया था।एक बात समझ में नहीं आती कि आखिर यहां तीन तलाक से चिपके रहने की क्या वजह है।जबकि पाकिस्तान आज से पचपन साल पहले इन सुधारों को लागू कर चुका है। भारत में मुसलिम पर्सनल लॉ बोर्ड का गठन 1973 में हुआ।फिर भी पाकिस्तान में बारह साल पहले हुए सुधारों को भारत मे नही अपनाया गया।मुस्लिम महिलाओं की लगातार मांग और उन पर तीन तलाक के बेजा इस्तेमाल की बढ़ती घटनाओं के बाद भी दुर्भाग्य से बदलते समय की सच्चाइयों और ज़रूरतों के हिसाब से सुधारों को न कभी स्वीकार किया गया और न उनकी ज़रूरत महसूस की गयी।इसके पीछे शायद मुस्लिम तंजीमों को यूनिफ़ॉर्म सिविल कोड आने का डर सता रहा हो?बहरहाल भारतीय मुस्लिम समाज को उन सुधारों को भी लागू करने से नहीं हिचकिचाना चाहिये,खास कर जिन्हें बहुत से मुसलिम देश बरसों पहले अपना चुके हैं।वह भी तब जब इतने बरसों मे कोई विपरीत प्रभाव इनमें से किसी देश में नहीं दिखा।लेकिन अब लगता है कि देश मे बदलाव की आवाज़ खुद मुस्लिम महिलायें बनेगीं।तीन तलाक पीड़ित मुस्लिम महिलाओं के हौसलें को उड़ान देने के लिये तमाम संघटन आगे आयें है,इसमे कई संघटन खुद मुस्लिम महिलाओं ने बनायें हैं।जो अदालतों से लेकर विभिन्न मंचों पर तीन तलाक के खिलाफ लड़ाई लड़ रहे हैं।कहा जाता है कि विकास का रास्ता समाज मे सुधारों से ही जाता है।
** शाहिद नकवी **
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